दक्षिण भारत में श्रवणबेलगोला के भगवान बाहुबलि महामस्तकाभिषेक की परम्परा तो एक हजार वर्षों से चली आ रही है किन्तु उत्तर भारत में महामस्तकाभिषेकों की परम्परा प्राय: नहींr देखी जाती थी अत: पूज्य माताजी की प्रेरणा से शाश्वत तीर्थ अयोध्या में विराजमान ३१ फुट उत्तुंग प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा का महामस्तकाभिषेक युग-युग के लिए एक प्रेरणास्रोत बन गया।
प्र्द्वितीय बार किया गया ध्यान अद्वितीय बन गया-
धनतेरस की प्रत्यूष बेला थी, जब वीर निर्वाण संवत् २५१८ समापन की राह देख रहा था। हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र के जम्बूद्वीप स्थल पर युगप्रवर्तिका, पूज्य १०५ गणिनी, आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने प्रातःकालीन सामायिक में सुमेरु पर्वत का ध्यान करते-करते अयोध्या के भगवान ऋषभदेव का उन्हें ध्यान में ही दर्शन हो गया। भगवान महावीर स्वामी के कमल मंदिर एवं त्रिमूर्ति मंदिर के दर्शन करके जम्बूद्वीप की प्रदक्षिणा लगाते हुए वे मुझसे बोलीं-
‘‘चन्दनामती! आज मेरे भाव अयोध्या तीर्थ की ओर विहार करने के लिए हो रहे हैं।’’ मैं आश्चर्य से माताजी को देखने लगी कि आज कौन सी प्रबल प्रेरणा इन्हें प्राप्त हुई है? कहाँ तो सौ-पचास किलोमीटर विहार के लिए भी हकीम जी राय नहीं देते हैं क्योंकि चलने का अधिक परिश्रम इनके स्वास्थ्य के प्रतिकूल है, पुन: छह सौ किलोमीटर तक अयोध्या का रास्ता भला वैâसे सोचा जा सकता है?
मेरी प्रश्नवाचक मुद्रा देखकर पूज्य माताजी स्वयमेव बोल पड़ीं-
‘‘आज प्रातःकाल के ध्यान में मुझे अन्तर्प्रेरणा प्राप्त हुई है कि अयोध्या में विराजमान भगवान ऋषभदेव की उत्तुंग प्रतिमा का ‘‘महामस्तकाभिषेक’’ करवाने के लिए अयोध्या जाना है।’’
थोड़े से वार्तालाप के बाद हम लोग अपनी वसतिका (रत्नत्रयनिलय) में आ गए। सामूहिक स्वाध्याय के अनन्तर क्षुल्लक मोतीसागरजी के समक्ष चर्चा आई लेकिन बात हँसी में उड़ गई। यह कहकर कि इतने लम्बे प्रवास के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता है। ‘‘न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी’’ इस सूक्ति को कहकर हम लोग निश्चिन्त हो गए किन्तु प्रबल प्रेरणा भला शारीरिक शक्ति कहाँ देखती है?
माताजी का चिन्तन चलता रहा कि अपने परमपिता आदीश्वर बाबा के पास कब और किस प्रकार पहुँचना है? ब्र.रवीन्द्र कुमार जी उस दिन दिल्ली गए हुए थे। अगले दिन कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी को वे हस्तिनापुर आए, चातुर्मास समापन की उस तिथि को सभी साधुओं के उपवास थे, मैंने अपना केशलोंच भी किया था। केशलोंच के बाद मध्यान्ह ११ बजे पूज्य माताजी रवीन्द्र जी से भी कहने लगीं कि मुझे अयोध्या तीर्थक्षेत्र की यात्रा हेतु विहार करना है।
थोड़ी देर हँसी मजाक के बाद विहार की इस भावना ने गंभीर रूप धारण कर लिया और माताजी बोलीं-‘‘विहार तो मुझे करना है, रही बात आदिनाथ स्वामी के मस्तकाभिषेक की, उसका भार तुम्हीं (रवीन्द्र जी) को लेना होगा।’’
एक बात यहाँ और स्मरणीय है कि राजस्थान की राजधानी जयपुर शहर के जैन श्रावकों ने सितम्बर १९९२ में जयपुर में विशाल स्तर पर कल्पद्रुम महामंडल विधान आयोजित किया था। आचार्य श्री कुंथुसागरजी महाराज के सानिध्य में जम्बूद्वीप के सुप्रसिद्ध विद्वान पंडित सुधर्मचन्द्र शास्त्री एवं पंडित नरेश कुमार शास्त्री ने उस विधान को शास्त्रोक्त विधि से सम्पन्न कराया था। विधान में १२०० नर-नारियों ने पूजन की तथा प्रतिदिन ५००० लोग उस संगीतमयी पूजन को सुनने आते थे।
लाखों रुपये खर्च करके वहाँ के श्रावकों ने उस विधान को सम्पन्न कर राजस्थान में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया पुनः उन सभी ने निर्णय किया कि कल्पद्रुम विधान की रचयित्री पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के पास जाकर उनका अभिनन्दन करना है।
दिनाँक १८ अक्टूबर १९९२ रविवार को जयपुर से ४० बसों एवं अनेक कारों में हजारों नर-नारी हस्तिनापुर पधारे। जम्बूद्वीप संस्थान के पदाधिकारियों ने उन सबका यथोचित आतिथ्य किया पुनः एक विशाल पांडाल में वहाँ उन सभी ने माताजी की अष्टद्रव्य से संगीतमय पूजन की और एक प्रशस्तिपत्र के माध्यम से पूज्य माताजी को ‘‘आर्यिकाशिरोमणि’’ की उपाधि प्रदान की।
खुशी में झूमते हुए उन जयपुर के नागरिकों ने गणिनी आर्यिकाश्री के चरणों में श्रीफल भेंट करके जयपुर में चातुर्मास करने का साग्रह निवेदन किया तथा यह प्रार्थना की कि हम लोग आपके सानिध्य में आपके ही द्वारा रचित ‘‘सर्वतोभद्रविधान’’ इससे भी बड़े रूप में करेंगे, जिसमें ५ हजार नर-नारी पूजन में बैठेंगे तथा पचीसों हजार जनता प्रतिदिन आपका प्रवचन सुनकर लाभान्वित होगी। आपका यह जयपुर चातुर्मास हम इतिहास का अविस्मरणीय पृष्ठ बनाएंगे, आपकी स्वीकृति प्राप्त होते ही हम लोग आपके संघ का विहार पूरी व्यवस्था के साथ कराएंगे, प्रतिदिन सैकड़ों व्यक्ति आपके साथ पदविहार करेंगे…….इत्यादि।
इस प्रकार अपनी भक्ति भावनाएँ प्रगट कर तथा पूज्य माताजी से आशीर्वाद प्राप्त कर जयपुर के भक्तगण तो चले गए किन्तु हम लोगों को कुछ चिन्तन करने का विषय वे प्रदान कर गए कि प्रत्यक्ष एवं परोक्ष में गुरु भक्ति वैâसे होती है?
राजस्थान तो यूं भी भक्ति के क्षेत्र में सदा सरस रहा है इसीलिए वहाँ हमेशा साधुओं का सानिध्य बना ही रहता है।
२४ अक्टूबर १९९२ कार्तिक कृ. चतुर्दशी को जब अयोध्या विहार की प्रारंभिक वार्ता चल रही थी, तब रवीन्द्र जी को जयपुर के भक्तों की बात याद आ गई और वे बोल पड़े कि ‘‘माताजी! विहार ही करना है तो जयपुर की ओर करिये, वहाँ विशाल स्तरीय आयोजन हो सकते हैं। फिर हम सभी का यह कहना रहा कि इतने लम्बे विहार के बारे में तो आपको सोचना भी नहीं चाहिए क्योंकि स्वास्थ्य अनुकूल नहीं है तथा देश के हालात भी इन दिनों ठीक नहीं चल रहे हैं। अयोध्या के विवाद को लेकर कहीं भी किसी भी समय झगड़ा हो सकता है।’’
उस दिन की बात तो लगभग यहीं पूरी हो गई, उसके बाद कई दिनों तक कोई चर्चा विहार संबंधी नहीं हुई अतः हम लोगों ने समझा कि अब माताजी ने अयोध्या विहार का अपना निर्णय बदल दिया है लेकिन उनके हृदय में अन्तर्प्रेरणा बराबर चलती रही जो पुनः प्रगट हुई ३० नवम्बर १९९२ को।
प्र्प्रबल इच्छा को मिला एक सम्बल-
हुआ यूं कि उत्तरप्रदेश की तहसील फतेहपुर से जैन समाज के अध्यक्ष श्री सरोज कुमार जैन अपने अन्य और निकटस्थ साथियों के साथ हस्तिनापुर आए हुए थे। उन्होंने पूज्य माताजी के पास श्रीफल चढ़ाकर अवध प्रान्त में विहार करने हेतु निवेदन किया, तब माताजी मुस्कुराकर उनसे उधर के रूट की जानकारी करने लगीं। अवध के उन महानुभावों को तो शायद स्वप्न में भी उम्मीद नहीं थी कि माताजी का हमारे नगरों की ओर कभी विहार हो भी सकता है। बस वे जब भी आते थे तो निवेदन अवश्य करते थे कि माताजी! क्या कभी आप अपनी जन्मभूमि की ओर भी ध्यान देंगी? आपका क्षेत्र ही आपका सानिध्य नहीं प्राप्त कर पा रहा है, यह तो ‘‘दीपक तले अंधेरे’’ वाली कहावत सिद्ध हो रही है।
सदैव की श्रद्धाभक्ति के अनुसार ही ३० नवम्बर को सरोज जी ने कहा था किन्तु इस बार की स्थिति देखकर वे कुछ आश्वस्त हुए और थोड़ी ही देर बाद मेरे पास आकर पूछने लगे-
‘‘माताजी! क्या संघ का विहार वास्तव में हमारे प्रान्त की ओर हो सकता है?’’
मैंने कहा-‘‘इसमें असंभव जैसी भी कोई बात नहीं है, भक्ति के बल पर सब कुछ संभव हो सकता है।’’ फिर मैंने धनतेरस के दिन वाली थोड़ी सी बात भी उन्हें बताई, तब वे बड़े प्रसन्न हुए और कहने लगे कि ‘‘लगता है अवध प्रदेश की लाटरी खुलने के दिन आ गए हैं।’’
उस समय हस्तिनापुर में क्षुल्लक मोतीसागर महाराज, ब्र.रवीन्द्र जी आदि कोई भी नहीं थे क्योंकि ये लोग सनावद (म.प्र.) क्षु. मोतीसागर जी की जन्मभूमि में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में गए हुए थे।
ये लोग अभी सनावद से वापस भी नहीं आए थे, उससे पूर्व पूज्य माताजी ने अयोध्या की ओर विहार करने का ९० प्रतिशत मन बना लिया और मुझे विहार की व्यवस्था बनाने हेतु निर्देश देने लगीं।
माताजी का पक्का निर्णय सुनकर मुझे कुछ घबड़ाहट सी होने लगी कि इतने कमजोर स्वास्थ्य में माताजी इतनी दूर वैâसे विहार करेंगी? मैंने माताजी से कहा कि क्षुल्लक जी और रवीन्द्रजी के आने पर आप विचार-विमर्श करके निर्णय लीजिए किन्तु वे भला अब किसकी मानने वाली थीं! उन्होंने कहा कि तुम उधर प्रान्त में अब सूचना करा सकती हो कि फरवरी में मेरा विहार हस्तिनापुर से होगा।
मेरा हृदय अभी तक अन्दर से गवाही नहीं दे रहा था कि माताजी का विहार हो ही जाएगा, फिर भी मैंने टिवैâतनगर के श्रावक प्रद्युम्न कुमार जैन (छोटीशाह) एवं फतेहपुर के सरोज जैन को संभावित विहार की सूचना भिजवा दी, ताकि पक्का निर्णय समाज के समक्ष आ सके।
6 दिसम्बर ने पुन: निर्णय बदलवाना चाहा-
यह एक अनहोना संयोग ही कहना पड़ेगा कि माताजी ने एक अत्यन्त विवादित एवं हरवक्त आग की लपटों में घिरे ‘‘अयोध्या’’ तीर्थक्षेत्र की ओर ही fवहार करने का निर्णय लिया, मानो भगवान ऋषभदेव की जन्मभूमि की प्रबल प्रेरणा ही उन्हें खींच रही थी। तभी एक बड़ा भारी प्रसंग आया- ६ दिसम्बर १९९२ का, जब अयोध्या में हिन्दू-मुस्लिम विवाद जोरों से छिड़ गया और तमाम नरनारी बलिवेदी पर चढ़ गये।
पश्चिमी उत्तरप्रदेश के मवाना, मेरठ, सरधना आदि नगरों के लोगों को जब ज्ञात होना प्रारंभ हुआ कि पूज्य ज्ञानमती माताजी संघ सहित अयोध्या तीर्थ की ओर विहार करने वाली हैं, तब भक्तगण हस्तिनापुर आ-आकर अपनी विज्ञप्ति रखने लगे कि ‘‘इस समय के माहौल में यहाँ से आपका अयोध्या के लिए विहार करना कथमपि उचित नहीं है।’’
कुछ लोगों ने माहौल का भय दिखाया एवं कुछ ने माताजी के स्वास्थ्य के प्रति सहानुभूति व्यक्त करते हुए कहा कि ‘‘माताजी! अब आपको इधर ही आसपास थोड़ा-थोड़ा विहार करना चाहिए, ज्यादा दूर की यात्रा नहीं सोचना चाहिए।’’ इसी तरह से अवध की ओर विहार करने की नरम-गरम वार्ता चलती रही, तभी दिसम्बर के अंतिम सप्ताह में टिवैâतनगर के प्रद्युम्न कुमार जैन उर्फ छोटी शाह तथा सुभाषचन्द्र जैन हस्तिनापुर पहुँचे और पूज्य माताजी के श्रीचरणों में श्रीफल भेंट किया। छोटीशाह कहने लगे कि-‘‘माताजी! आपके इस विहार कराने का भार मैं अकेला उठाऊँगा और संघ को किसी तरह का कष्ट नहीं होने पाएगा।’’
अनेक ऊहापोहों के बाद माताजी ने अपनी पूर्ण स्वीकृति अयोध्या विहार के लिए प्रदान कर दी और संघपति के रूप में श्री छोटीशाह जी को मंगल आशीर्वाद दिया। ये लोग प्रसन्नमना घर वापस चले गये और धीरे-धीरे यह समाचार अवध की जनता में हवा की तरह पैâल गया।इसी मध्य एक-दो ज्योतिषाचार्य ने भी आकर हम लोगों को बताया कि पूज्य माताजी के करकमलों से अयोध्या विकास का योग इतना प्रबल है कि कितनी भी अड़चनें आने पर इनके कदम अब रुक नहीं सकते हैं।
प्र्अयोध्या के लिए विहार का मंगल मुहूर्त-
जनवरी में भीषण सर्दी के कारण विहार करना संभव नहीं था किन्तु पूज्य माताजी की अन्तर आत्मा तो भगवान ऋषभदेव के दर्शन को व्याकुल थी अतः शुभमुहूर्त निश्चित किया-११ फरवरी १९९३, फाल्गुन कृष्णा पंचमी का। यद्यपि माताजी के भक्तगणों को भली भाँति ज्ञात है कि इनके द्वारा संकल्पिक प्रत्येक कदम दृढ़ता के साथ सतत आगे ही बढ़ता है, वह कभी पीछे नहीं हटता तथापि उनका रागी मन गुरु छाया से दूर रहने की विकलता से तड़पने लगा और उन्होंने हर संभव प्रयत्न किये कि माताजी का विहार किसी तरह स्थगित हो जावे।
इधर अवध प्रान्त में हर्ष का वातावरण छाया था, टिवैâतनगर में संघपति छोटीशाह जी विहार की तैयारी में जुटे थे। वे समयानुसार ९ फरवरी को अपने लवाजमें के साथ हस्तिनापुर पहुँच गए और बताने लगे कि ८-१० दिन पूर्व हस्तिनापुर के मनोज कुमार जैन एवं मवाना (वर्तमान में दोनों मेरठ निवासी) के राकेश जैन के पत्र मेरे पास पहुँचे थे कि देश की परिस्थितियों के कारण पूज्य माताजी का विहार स्थगित हो गया है अतः आप लोग अब तैयारी न करें और न हस्तिनापुर आवें। तब मैंने पूछा-फिर भी आप पूरी तैयारी करके वैâसे आ गए हैं? वे हंसकर कहने लगे-आखिर तो भगवान् भी भक्तों के वश में होते हैं, फिर पूज्य माताजी ने मुझे स्वीकृति प्रदान की थी, यदि कोई कारण था तो संघ से कोई सूचना जाती। मैंने तो सोच लिया कि अब चाहे हस्तिनापुर में सत्याग्रह ही क्यों न करना पड़े किन्तु मैं संघ को लिए बिना वापस नहीं लौट सकता हूँ।
पाठक समझ गए होंगे कि मोह के कारण ही इन भक्तों ने झूठे पत्र डाल दिये थे किन्तु पूज्य माताजी का संघ सहित मंगल विहार ११ फरवरी, फाल्गुन कृ. ५ को दिन में २ बजे हस्तिनापुर से अवध प्रान्त की ओर हो गया। संयोग और वियोग के सुख-दुःख मिश्रित अनेक नेत्र अश्रुपूरित थे। जम्बूद्वीप का चप्पा-चप्पा अपनी माता को निहार रहा था तथा उनकी मनोकामना की सफलता हेतु अपने मंगल भाव प्रेषित कर रहा था।
प्र्ब्र. रवीन्द्र जी अधीर हो उठे-
संघ विहार करके अभी ८ किमी. दूर बहसूमा ही पहुँचा था, वहाँ दूसरे दिन १२ फरवरी को सबेरे ११ बजे सुभाषचन्द्र टिवैâतनगर वाले पहुँचे और बताने लगे कि कल जब से आप लोगों का विहार हुआ है, तब से रवीन्द्रजी अत्यन्त व्याकुल हैं,पूरी रात सोए नहीं हैं, बिलख-बिलख कर रो रहे हैं। उनका हाल बताते हुए सुभाषजी स्वयं भी विह्वल होकर कहने लगे कि रवीन्द्र को हम लोगों ने बहुत समझाया किन्तु उन्होंने अभी भोजन भी नहीं किया है, उनकी आँखों से निरन्तर अश्रुधारा बह रही है और ज्यादा पूछने पर वे कहते हैं कि ‘‘मैं अकेला वैâसे रहूँगा?’’ मैंने आपके पास उन्हें लाने की बड़ी कोशिश की किन्तु वे यहाँ भी नहीं आ रहे हैं। मुझे लगता है कि वे अपने को निपट एकाकी अनुभव कर घबड़ा रहे हैं। माताजी! अब आप ही कुछ प्रयत्न कीजिए, उनकी दशा हमसे देखी नहीं जा रही है। आपका लम्बा प्रवास है, यदि इनका यही हाल रहा तो वैâसे क्या होगा? मेरे मुँह से तुरंंत निकला कि माताजी! यदि आप आदेश दें तो मैं वापस हस्तिनापुर भाई जी को समझाने चली जाऊँ?
यह अनहोनी घटना सुनकर पूज्य माताजी को भी आश्चर्य और दुःख हुआ। बहसूमा से मध्यान्ह ५ बजे मीरापुर के लिए विहार होना था उससे पूर्व माताजी ने संघपति छोटीशाह को, सुभाष को तथा कु. इन्दु, कु. सोनी को हस्तिनापुर भेजा कि जबर्दस्ती रवीन्द्रजी को मेरे पास ले आओ। शाम ४ बजे संघ का मीरापुर मंगल पदार्पण हुआ। वहाँ सबके साथ रवीन्द्र जी आए। उनकी आँखें ही अन्दर की वेदना प्रगट कर रही थीं। सबसे पहले तो स्नान करवाकर उन्हें जलपान कराया गया पुनः माताजी ने कहा कि अब तुम्हें हस्तिनापुर न जाकर मेरे साथ ही रहना है। धीरे-धीरे वार्तालाप होते-होते वे भी कुछ शान्त हुए और संघ का विहार निर्विघ्नतया प्रारंभ हुआ और सभी चल पड़े अपने गन्तव्य की ओर अयोध्या के बाबा श्री ऋषभदेव के दर्शन की अभिलाषा लेकर।
इसके बाद रवीन्द्रजी का हस्तिनापुर और संघ में आने-जाने का क्रम बना रहा। पूज्य माताजी ने उस दिन सन् १९५२ का वह दिन याद किया, जब वे दो वर्ष के छोटे भाई रवीन्द्र के हाथों से अपनी धोती छुड़ाकर सदा के लिए घर से निकली थीं। बाद में अपनी जीजी के वियोग में वह बहुत बीमार हुआ किन्तु वैरागन जीजी को तिल भर भी ममता न छू पाई थी। आज के इन क्षणों में तो ऐसी कोई परिस्थिति नहीं थी किन्तु पूज्य माताजी के विहार से पूरा हस्तिनापुर इस तरह वीरान हो गया था कि वहाँ रहने व आने वाले हर व्यक्ति को कुछ दिन इसी तरह दुःख उत्पन्न कराते रहे।
प्र्चरण पड़ते ही गंगा में डूबा व्यक्ति तिर गया-
घटना है १३ फरवरी १९९३ के अपरान्ह ४ बजे की, जब पूज्य माताजी मीरापुर से चलकर १४ किमी. दूर बैराज के गेस्ट हाउस पर पहुँची थीं। बैराज के पुल पर एक अतिशय चमत्कार हुआ, जिसे सभी ने आँखों से देखा। हुआ यूँ कि माताजी के आने से एक घंटे पहले एक व्यक्ति स्नान करते-करते गंगा में गिर गया था। वह बेचारा उस तेज धार में तैरने की कोशिश कर रहा था किन्तु लगभग डूबने ही वाला था कि माताजी के चरण उस पुल पर पड़े और न जाने कहाँ से ३-४ व्यक्तियों ने आकर उसी क्षण उसे बचा लिया। पानी से निकलते ही उस गिरे हुए मनुष्य की दृष्टि सबसे पहले पूज्य माताजी पर पड़ी और वह वहीं चीख पड़ा-अरे अम्माजी! आपकी कृपा से आज मैं बचा हूँ, मुझे आशीर्वाद प्रदान कीजिए। बचाने वाले आदमी भी कहाँ से आए थे एवं कहाँ चले गए? कुछ पता ही नहीं चला। इसीलिए तो कवियों ने तपस्वी सन्तों की महिमा बताते हुए कहा है-
‘‘वे गुरु चरण जहाँ धरें, जग में तीरथ होय।’’
प्र्परीक्षा की कठिन घड़ियाँ-
सुकुमाल, सुकौशल मुनियों की तथा चन्दनबाला, सीता आदि आर्यिकाओं की कोमल काया एवं उनके कठोर तप की कथाएँ पुराणों में पढ़ने को मिला करती हैं। वर्तमान के साधु-साध्वी भी उस तपस्या की साधना कर अपनी मानव पर्याय सार्थक करते हैेंं। मैंने सुना भी था कि दीक्षा लेने के बाद अनेक परीक्षा की घड़ियाँ सामने आती हैं, जिन्हें सहन करने से ही उत्तीर्णता प्राप्त होती है और भविष्य के संकट झेलने की क्षमता जागृत होती है। बड़े उत्साहपूर्वक मैंने भी असीमित कल्पनाएँ संजोकर हस्तिनापुर से विहार किया था किन्तु अभी तो दो दिन ही बीते थे कि १३ फरवरी को मेरे पैरों में बड़े-बड़े छाले पड़ गए। अंगुलियों के सहारे चलने से सारी अंंगुलियों में भी चने जैसे फफोले उठ आए। यह शायद मेरी कठिन परीक्षा थी कि अभी से तुम्हारा यह हाल है तो छह-सात सौ किलोमीटर का रास्ता वैâसे पार कर पाओगी? पूज्य माताजी मुझे देखकर कभी चिन्तित होतीं कि वैâसे क्या होगा? कभी वे साहस दिलातीं और कहतीं कि पहले मुझे भी इसी तरह छाले पड़ते थे, खून बहता था। मैंने कहा कि लगता है भगवान् ऋषभदेव मेरी कड़ी परीक्षा ले रहे हैं। मेरे जीवन की ये पहली घड़ियाँ थीं, जब मैंने साधु अवस्था का पद विहार कष्ट इस तरह झेला था। चलते समय जो कष्ट होता था, वह सब अपने विश्रामस्थल पर पहुँचकर पूज्य माताजी का आशीर्वाद एवं मातृत्व स्नेह पाकर समाप्त हो जाता था।
आश्चर्य तो मुझे स्वयं पर उस दिन हुआ, जब १४ फरवरी को बिजनौर पहुँचते ही १५ ता. को सुबह एक डाक्टर महोदय ने आकर मेरी स्थिति देखते ही एक बड़ा सा छाला पकड़कर नोंच दिया, अब अन्दर की लाल खाल दिखने लगी थी। प्रत्यक्ष जाहिर था कि अब कुछ दिन विहार नहीं हो सकता है। डॉक्टर ने कुछ मल्हम लगाकर पट्टी बाँध दी और बोले कि २-४ दिन चलना नहीं है वर्ना सेफ्टिक होने का डर है।
जिस दिन से हस्तिनापुर से विहार हुआ था, प्रत्येक नगर में प्रोग्राम तारीखों के हिसाब से अप-टू-डेट तैयार कर लिए गए थे। अब बिजनौर में रुकने का मतलब था कि आगे कई दिनों का कार्यक्रम अस्त-व्यस्त होता। १५ फरवरी को वहाँ विश्राम था, अगले दिन मैंने हृदय में भगवान का स्मरण किया और पूज्य माताजी का आशीर्वाद मिला, बस रास्ता वैâसे तय हो गया, पता ही न चला। रास्ते में बरसात आई तो मुझे चलने में और अधिक सुविधा ही महसूस हुई।
हाँ! रास्ते में मैं सदैव पूज्य माताजी द्वारा बताया हुआ यह मंत्र अवश्य पढ़ती रहती थी-‘‘ॐ ह्रीं अनंतबलप्राप्तये श्री सिद्धपरमेष्ठिने नम:।’’
यद्यपि २८ फरवरी तक मुझे पैर के छालों से काफी तकलीफ रही, फिर भी विहार कभी रुका नहीं, इसे मैं प्रभु का आशीर्वाद समझती हूँ। शायद परीक्षा में उत्तीर्ण भी हुई तभी अपने गन्तव्य तक पहुँच सकी। मेरे साथ में टिवैâतनगर के श्री मदनलाल जैन पैदल चलते हुए मेरे कष्टों का अनुभव करते रहते थे। वे अपने साथियों से कहते थे-
रक्त की धारा पैरों से बहती रही,
चन्दनामती की पदयात्रा चलती रही।।
वास्तव में यह जैनीचर्या इसीलिए तलवार की धार के समान कही गई है कि इसमें कहीं किसी शिथिलता की गुंजाइश नहीं है। पंचमकाल के अंत तक दिगम्बर जैन साधु-साध्वियों की यह चर्या इसी प्रकार चलती रहेगी, इसमें संदेह नहीं करना चाहिए।
प्र्अहिच्छत्र तीर्थ के प्रथम दर्शन कर अमूल्य न्योछावर भेंट की-
जैसे नई दुल्हन का प्रथम बार मुख दर्शन करके सभी पारिवारिक जन उसे कुछ न कुछ भेंट देते हैं उसी प्रकार पूज्य माताजी ने ‘‘अहिच्छत्र’’ तीर्थ के प्रथम दर्शन कर वहाँ एक बहुमूल्य भेंट समर्पित की।
जीवन में प्रथम बार वे १३ मार्च १९९३ को अहिच्छत्र पहुँची थीं। वहाँ ३ दिन विश्राम भी रहा पुनः तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ के दर्शन से माताजी के हृदय में भावना जागृत हुई कि यहाँ तीस चौबीसी तीर्थंकरों की सात सौ बीस जिन प्रतिमाएँ विराजमान होनी चाहिए। इसी भावना के अनुसार उन्होंने १६ मार्च १९९३ मंगलवार को भगवान ऋषभदेव की जन्मजयंती महोत्सव में प्रवचन करते हुए इस योजना को घोषित किया और इस निर्माण की जिम्मेदारी प्रेमचंद जैन, तेल वाले मेरठ निवासी को सौंपी। जिनेन्द्र भक्ति का अतिशय तुरंत फलित हुआ, योजना की घोषणा होते ही अनेक श्रद्धालुओं ने अपने-अपने नाम प्रतिमा हेतु लिखवाने शुरू कर दिये। देखते ही देखते लाखों रुपये की स्वीकृतियाँ हो गईं। पूज्य माताजी की वह भेंट वहाँ साकार रूप ले चुकी है। इस भेंट को पूज्य माताजी भगवान पार्श्वनाथ के श्री चरणों में अपनी श्रद्धा पुष्प न्योछावर मानती हैं। उनका कहना है कि साधु और श्रावक दोनों के सम्मेलन से ही तीर्थों का विकास संभव है।
अहिच्छत्र की एक नई संस्था ‘‘ज्ञानतीर्थ’’ है, वहीं हमारे संघ का तीन दिन विश्राम रहा। इस संस्था के प्रमुख श्री सलेकचन्द्र जैन दिल्ली वालों को भी माताजी ने मंदिर निर्माण की उचित रूपरेखा तथा ‘‘पार्श्वनाथ कला मंदिरम्’’ नाम से नवीन आकर्षक योजना भी बताई जिसमें भगवान पार्श्वनाथ के जीवन से संबंधित इलेक्ट्रॉनिक झांकियों को दर्शाया जावे, तो जनता का आकर्षण बढ़ेगा।
प्र्बाल कल्याण का अनूठा दृश्य-
बच्चे हमारे देश और समाज की आधारशिला हैं, उन्हें सम्बोधित करना साधुओं का भी परम कर्तव्य होता है। पूज्य ज्ञानमती माताजी तो इस दिशा में पूर्णरूप से अग्रसर रहती हैं। तभी तो उन्होंने जहाँ अष्टसहस्री जैसे क्लिष्टतम ग्रंथ का हिन्दी में अनुवाद किया, वहीं बालोपयोगी ‘‘बाल विकास’’ नाम से ४ लघु पुस्तवंâे भी लिखी हैं जो विभिन्न परीक्षा बोर्डों में पढ़ाई जा रही हैं।
बरेली में मंगल पदार्पण करने के बाद वहाँ के एडवोकेट सत्येन्द्र कुमार जैन ने एक स्कूल में पूज्य माताजी का आशीर्वाद प्रवचन कराने की चर्चा की थी पुन: २२ मार्च १९९३ को ‘‘बरेली फ्लोर मिल’’ से ‘‘फरीदपुर’’ के रास्ते में वह स्कूल आया। स्कूल का नाम था-‘‘मानस स्थली पब्लिक स्कूल’’। यहाँ पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार सारा स्टॉफ संघ के स्वागत को आतुर था। स्कूल के ‘‘लेक्चर हॉल’’ में हम लोगों के प्रवचन हुए पुन: माताजी ने अपने मंगल उद्बोधन में अहिंसा और सदाचार के विषय में बच्चों को बताया और वहाँ के शिक्षक-शिक्षिकाओं को आशीर्वाद प्रदान किया।
प्र्जिनकी दृष्टिमात्र से खीर अक्षय हो गई-
बात है २४ मार्च १९९३ की, जब हम लोग प्रातः ‘‘टिसुवा’’ से ‘‘फतेहगंज’’ आए थे। संघ संचालक छोटी शाह जी ने उस दिन अपने अतिथियों के लिए खीर बनाई थी। संयोगवश वहाँ टिवैâतनगर और तहसील फतेहपुर के कई लोग पहुँच गए थे अत: छोटी शाह को चिन्ता हो गई कि कहीं खीर कम ना पड़ जाए। दूध और मिलने की कोई उम्मीद नहीं थी और वे सबको पेट भर खीर खिलाना चाहते थे।
पूज्य माताजी भोजनशाला के पास वाले कमरे में ही भगवान का अभिषेक देखने जा रही थीं कि वहीं छोटीशाह से बोल पड़ीं-मेहमानों के लिए क्या बनाया है? उन्होंने कहा-‘‘माताजी! खीर बनाई है। यह देखिये! बन गई है, आप आशीर्वाद दीजिए कि कम ना पड़े क्योंकि लोग ज्यादा हो गए हैं।’’ पूज्य माताजी ने अनायास ही उस पर दृष्टि डाली और बोलीं-चिन्ता मत करो, कोई कमी नहीं होगी।’’
संघपति छोटीशाह आज भी उस प्रसंग को याद करते ही रोमांचित और गद्गद हो जाते हैं तथा अनेक लोगों के समक्ष भी कहने लगते हैं कि उस दिन मेरी वह थोड़ी सी खीर अक्षय हो गई। सैकड़ों लोगों के खाने के बाद भी मैंने वह खीर गाँव वालों को खिलाई, फिर भी शाम तक बची रही पुन: दूसरे दिन सवेरे कुछ लोगों को बाँटकर बर्तन खाली किया।
यह सब दीर्घकालीन तपस्या एवं त्याग का ही प्रभाव है जो पंचमकाल में भी दृष्टिगोचर हो रहा है। गुरु की कृपा प्रसाद से सन् १९९३ एवं १९९४ छोटीशाह के लिए आर्थिक दृष्टि से भी अति उत्तम रहे।
प्र्जैनियों को भी जैनत्व सिखलाने की आवश्यकता-
कहते हैं कि सोते को जगाने की कला तो संसार जानता है किन्तु जागते मानवों के ज्ञानचक्षु खोलकर जगाना केवल सद्गुरु ही जानते हैं। बरेली और सीतापुर के बीच में ‘‘शाहजहाँपुर’’ एक विख्यात शहर है। वहाँ जैन मंदिर है और लगभग २५-३० घर भी जैनियों के हैं किन्तु पहुँचने पर ज्ञात हुआ कि मंदिर में कभी पूजन प्रक्षाल भी ठीक से नहीं होती है।
पूज्य माताजी ने मंदिर की वेदी में जो कमी थी, उसे अपने हाथों से दूर किया तथा सबको जैन धर्म के प्रति जागरूक किया। वहाँ संघ २७-२८ मार्च दो दिन रुका। मंदिर के पास ही भगवानदास जैन के मकान में ही हम लोग ठहरे थे। गुरुचरणों का एवं उपदेश का वहाँ जो प्रभाव पड़ा, उसे आज तक भी वहाँ के लोग आकर बताते हैं और ज्ञानमती माताजी के कार्यक्रमों का पता लगते ही वे लोग सदैव वहाँ पहुँचने की कोशिश करते हैं।
प्र्खतरा डरकर भाग गया-
शाहजहाँपुर से लगभग ३० किमी. दूर नहर कालोनी की एक कोठी पर हम लोगों का रात्रि विश्राम था। यहाँ रात्रि में कुछ पुलिसवालों ने आकर संघ के लोगों में दहशत पैदा कर दी कि यहाँ तो रोज दुर्घटनाएं होती हैं। यह डवैâत-बदमाशों का अड्डा है, आप लोगों को यहाँ नहीं ठहरना चाहिए क्योंकि हम लोग सुरक्षा नहीं कर सकते हैं।
संघपति थोड़ा डर गए और बोले-अब तो रात हो गई है, हमारे साधु रात्रि में विहार नहीं करते हैं अत: हम लोग यहीं ठहरेंगे, आपसे जो सहायता बने कर देना अन्यथा हम लोग भाग्य भरोसे हैं। उन्होंने माताजी को यह बात बताई एवं बोले कि पुलिस वाले कह गए हैं कि रात्रि में कोई कमरे से बाहर मत निकलना।
माताजी ने मुस्कराकर कहा-‘‘छोटी शाह! सबसे कह दो कोई चिन्ता न करें। जितनी बार जिसको बाहर निकलना है निकले, किसी को कोई खतरा नहीं रहेगा। मैं सबकी पहरेदारी करने के लिए बैठी हूूँ।’’ सभी लोग हँस पड़े किन्तु चूँकि कई गृहस्थ महिलाएं भी साथ में थीं, सबके पास १०-५ तोले सोने के जेवर भी थे अतः सबके मन के अन्दर डर घुसा था। प्रतिदिन की भाँति सबने मंगल प्रभात में आँखें खोलीं और कोई खतरे की स्थिति सामने नहीं आई। ‘‘साधु की तपस्या के समक्ष ऐसे अनेक खतरे भी स्वयं डरकर भाग जाते हैंं’’ यह मैंने इस प्रवास में अनुभव किया।
प्र्सीतापुर से शुरू हुई अयोध्या की विकास यात्रा-
सीतापुर अवधप्रान्त का प्रवेश द्वार माना जाता है। वहाँ ४ अप्रैल १९९३ चैत्र शु. १२ को पूज्य गणिनी माताजी के संघ का मंगल पदार्पण हुआ। दूसरे दिन उनके सानिध्य में महावीर जयंती पर्व मनाया गया पुन: ८ अप्रैल-वैशाख कृष्णा दूज को आर्यिकाश्री का ३७ वाँ आर्यिका दीक्षा जयंती समारोह खूब धूम-धाम से आयोजित किया गया। अवधप्रान्त के समस्त ग्राम, नगर, शहरों की भारी भीड़ सीतापुर में अपनी विभूति के प्रथम दर्शन करने आई।
यहाँ के कर्मठ कार्यकर्ताओं ने सुन्दर व्यवस्था बनाई। सहगल धर्मशाला के पास विशाल पांडाल में समारोह सम्पन्न हुआ। सभा के बीच में ही अयोध्या के उद्धार और विकास का माहौल बना। पूज्य माताजी ने अयोध्या में भूत, वर्तमान एवं भविष्यत्काल संबंधी त्रिकाल चौबीसी तीर्थंकरों की ७२ प्रतिमाओं का एक नया मंदिर बनाने की प्रेरणा दी, तत्क्षण ही १५ मिनिट में समस्त प्रतिमाओं के दातार भी घोषित हो गए। इस प्रकार शुभलक्षणपूर्वक अयोध्या के विकास की कहानी का शुभारंभ हुआ।
सीतापुर निवासी एक वृद्ध महानुभाव विष्णुकुमार जैन (मुन्ने बाबू) ने उस दिन माताजी के समक्ष संकल्प किया कि यदि आप अयोध्या तीर्थ पर चातुर्मास करेंगी, तो मैं अपना पूरा समय वहीं निकालूँगा। उन्होंने सपत्नीक अपने वचन का निर्वाह किया और माताजी के प्रवास में अपना पूरा समय अयोध्या के लिए प्रदान किया।
प्र्पीहर में बेटी की तेज आवाज सुनकर दिल्ली वाले बोल उठे-
दीक्षा जयंती की प्रवचन सभा में पूज्य माताजी एवं मेरा ओजस्वी प्रवचन सुनकर दिल्ली से आई जिनेन्द्र प्रसाद ठेकेदार की धर्मपत्नी सौ. विमला देवी बोल उठीं-
‘‘माताजी! जैसे पीहर में पहुँचकर बेटी की आवाज तेज हो जाती है, वैसे ही आज मुझे लगता है कि आप लोगों में भी अपने पीहर अवध में आने से काफी ओजस्विता और अपनत्व जागृत हो गया है। तभी तो आपने अधिकारपूर्ण भाषा में अयोध्या की बात कही और यहाँ की जनता ने भी कितने अपनत्व भाव से उसे स्वीकार कर यह उत्साह प्रदर्शित किया है।’’ उनका कहना था कि ‘‘आपकी ऐसी जोशीली वाणी मैंने पहले कभी नहीं सुनी थी तो यह जन्मक्षेत्र के परमाणुओं का ही प्रभाव है।’’
प्र्दान देय मन हरष विशेषै-
सीतापुर के ही एक श्रावक हैं श्री शीतल प्रसाद जी। उनके लड़के वीरेन्द्र कुमार जी के यहाँ मेरा आहार हुआ था। वे अत्यन्त धार्मिक प्रवृत्ति के श्रावक हैं सदा दानादि करते रहते हैं। उस दिन मेरे आहार के बाद वह अनायास बोल पड़े-माताजी! मैं संघ में एक माइक सेट दान में देना चाहता हूँ। खैर, साधुओं को संघ संबंधी व्यवस्था से क्या लेना-देना? मैं आहार के बाद वापस मंदिर जी आ गई और वह महानुभाव संघ में आकर बहनों को एक माइक सेट दे गए पुन: अगले दिन वे मेरे पास आकर कहने लगे कि माताजी! मेरा तो उसी दिन १ घण्टे में दुकान पर २५-३० हजार रुपये का फायदा हो गया। वास्तव में यह सब गुरुभक्ति एवं दान की महिमा है, तभी तो दान के विषय में कहा है कि-
‘‘दान देय मन हरष विशेषै, इह भव जस परभव सुख देखे’’।
प्र्अवध का पहला केशलोंच बिसवां में-
कई दिन से महमूदाबाद के लोग संघ के आगमन आदि का माहौल बनाते हुए अपेक्षा कर रहे थे कि पूज्य माताजी का केशलोंच समारोह हम महमूदाबाद में मनाएँ। कार्यक्रम लगभग निर्णय की कोटि में ही पहुँच गया था किन्तु दिनाँक ११ अप्रैल को माताजी ने अपनी डायरी देखी तो बोल पड़ीं कि अभी महमूदाबाद पहुँचने में लगभग ८ दिन लग जाएंगे और मेरा केशलोंच का समय आ गया है अतः कल बिसवां में मैं केशलोंच करूंगी।
यह अनहोना समाचार सुनते ही बिसवां वालों की मानों लाटरी खुल गई। उन लोगों ने आनन-फानन में एक रात के अन्दर सारी तैयारी कर ली। वहाँ शिवाले के प्रांगण में पांडाल बना और जैन-अजैन तमाम जनता ने जैन साध्वी के केशलोंच का यह प्रथम दृश्य अपने नगर में देखा। इस अवसर पर अहिंसा-शाकाहार संगोष्ठी भी की गई, जिसमें स्थानीय ५-६ वक्ताओं ने अच्छे वक्तव्य प्रस्तुत किये। केशलोंच की बोलियों के माध्यम से स्थानीय जैन समाज को लगभग ३५-४० हजार रुपये की आय हुई। सामान्य जनता एवं प्रबुद्ध वर्ग ने संप्रदाय का भेद मिटाकर माताजी की मंगलवाणी का पूरा लाभ उठाया तथा मांसाहार, शराब, जुंआ आदि व्यसनों का सैकड़ों लोगों ने त्याग किया। वहाँ पधारे महमूदाबाद के भूतपूर्व विधायक (भाजपा) ने भी उस दिन प्रवचन से प्रभावित होकर मांसाहार का त्याग कर दिया।
प्र्सिधौली में मंदिर संबंधी विवाद दूर हुआ-
१५ अप्रैल १९९३ को संघ का प्रवेश सिधौली में हुआ। सारा नगर तोरण द्वारों से सुसज्जित था, सर्वोदय स्कूल के बच्चों ने जुलूस में शामिल होकर मंगल आरती उतारी। यहाँ भी ‘‘कनोड़िया भवन’’ के प्रांगण में ‘‘अहिंसा सम्मेलन’’ में पूज्य माताजी एवं हम लोगों के प्रवचन हुए। कार्यक्रम में परगनाधिकारी तथा डी.वाई.एस.पी. आए और उन लोगों ने माँसाहार का पूर्णरूपेण त्याग किया।
सिधौली में एक जैन मंदिर है, वहाँ सन् १९८९ में मैंने ब्रह्मचारिणी अवस्था में इन्द्रध्वज विधान करवाया था, उस समय से मंदिर में दो नई वेदियाँ बनाने की योजना चल रही थी किन्तु उसके विस्तारीकरण में आपसी विवाद हो गया था अत: वह कार्य अधूरा पड़ा था। पुनः वह विषय पूज्य माताजी के समक्ष आया, तब उन्होंने आपस में विचार-विमर्श करके शास्त्रीय आधार से उनका समाधान दिया, जिससे वहाँ के सारे विवाद समाप्त हो गए और मंदिर को बढ़ाने हेतु शिलान्यास माताजी के सानिध्य में हुआ, अब उसका निर्माण पूर्ण हो चुका है। वहाँ की समाज के विशेष आग्रह पर ब्र. कर्मयोगी रवीन्द्रकुमार जी ने जयपुर से उनकी प्रस्तावित मूर्तियाँ भी शीघ्र बनवाकर समाज को दे दीं। उनकी अब पंचकल्याणक भी हो चुकी है।
प्र्महमूदाबाद में ननिहाल तरीके का स्वागत-
जन्म के रिश्ते से महमूदाबाद पूज्य माताजी एवं हमारा ननिहाल है। हमारी माँ मोहिनीजी के पिता श्री सुखपालदास जैन यहाँ के जाने माने पंडित कहे जाते थे। संजोग भी वैâसा बना कि नाना-मामा अपनी भानजी के दर्शन को भी तरस गए क्योंकि ज्ञानमती माताजी सन् १९५२ के बाद कभी यहाँ आई ही नहीं थीं। अब जब सौभाग्य से उनका आगमन अवध में हुआ, तब वे सभी संसार से चले गए हैं। हम लोगों के महमूदाबाद पहुँचने से पूर्व २१ फरवरी १९९३ को एक मामा, जिनका नाम ‘‘भगवानदास’’ था, वे भी माताजी के आगमन की खुशियों को हृदय में रखकर ही स्वर्ग चले गये।
खैर! इन संबंधियों से अब माताजी को क्या लेना देना? यदि इनके प्रति इन्हें जरा भी स्नेह होता, तो क्या ४० वर्षों में कभी अपने जन्म क्षेत्र में जाने का विचार न बनातीं? यह तो धरती का सौभाग्य ही कहना होगा कि अयोध्या के भगवान् ऋषभदेव के दर्शन के निमित्त से पूज्य माताजी अवध में पधारीं और छोटे-छोटे नगरों को भी उनके पदार्पण का लाभ प्राप्त हुआ।
इसी शृंखला में महमूदाबाद का भी नम्बर आया था। २० अप्रैल १९९३ को नगर की हर गली अपनी बेटी की इन्तजारी में ढेरों पुष्प बरसाने को आतुर थी। ज्यों ही संघ का पदार्पण नगर में हुआ कि एक किमी. दूर से ही श्रद्धालुभक्त बैन्ड बाजे, संगीत मंडली आदि के साथ पूज्य श्री का स्वागत करने पहुँच गए। किसी विवाह में भी शायद ऐसी खुशियाँ नहीं मनाई गई होंगी, जो २० अप्रैल को सब ने सामूहिक रूप से मनाई थी। इतनी पुष्पवृष्टि महमूदाबाद में हुई कि पूरा बाजार गुलाब के फूलों से पट गया था।
नगर के राजा साहब भी स्वागत करने आए। यहाँ लगभग ८ दिन वास्तव्य रहा, इसी मध्य चारित्र निर्माण संगोष्ठी हुई। अक्षय तृतीया पर्व मनाया गया तथा माताजी के सार्वजनिक प्रवचनों से पूरे नगर की जनता ने लाभ प्राप्त किया।
यहाँ आयोजित अहिंसा संगोष्ठी में डा. शेखर जैन, अहमदाबाद एवं प्राचार्य श्री नरेन्द्रप्रकाश जैन, फिरोजाबाद के प्रवचनों से जनता लाभान्वित हुई एवं दोनों विद्वानों का स्वागत हुआ।
प्र्आहारचर्या का विहंगम दृश्य-
इन नगरों में १५-२० चौके लगाकर जब लोग अपने-अपने घरों के आगे द्वारापेक्षण करने खड़े होते थे तो सचमुच चतुर्थकाल जैसा दृश्य उपस्थित होता था। हर श्रावक ज्ञानमती माताजी को तरह-तरह की विधि बनाकर पड़गाता और याचक दृष्टि से उनकी ओर देखकर मानों आँखों से कहता था कि ‘‘हे माताजी! बस मेरे घर में आ जाओ।’’ किन्तु साधु को आहार के समय न सेठ चाहिए न साहूकार, उन्हें न सोने की मुहरें चाहिए न अनेक फलों का ढेर। बस, जिसके यहाँ माताजी की विधि मिल गई, वही अपना भाग्य सराहने लगा। आहारचर्या के समय सैकड़ों व्यक्ति आगे-पीछे भागते थे क्योंकि पूरा नगर इस कौतुक को देखने के लिए उमड़ पड़ता था। आहार के इन प्रसंगों पर मर्यादा पुरुषोत्तम राम की आहारचर्या का वर्णन अवश्य याद आता था।
प्र्छोटे-छोटे गाँवों में भी बड़ा स्वागत हुआ-
पैतेपुर और बेलहरा इन छोटे गाँव वालों ने भी संघ का जी भर कर स्वागत किया। १ किमी. दूर से ही शाही जुलूस, पूज्य माताजी के ऊपर चंदोवा, नगर भर में तोरणद्वार आदि सजाए गए थे। सार्वजनिक सभाओं में मंगल प्रवचन, संघपति महोदय का भावभीना स्वागत इन सब कार्यों ने छोटे नगरों का नाम भी इतिहास में जोड़ दिया।
प्र्प्रथम मस्तकाभिषेक इतिहास का श्रीगणेश फतेहपुर से-
तहसील फतेहपुर की जैन समाज के अध्यक्ष सरोज कुमार जैन हस्तिनापुर से लेकर पूरे रास्ते बराबर आते रहे और छोटी शाह से मार्ग संंबंधी व्यवस्था की जानकारी प्राप्त करते रहे। इनके साथ में वहाँ के अनेक महानुभाव अहिच्छत्र से ही अपने नगर पदार्पण की बात करने लगे थे। काफी इंतजार के बाद २९ अप्रैल को पूज्य माताजी का संघ सहित मंगल पदार्पण फतेहपुर में हुआ। ३ किमी. दूर से ही विशाल जुलूस के मध्य पुष्पवृष्टि का आकर्षक दृश्य था। स्वागत बैनर, अनगिनत तोरण, जगह-जगह दूध से चरण प्रक्षालन, मंगल आरती तथा जन-जन की आँखों में स्नेह अश्रु अपनी विभूति के प्रति असीम वात्सल्य के प्रतीक थे।
यहाँ के एक श्रावक निर्मल कुमार जैन काफी दिनों से जीवन-मरण के झूले में झूल रहे थे, सो उन्हें पूज्य माताजी का अपमृत्युघातक विशेष आशीर्वाद प्राप्त हुआ।
२ मई १९९३ को फतेहपुर में श्रावक सम्मेलन एवं अयोध्या तीर्थक्षेत्र कमेटी की बैठक का कार्यक्रम पूर्वसुनियोजित था। सरोजकुमार जी एवं उनके सहयोगियों ने रात भर जागरण करके पांडाल एवं मंच को सुन्दर ढंग से सुसज्जित किया और आगत अतिथियों का जी भरकर स्वागत किया।
अयोध्या की बैठक श्री सुमेरचन्द पाटनी की अध्यक्षता में हुई। उसी में पूज्य माताजी ने सबके समक्ष अयोध्या में भगवान ऋषभदेव के महामस्तकाभिषेक महोत्सव की योजना बताते हुए एक महोत्सव समिति की घोषणा की। उन्होंने अपने श्रीमुख से ही महोत्सव समिति के अध्यक्ष के रूप में निर्मल कुमार जैन सेठी एवं महामंत्री के पद हेतु कर्मयोगी ब्र.रवीन्द्र कुमार जी का नाम घोषित किया, जिसको सभी ने प्रसन्नतापूर्वक गुरु आज्ञा रूप में स्वीकार किया। इसी प्रकार समिति के कोषाध्यक्ष छोटीशाह चुने गए एवं कलश आवंटन के अध्यक्ष सुमेरचन्द पाटनी बनाए गए और महोत्सव के प्रचार का कार्य यहीं से प्रारंभ हुआ।
फतेहपुर में मात्र ४ दिन आर्यिका संघ का प्रवास रहा किन्तु उसी मध्य अनेक निर्माणात्मक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक कार्यक्रमों से जैन-अजैन सभी ने अपूर्व लाभ प्राप्त किया। पूज्य माताजी का ‘‘गणिनी पद प्रतिष्ठापना समारोह’’ भी २ मई को यहीं मनाया गया जिसमें शोभायात्रा निकाली गई तथा माताजी के करकमलों में एक बृहद् अभिनन्दन पत्र समर्पित किया गया, संघपति छोटीशाह को भी सम्मान पत्र से सम्मानित किया गया।
प्र्अतिशय क्षेत्र त्रिलोकपुर के दर्शन-
बाईसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ के अतिशयों से पवित्र नगरी त्रिलोकपुर में ४ मई १९९३ को आर्यिका संघ का शुभागमन हुआ। यहाँ के कर्मठ कार्यकर्ता पदमचन्द जैन पूज्य माताजी के अनन्य भक्त हैं। त्रिलोकपुर कार्यक्रम बनवाने में इन्होंने अत्यन्त परिश्रम किया, तब वहाँ दो दिन संघ का सानिध्य प्राप्त हो सका। भरपूर स्वागत एवं आतिथ्य सत्कार का प्रमुख श्रेय पदमचन्द जी को प्राप्त हुआ तथा सारी समाज ने गुरुवाणी, आहारदान, वैयावृत्ति का पुण्य संचित किया। पूज्य माताजी ने इस अतिशय क्षेत्र के विकास में भी पूरी रुचि ली जिसके फलस्वरूप वे वहाँ दुबारा नवम्बर १९९४ में गईं और कल्पद्रुम मंडल विधान, भगवान नेमिनाथ का मस्तकाभिषेक आदि कार्यक्रम उनके संघ सानिध्य मेंं सम्पन्न हुए।
प्र्पारिजात कल्पवृक्ष की स्थापना-
भगवान नेमिनाथ के चरण सानिध्य में पहुँचने से पूर्व पूज्य माताजी ने त्रिलोकपुर को एक नई भेंट प्रदान करने का शुभ भाव बनाया था। उन्होंने बताया कि भगवान नेमिनाथ के समवसरण में चार सिद्धार्थ वृक्ष होते हैं जिसमें चारों दिशाओं में चार सिद्ध प्रतिमाएँ रहती हैं। उनके नाम हैं-नमेरु, मंदार, सन्तानक और पारिजात। इनमें से एक ‘‘पारिजात कल्पवृक्ष’’ की स्थापना त्रिलोकपुर में करने का संकल्प ज्यों ही उन्होंने त्रिलोकपुर में विधान के मध्य प्रगट किया, तत्क्षण दानदातार तैयार हो गये। अब वह कल्पवृक्ष भी तैयार हो चुका है और चार सिद्ध प्रतिमाओं से समन्वित सिद्धार्थ वृक्ष त्रिलोकपुर में भक्तों के लिए आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है।
यह एक सुखद संयोग की बात है कि त्रिलोकपुर के पास ‘‘बरोलिया’’ नामक एक गांव में पारिजात नाम का वनस्पतिकायिक वृक्ष भी है जिसके बारे में किंवदन्ती चली आ रही है कि पांडव उसे स्वर्ग से लेकर आए थे। उसे देखने के लिए भी दूर-दूर से लोग जाते हैं क्योंकि एशिया में केवल एक स्थान ‘‘बरोलिया’’ में ही यह वृक्ष पाया गया है।
प्र्जन्मभूमि का रोमाँचक मिलन-
माता कौशल्या की भाँति विरह की अग्नि में जल रही टिवैâतनगर जन्मभूमि को आज अपने पूनों के चाँद का दर्शन होने वाला है। इस खुशी में ९ मई १९९३ को नगर का कण-कण झूम रहा था। हर घर के द्वार पर मंगल चौक पूरे गए थे। संघपति छोटीशाह तो आज फूले नहीं समा रहे थे क्योंकि उनका परिश्रम आज फलीभूत होकर सामने आया था।
टिवैâतनगर में नगर सीमा के प्रतीक मुख्य चार फाटक बने हैं, वे चारों दिशाओं में पुरानी किलाबन्दी के सूचक हैं। उन चारों फाटकों तक विशाल जुलूस के साथ माताजी एवं संघ को घुमाया गया। जब से अवध में संघ का भ्रमण प्रारंभ हुआ था, प्रत्येक गाँव के लोग स्वागत करने के बाद यही कहते थे कि हम तो कुछ भी नहीं कर सकते हैं, टिवैâतनगर का प्रवेश देखने लायक रहेगा। सुन-सुनकर हम भी सोचते थे कि ये जाने क्यों ऐसा सोच रहे हैं? किन्तु जब जन्मभूमि की माटी का स्पर्श हुआ तो देखा, इससे भी कई गुना अधिक नगरी की सजावट, बैनर, तोरणद्वार तो स्वागत का दृश्य उपस्थित कर ही रहे थे, उसके साथ ही ‘‘अमर उद्योग’’ से प्रारंभ हुए जुलूस में ४० मोटर साइकिलों पर केशरिया झण्डा लिए हुए नौजवान, ४० महिलाएँ मंगल कलश लिए हुए आगे चल रही थीं। धरती की भीड़ के साथ-साथ मकानों की छतें भी नर-नारियों से भरी हुई थीं क्योंकि सभी अपनी विश्वविख्यात विभूति को देखने के लिए बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। हर्ष के अश्रु नगरवासियों की आँखों में समा नहीं रहे थे अतः छलककर बाहर आने को आतुर थे।
बाजार के एक विशाल पांडाल में मंगल प्रवेश की प्रवचन सभा हुई। उत्तरप्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री श्री कल्याणसिंह ने पधारकर पूज्य माताजी के चरणों में विनयांजलि अर्पित की तथा अपार भीड़ को सम्बोधित किया। राम के अयोध्या आगमन के समान ही इस दृश्य ने हर किसी को भाव विह्वल कर दिया था।
प्र्नहीं लेखनी लिख सकती है मातृभूमि के आँसू को-
वह एक अजीब गर्मागरम माहौल था, जब टिवैâतनगर में २६ मई १९९३ को यह निर्णय होने वाला था कि पूज्य माताजी के संघ का प्रथम चातुर्मास अवध के किस नगर में होगा? टिवैâतनगर की जनता अन्य स्थानों से निवेदन करने आने वालों को देख-देखकर बेचैन थी, उन्हें डर था कि कहीं कोई हमारी माताजी को अब हमसे छीन न ले। अनेक गीत, भजनों के माध्यम से सबने अनशन धरने की भक्ति भरी धमकियाँ भी दे डाली थीं। २६ ता.को भाग्य परीक्षण का सभी को बेसब्री से इंतजार था। कोई उस दिन मंदिर में नियम लेकर बैठ गए थे कि जब तक यहाँ के चातुर्मास का निर्णय नहीं सुन लेंगे, तब तक अन्न जल नहीं ग्रहण करेंगे, कितनों ने मनौतियाँ मान रखी थीं, कितने बाल-युवा दिलों ने माताजी के भवन के बाहर वोट क्लब का दृश्य उपस्थित कर तरह-तरह के पोस्टर, पेम्पलेट, नारे आदि अपनी माँग पूरी करने में लगाए थे।
मुझे स्वयं समझ नहीं आता है कि उन नाजुक क्षणों को मैं अपनी लेखनी से किस प्रकार लिखूँ? जब आत्मदाह तक की बात कानों में आ चुकी थी। टिवैâतनगर का चौक बाजार उस भीषण गर्मी में भी जनसमूह से खचाखच भरा था। नर-नारियों, बालक-बालिकाओं, युवकों सबके जोशीले चेहरे देखकर हम सब भी असमंजस में पड़े थे। उस स्थिति का कुछ अंश वीडियो वैâसेट से अथवा प्रत्यक्षदर्शियों से ही ज्ञात हो सकता है। मेरे कानों में तो आज भी वहाँ के १-२ भजनों की पंक्तियाँ टकराती रहती हैं। जैसे-
‘‘मेरी नगरी में चौमास, होगा ही होगा’’…….।
‘‘श्री गणिनी ज्ञानमती माताजी को, मैं तो आज मनाय लूँगी।’’
कितने लोगों की तो आँखें रोते-रोते सूज गई थीं। कमरे के बाहर धरना दिये हुए युवकों को जब ब्र. रवीन्द्र जी ने कुछ समझाने की कोशिश की, तो लोगों ने उन्हें गोद में उठाकर एक कमरे में बंद कर दिया। ऐसी विचित्र स्थिति पूज्य माताजी ने भी इससे पूर्व कभी नहीं देखी थी। खैर! काफी जोशीले वातावरण में टिवैâतनगर चातुर्मास की ९९ प्रतिशत स्वीकृति की घोषणा पूज्य गणिनी आर्यिका श्री के मुखारविन्द से हो गई और नगर में चारों ओर दीवाली जैसी खुशियाँ मनाई जाने लगीं। फतेहपुर, बाराबंकी आदि स्थानों के महानुभावों को उस दिन अपने नगरों में चातुर्मास की स्वीकृति न मिलने के कारण जो दुःख हुआ, उसे भी मेरी लेखनी लिखने में असमर्थ है।
प्र्अयोध्या विहार की भूमिका-
चातुर्मास की स्वीकृति पाकर नगरी आश्वस्त थी। अभी आषाढ़ सुदी चतुर्दशी आने में लगभग ४० दिन शेष थे। २९ मई से ४ जून तक लघु पंचकल्याणक का आयोजन हुआ। इसी के बीच एक दिन ३ जून को लखनऊ से सुमेरचन्द पाटनी पूज्य माताजी के दर्शनार्थ आए। वे चूँकि उन दिनों अयोध्या तीर्थक्षेत्र कमेटी के अध्यक्ष थे अत: अपने अनुभव के आधार पर अयोध्या की दुर्दशा का बखान करते हुए कहने लगे-माताजी! मेरा निवेदन है कि आप ब्र. रवीन्द्र जी को कुछ वर्षों के लिए अयोध्या का अध्यक्ष बना दें और वहाँ का विकास, जीर्णोद्धार करवा दें, यह आपका परम उपकार होगा। पूज्य माताजी ने उन्हें सांत्वना प्रदान की तथा अयोध्या की विकासशील गतिविधियों पर चर्चा की।
आपसी विचार के बाद ब्र. रवीन्द्रजी ने प्रस्ताव रखा कि माताजी! अयोध्या में जिस तीन चौबीसी मंदिर का निर्माण होगा, उसका शिलान्यास यदि आपके सानिध्य में उचित स्थान देखकर हो जावे तो उत्तम रहेगा। आखिरकार चातुर्मास से पूर्व अयोध्या का विहार निर्णीत हो गया और ८ जून को टिवैâतनगर से तीर्थ अयोध्या की ओर संघ का विहार हो गया, १६ जून को माताजी अपने ध्यान का केन्द्र आदिप्रभु के चरणों में पहुँच गईं।
प्र्आँसू भी तीर्थ के लिए उपहार बन गए-
आप सोच रहे होंगे कि भला आँसू उपहार वैâसे बन सकते हैं? रोना तो प्राय: अशुभ माना जाता है परन्तु आपके और ज्ञानमती माताजी के आँसुओं में भी अन्तर है, आप तो सांसारिक भोगोपभोग वस्तुओं के लिए आँसू बहाते हैं जबकि ज्ञानमती माताजी के आँसू तीर्थ की दुर्दशा देखकर अनायास ही आँखों से निकल पड़े, उनको इस बात का बेहद दु:ख हुआ कि हमारे प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की जन्मभूमि की यह स्थिति है?
इसे अद्भुत संयोग कहें या चमत्कार? वहाँ की स्थिति को देखते ही पूज्य माताजी ने एक प्रतिशत छूट का लाभ उठाते हुए वर्ष १९९३ का चातुर्मास अयोध्या में ही करने का पक्का निर्णय ले लिया। इस चातुर्मास काल में सम्पूर्ण अवध ने भरपूर लाभ लिया। भादों में दशलक्षण पर्व में एक साथ ७ इन्द्रध्वज विधानों का अभूतपूर्व कार्यक्रम सम्पन्न हुआ पुन: शरदपूर्णिमा ३० अक्टूबर १९९३ को पूज्य माताजी की ६०वीं जन्मजयंती मनाई गई।
प्र्अयोध्या में हुए साक्षात् चमत्कार-
(१) भूत भी भाग गए-इस प्रकार चातुर्मास में कार्यक्रमों की शृंखला भी चलती रही और इधर मंदिर, कमरे, टोंकों के जीर्णोद्धार आदि का निर्माण कार्य जोरों पर चला। फरवरी १९९४ में होने वाले महामस्तकाभिषेक महोत्सव की तैयारियाँ भी व्यापक स्तर पर हुईं। इन सब कार्यकलापों को देखकर अयोध्यावासी आश्चर्यचकित थे कि यह कौन सी दिव्य शक्ति अयोध्या में आ गई है जिसके प्रभाव से यहाँ असीम शान्ति का वातावरण बना है और अहिंसा का सूत्रपात पुनः अयोध्या में हुआ है।
अनेक मठों के महन्त यह कहते कि इस रायगंज मंदिर में भूतों का निवास था, माताजी ने आकर उन भूतों को शांत कर दिया है इसीलिए यह परिसर अब स्वर्ग सा बन गया है।
(२) बिच्छुओं का आतंक टला-जब जून १९९३ में पूज्य माताजी के संघ का अयोध्या में पदार्पण हुआ, तब रायगंज मंदिर परिसर में बिच्छुओं का भयंकर आतंक था। एक दो लोगों को बिच्छू ने काटा भी और कई यात्रियों की चप्पलों में, जूतों में घुसे दिखे। केचुओं की भांति जमीन पर घूमते सैकड़ों बिच्छू देखकर हम लोगों को भी डर लगता था। एक दिन माताजी ने मंत्रित सरसों सब दिशाओं में क्षेपण कर दी, फिर कभी बिच्छू के दर्शन नहीं हुए। वे सब कहाँ अन्तधर््यान हो गए, भगवान जाने!
(३) सर्प बालिका के पेट पर चढ़ गया-दशलक्षण पर्व के बाद एक दिन (२ अक्टूबर को) सुभाषचन्द जैन टिवैâतनगर की पुत्री कु. सुवर्णा रात्रि में माताजी के कमरे में सो रही थी । लगभग १ बजे रात में उसके पेट पर एक लम्बा सर्प चढ़ गया, उसने हाथ से छुआ और घबराकर उठ बैठी, हम लोगों को जगाया। पहले हमने सोचा कि कोई जन्तु होगा क्योंकि वहाँ कोई सर्प दिख नहीं रहा था। पुन: उसके कहने पर ठीक से देखा गया तो एक चटाई के पीछे लम्बा सा काला सर्प दिखा, उसे पकड़कर नौकर ने बाहर किया। गुरु की कृपा से एक बच्ची का बड़ा भारी संकट टला और वह गुरु तपस्या का अतिशय देखकर खूब प्रभावित हुई।
(४) आकस्मिक पंखे का उपद्रव भी टल गया-संघस्थ ब्रह्मचारिणी कु. बीना जैन एक दिन (१५ अक्टूबर १९९३ को) अयोध्या में त्यागीभवन के ही एक कमरे में सो रही थी, साथ में उसकी मम्मी कुमुदनी भी थीं। कमरे में बीचोंबीच में ठीक पंखे के नीचे दोनों सोई थीं, अकस्मात् बीना हवा कम करने के लिए स्विच बोर्ड के पास रेगूलेटर घुमाने पहुँची ही थी कि छत से पंखा कुंडे सहित जमीन पर धम से गिरा। काफी पुराना बहुत वजनदार पंखा था।माँ-बेटी घबड़ा गईं, किसी को कोई हानि नहीं पहुँची किन्तु सुबह कुमुदनी कहने लगीं कि माताजी! यदि बीना उस समय उठ न गई होती, तो उसी के ऊपर पंखा गिरता और न जाने क्या होता? मैंने कहा कि जहाँ पूज्य माताजी जैसी तपस्वी साधु की छत्र-छाया है, वहाँ कोई अनिष्ट की आशंका मत करो। यह तो निश्चित है कि उस दिन बीना का कोई तीव्र पुण्य सामने आ गया, जिसने उसे भयंकर दुर्घटना से बचा दिया। अन्यथा २ बजे रात को वह उठकर स्विचबोर्ड तक जाती ही क्यों? पंखे से दो-तीन फुट की दूरी पर तो बोर्ड, वहाँ तक लड़की का जाना और पंखे का गिरना सब कुछ १०-२० सेकेन्डोें में हो गया। पूज्य माताजी ने कहा कि आज तुम्हारा पुनर्जन्म हुआ है अतः भगवान ऋषभदेव के मंदिर में शांतिविधान कर लो। इस आकस्मिक संकट के टलने के बाद पुन: बीना ने अपने कमरे में छत का पंखा ही नहीं लगने दिया।
(५) संघपति बनने से व्यापार में आश्चर्यजनक लाभ हुआ-गुरुभक्ति में कितनी शक्ति है, इसका अंदाजा शायद ही कोई लगा सके। श्री गौतम स्वामी ने आचार्यभक्ति में गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए कहा है-‘‘गुरुभक्ति संजमेण या तरंति संसार सायरं घोरं, छिण्णन्ति अट्ठकम्मं जम्मं मरणं ण पावेन्ति’’ अर्थात् गुरुभक्ति से भक्त इस संसाररूपी घोर व विशाल सागर को पार तो कर ही लेते हैं, अष्टकर्मों का नाश कर जन्म-मरण से भी मुक्त हो जाते हैं, फिर गुरु की भक्ति करने से अगर कोई लाभ हो जाये तो कोई बड़ी बात नहीं। २८ जून की बात है, संघपति श्री छोटीशाह जी आहार के बाद माताजी के पास बैठकर कहने लगे कि माताजी! इस बार हमने आपके संघ को लाने में खर्च किया तो हमारे व्यापार में बहुत लाभ हुआ। यह सब आपके ही आशीर्वाद का फल है। वास्तव में गुरुभक्ति में इतनी शक्ति है जो तत्काल फलित होती है।
(६) आग का खतरा भी टल गया-एक दिन की बात है। हम लोग अयोध्या में बैठे पं. ज्ञानचन्द्र जी शर्मा से कुछ बातचीत कर रहे थे। लगभग ३ बजा था। अचानक जोर-जोर से आग-आग की आवाज सुनाई देने लगी। माताजी ने ब्र. बहनों को पता लगवाने भेजा तो पता लगा कि भोजनशाला के गैस सिलेण्डर में आग लग गई है। आग काफी भयंकर थी, इसलिए सब लोग बहुत अधिक घबरा रहे थे। पास ही में और दो सिलेण्डर, स्टोव, मिट्टी का तेल, कोयला, आदि सामान रखा था तथा वहीं रस्सी पर ढेर सारे कपड़े सूख रहे थे। घबराए हुए सब लोग दौड़ते हुए माताजी के पास आए और कहने लगे-माताजी! रक्षा करो, आज पता नहीं क्या होने वाला है! माताजी बोलीं-देखो! तुम लोग कोई चिन्ता मत करो, भगवान की कृपा से कुछ भी अनिष्ट नहीं होगा। इसके बाद उन्होंने सबको णमोकार मंत्र का पाठ करने व कुछ लोगों से शान्तिभक्ति का पाठ करने को कहा और स्वयं ध्यान में बैठ गईं। सचमुच चमत्कार हो गया! भगवान आदिनाथ व पूज्य माताजी की कृपाप्रसाद से किसी प्रकार का कोई भी खतरा नहीं हुआ। लगभग दो घण्टे तक आग जलती रही और अतिशय देखिए कि कोई अहित नहींr हुआ। काफी देर बाद जब दमकल आया तो उन लोगों ने सिलेण्डर को उठाकर पानी की टंकी में डाल दिया और पूर्णरूपेण शान्ति हो गयी।
(७) वास्तव में धर्म बहुत महिमाशाली है-३१ अगस्त १९९३ की बात है। टिवैâतनगर व दरियाबाद के कई लोग दर्शन करके अयोध्या से वापस अपने घर मेटाडोर से जा रहे थे। वे लोग अयोध्या से रौनाही तक पहुँचे ही थे कि अचानक एक नील गाय पता नहीं कहाँ से आकर गाड़ी से टकरा गई। एक्सीडेंट इतना तेज था आैर गाड़ी की जो कंडीशन हुई थी, उसे देखकर लगता था कि शायद ही गाड़ी में कोई बचा हो, लेकिन किसी का कुछ भी अहित नहीं हुआ, सभी बाल-बाल बच गये थे। धर्म की ऐसी महिमा देख वह सभी लोग तुरंत वापस लौट आए और आकर माताजी से कहने लगे-माताजी! आज हम सभी को नई जिदंगी मिली है, यह सब धर्म का अतिशय और आपका आशीर्वाद है।
(८) मूठ विद्या भी निरर्थक हो गई-अयोध्या में हम नित्य की भांति अपने-अपने स्वाध्याय में लीन थे, तभी बछरांवा के एक सज्जन, जिनका नाम कमलेश कुमार जैन था, मेरे पास आए और बोले कि १५ दिन पहले कोई मूठ विद्या मेरे सामने आयी, जिसका रंग कत्थई था। वह मूठ विद्या मेरे सीने पर ४ अंगुल पहले तक आकर चली गई। उस दिन तो मेरे प्राण इसलिए बच गये कि मेरे गले में माताजी का दिया हुआ यंत्र था एवं मैंने तुरंत माताजी का स्मरण किया था। जब मैंने दूसरे लोगों को बताया तथा एक ज्योतिषी से पूछा तो उन ज्योतिषी महोदय का कहना था कि पूज्य माताजी के यंत्र ने ही तुम्हारी रक्षा की है। वे सज्जन पूज्य माताजी का गुणानुवाद करते नहीं थक रहे थे क्योंकि उन्हें नवजीवन प्राप्त हुआ था।
(९) चोरी हुई मूर्तियाँ वापस मिल गईं-बेलहरा के मंदिर की प्रतिमाएँ चोरी चली गई थीं, इसलिए वहाँ के लोग काफी परेशान हो पूज्य माताजी के पास आकर मंत्र ले कर गए थे। रक्षाबंधन पर्व के एक दिन पहले वहाँ सरोज जैन, के.के. जैन, चुन्नू आदि बेलहरा के कई लोकर आकर कहने लगे कि माताजी! आपने जो मंत्र दिया था, वह करते ही दूसरे दिन प्रतिमाएँ स्वयमेव मिल गईं। वे लोग अपने साथ उन प्रतिमाओं को लेकर आए थे। बोले-आज ये प्रतिमाएँ हमें पुलिस के पास से प्राप्त हुई हैं, तो हम लोग यहाँ आए हैं। बेलहरा में ८-१० बार प्रतिमाओं की चोरी हुई है किन्तु प्रथम अवसर है जब हमें प्रतिमाएँ वापस मिली हैं। यह सब मंत्र जाप्य का ही चमत्कार है।
(१०) गाड़ी गड्ढे में गिर गई, फिर भी किसी को चोट नहीं आई-पूज्य माताजी की गृहस्थावस्था की बहन श्रीमती त्रिशला जैन, जो कि लखनऊ में रहती हैं, पूज्य माताजी के जन्मदिवस पर उनके दर्शनार्थ पधारी थीं। कार्यक्रम सम्पन्न होने के पश्चात् जब वे वापस लखनऊ जा रही थीं तो रास्ते में ‘‘उधौली’’ नामक गांव में उनकी गाड़ी एक गड्ढे में गिर गई किन्तु भगवान का अतिशय एवं चमत्कार! न तो गाड़ी को कुछ नुकसान हुआ और न ही किसी को जरा सी भी चोट आई। यह सब भगवान ऋषभदेव का ही चमत्कार था अन्यथा गाड़ी गड्ढे में गिर जाए और किसी को चोट क्या खरोंच भी न आवे, यह आश्चर्य की ही बात है।
(११) जबरदस्त एक्सीडेण्ट में भी सभी लोग सुरक्षित थे-इसी प्रकार का एक चमत्कार हुआ सनावद के महानुभाव श्री विमलचंद जैन के साथ। वह भी अयोध्या पूज्य माताजी के दर्शनार्थ पधारे थे, वापसी में लखनऊ के पास उनकी मेटाडोर का एक्सीडेंट हो गया। एक्सीडेंट इतना जबरदस्त था कि पूरी गाड़ी ही उलट गई लेकिन न ही ड्राइवर को कुछ हुआ और न ही गाड़ी के अंदर बैठे किसी भी व्यक्ति को कुछ हुआ।
(१२) पैरों का दर्द गायब हो गया-दीपावली पर्व का पावन दिन था। अनेक श्रद्धालु भक्त पूज्य माताजी के दर्शनार्थ अनेक स्थानों से पधारे थे। चूँकि चातुर्मास का निष्ठापन हुआ था और आज का दिन नववर्ष का प्रारंभ दिन भी था अत: आज अवध की जनता पूज्य माताजी के दर्शन के लिए मानो उमड़ पड़ी थी। टिवैâतनगर से (जन्मभूमि से) एक चिरपरिचित सज्जन आते ही कहने लग गये कि कई दिन से मेरे घुटने में इतना दर्द था कि उठना-बैठना भी मुश्किल था और यहाँ पैर रखते ही दर्द गायब हो गया, यह एक अतिशय ही है। मैं सोचने लगी कि जहाँ तीर्थंकर महापुरुष की छत्र-छाया है तथा पूज्य माताजी जैसी तपस्विनी की तपस्या के परमाणु चारों ओर पैâल रहे हों, वहाँ ऐसा चमत्कार होना कोई अतिशयोक्ति की बात नहीं है।
(१३) यंत्र-मंत्र के प्रभाव से पारस्परिक कलुषता दूर हो गई– २३ जनवरी १९९४ की बात है। अवध प्रांत के एक सज्जन चौका लगाने हेतु अयोध्या आये थे। काफी श्रद्धालु महानुभाव हैं, सदैव गुरुभक्ति में तत्पर रहते हैं। उन्हीं के यहाँ मेरा और क्षुल्लक मोतीसागर जी का आहार हुआ। मध्यान्ह में वह आकर पूज्य माताजी का गुणानुवाद करते हुए मुझसे कहने लगे कि माताजी! मैंने पूज्य माताजी के यंत्र-मंत्रों का साक्षात् चमत्कार देख लिया है। अभी नवम्बर की बात है, मेरा मकान बन रहा था और उसमें पड़ोसी ने थोड़ी सी जगह के लिए काफी तूफान मचा रखा था जिससे मेरा मकान बनने में काफी अड़चन आ रही थी। मैं माताजी से कीलों में मंत्र पढ़वाकर ले गया था, मैंने एक दिन वे कीलें गाड़ दीं और सुबह ही ऐसा अतिशय हुआ कि मेरे पड़ोसी महोदय स्वयं ही कहने लगे कि भैय्या! मुझे कई लोगों ने भड़का रखा था इसलिए मैं लड़ाई करता था, आप तो मेरे पड़ोसी हैं और सुख-दुख में हम दोनों ही एक-दूसरे के काम आएंगे। यह सब पूज्य माताजी के यंत्र-मंत्र का ही चमत्कार है कि जो जगह भी मिल गई और आपस में वर्षों से चली आ रही कलुषता भी दूर हो गई। माताजी वास्तव में कोई देवी का रूप ही हैं!
(१४) पिच्छी लगते ही कार्य की सिद्धि हो गई-यूँ तो बहुत लोग पूज्य माताजी के पास आते हैं और आशीर्वाद प्राप्त करके वापस चले जाते हैं। व्िाâन्हीं-किन्हीं को पिच्छी लगवाने की भी बहुत अधिक ललक होती है और पूर्ण श्रद्धा-भक्ति के साथ लगवाई गई वह पिच्छी ‘जो सैकड़ों मंत्रों से मंत्रित होती है’ भक्तों के मनोरथों को पलक झपकते ही पूर्ण कर देती है। सीतापुर की एक महिला हैं-श्रीमती किरन जैन। एक दिन वह आकर मुझसे कहने लगीं-माताजी! मैं अभी १५-२० दिन पूर्व अपनी लड़की को यहाँ लेकर आयी थी, वह बहुत परेशान थी। बात यह थी कि कुछ दिन से उसका पढ़ाई में दिमाग बिल्कुल नहीं लग रहा था, उसके ट्यूशन वाले टीचर ने पढ़ाने से इंकार कर दिया था। यहाँ से जाते ही ज्ञात हुआ कि टीचर ने ट्यूशन पढ़ाने की हाँ कर दी है। वह बार-बार कह रही थीं कि यह माताजी की पिच्छी का ही चमत्कार है, जिस समय यहाँ माताजी उस लड़की को पिच्छी लगा रही थीं, उसी समय सीतापुर में उसके पापा (नरेन्द्र जी) उस टीचर से पढ़ाई के विषय में बात कर रहे थे, वही पुण्य परमाणु कार्यसिद्धि में कारण बन गए।
(१५) भगवान के माता-पिता बनने के पहले चमत्कार हो गया-अयोध्या में पंचकल्याणक की तैयारियाँ जोर-शोर से चल रही थीं, पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में भगवान के माता-पिता हेतु नाम का चयन करना था। बाराबंकी के एक श्रेष्ठी महानुभाव श्री चंदनलाल जी आकर पूज्य माताजी से भगवान के माता-पिता बनने हेतु अनुनय-विनय करने लगे। अंततोगत्वा उन्हें सफलता मिल ही गई। २५ फरवरी की बात है, चंदनलाल जी आकर अपनी कथा सुनाते हुए कहने लगे-माताजी! जिस दिन मुझे भगवान के माता-पिता बनने की स्वीकृति प्राप्त हुई, उसी दिन मुझे एक नहीं, दो-दो फायदे हुए, एक तो घर जाते ही मुझे ज्ञात हुआ कि मेरे ऊपर जो लाखों रुपये का मुकदमा चल रहा था, वह अपने आप समाप्त हो गया है और दूसरा मैंने उस दिन कई लाख रुपये का कपड़ा एक दिन में बेचा। यह सब पूज्य माताजी की ही कृपाप्रसाद है कि उस दिन मुझे भगवान के माता-पिता बनने का वचन मिला, जिसके फलस्वरूप ये अनहोने चमत्कार हुए।
प्र्मणि-कांचन का अद्भुत संयोग-
भगवान ऋषभदेव ने अयोध्या में कोड़ाकोड़ी वर्ष पूर्व जन्म लिया था किन्तु काल के थपेड़ों ने उनकी स्मृतियों को धूमिल कर दिया था। हाँ! उनके वंशज मर्यादा पुरुषोत्तम राम को अयोध्यावासी जरूर याद करते हैं क्योंकि उनका कथानक अभी मात्र ९ लाख वर्ष पुराना है।
इसी प्राचीन इतिहास की स्मृति दिलाने हेतु सन् १९५१-५२ में एक बार आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अवध प्रान्त में पधारे और उनकी पावन प्रेरणा से अयोध्या के प्राचीन कटरा मंदिर में भगवान ऋषभदेव-भरत-बाहुबली की तीन प्रतिमाएँ विराजमान हुईं। उसी समय एक विशाल प्रतिमा भगवान ऋषभदेव की उन्होंने यहाँ और विराजमान करने की प्रेरणा दी। उस प्रतिमा का निर्माण सन् १९६५ में पूर्ण हुआ, तब पुन: आचार्यश्री के सानिध्य में रायगंज के प्रांगण में इस ३१ फुट ऊँची प्रतिमा की स्थापना पंचकल्याणक प्रतिष्ठापूर्वक हुई। इतना सब कुछ होने के बाद भी दुर्भाग्यवश अयोध्या तीर्थ का यथोचित विकास न हो सका। यह कौन जानता था कि इसका उद्धार करने एक दिन स्वयं अवध क्षेत्र की ब्राह्मी माता ज्ञानमती जी पधारेंगी! सन् १९९२ में २३ अक्टूबर धनतेरस का दिन सचमुच ऐतिहासिक पृष्ठ बन कर आया था, ज्ञानमती माताजी को अयोध्या के विकास की स्मृति दिलाने। तभी तो मानो प्रभु की प्रेरणा पाकर वे सबके मना करने के बावजूद भी हस्तिनापुर से अपने पिता ऋषभदेव के दर्शनार्थ चल पड़ीं। ४ माह, ५ दिन की पदयात्रा के बाद उनका संघ सहित पदार्पण अयोध्या की धरती पर हुआ, फिर तो वसुन्धरा के भाग्य ही पलट गए। जिस भूमि ने सदियों से किसी संत का चातुर्मास अपनी आँखों से नहीं देखा था, उसने अपनी पुत्री ज्ञानमती जी का जबर्दस्ती यहाँ चातुर्मास कराकर दिखा दिया कि अब मैं अबला नहीं सबला बन गई हूँ। यह मणिकांचन का संयोग एक अनहोना संयोग ही है, जिसे विधाता ने करोड़ों वर्ष पूर्व लिखा होगा।
प्र्बसन्तोत्सव अपनी चरम सीमा पर था-
भगवान ऋषभदेव महामस्तकाभिषेक हेतु २४ फरवरी १९९४ का शुभ मुहूर्त पूज्य माताजी ने अनेक मुहूर्तज्ञों से सलाह करके निश्चित किया और उसी निर्णीत तिथि के अनुसार एक नवीन गठित ‘‘मस्तकाभिषेक महोत्सव समिति’’ अपने कार्य में संलग्न हो गई।
दिन बीते, माह बीते और देखते ही देखते अयोध्या में २४ फरवरी को बसन्तोत्सव का रंग छा गया। प्रात:काल से ही केशरिया वस्त्रों में लिपटा विशाल जनसमूह अपने पूर्वनिर्धारित कलशों को पाने हेतु आतुर हो रहा था।
कलशव्यवस्था के आयोजकों ने सुचारू व्यवस्था बनाने के लिए मंदिर के बाहर काफी दूर से बेरीकेटिंग बनाई थी ताकि क्रम-क्रम से ही लोग सीढ़ियों से चढ़कर मचान तक पहुँचें और अपने कलशों को प्रभु के मस्तक पर ढुरा सकें।
भगवान ऋषभदेव का मस्तकाभिषेक देखने हेतु पूज्य माताजी के आदेशानुसार मंदिर के बाहर लघुद्वार भी तोड़कर काफी बड़ा कर दिया गया था, जिससे प्रत्येक दर्शनार्थी ने बिना किसी व्यवधान के पूरा अभिषेक देखा। मंदिर के बाहर दोनों ओर से मजबूत सीढ़ियों का निर्माण किया गया था, जिस पर एक ओर से जाने तथा दूसरी ओर से वापस आने की व्यवस्था थी। केशरिया झण्डों से सजी सीढ़ियों पर जगह जगह स्वयंसेवव्ाâ नियुक्त किए गए, जो कलशपास लिये हुए नरनारियों को ही ऊपर चढ़ने दे रहे थे।
मंदिर के ठीक सामने बाहर चबूतरे पर १००८ कलश स्वस्तिक के आकार में सजाए गए थे। आम के पत्ते, फूल की माला एवं नारियल से सजे हुए वे कलश बसन्ती बहार बिखेरते हुए जनमानस को अपनी ओर आकृष्ट कर रहे थे। सर्वप्रथम उन समस्त कलशों की पूजन की गई पुन: प्रेरणास्रोत पूज्य माताजी एवं यहाँ पधारे मुनि संघ के मंगल सानिध्य में महामस्तकाभिषेक प्रारंभ हुआ।मस्तकाभिषेक से पूर्व स्वर्णकलश की बोली लेने वाले श्री महावीर प्रसाद जैन, बंगाली स्वीट सेंटर-दिल्ली का महोत्सव समिति की ओर से भगवान ऋषभदेव का प्रतीक भेंट कर सम्मान किया गया तथा तीर्थंकर कलश करने का सौभाग्य प्राप्त करने वाले महानुभावों का भी भगवान ऋषभदेव का प्रतीक भेंट कर स्वागत किया गया।
प्र्महावीर प्रसाद जैन, दिल्ली ने प्रथम अभिषेक स्वर्णकलश से किया-
जिस मस्तकाभिषेक की प्रतीक्षा वर्ष भर से की जा रही थी, उसका प्रथम सौभाग्य प्राप्त किया दिल्ली निवासी श्री महावीर प्रसाद जैन बंगाली स्वीट सेंटर ने। २४ फरवरी को मध्यान्ह ११ बजकर ५ मिनट पर जब वे असली सोने का सुसज्जित कलश लेकर अपनी धर्मपत्नी एवं परिवार सहित सीढ़ियों पर चढ़ने से पूर्व अनेक श्रद्धालुओं को कलश का स्पर्श कराने लगे, तब भगवान ऋषभदेव की जय-जयकार से आकाश गुंजायमान हो उठा। ठीक ११ बजकर १५ मिनट पर भगवान के मस्तक पर प्रथम कलश की धारा होते ही जहाँ भक्तगण भावविभोर हो उठे, वहीं गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के हर्षाश्रु भी भक्तों की निगाहों से छिप न सके।
जो कुछ भी वहाँ उस क्षण हो रहा था, वह सब स्वाभाविक भी था। हर श्रद्धालु सोच सकता है कि जिस प्रबल भावना को संजोकर मातुश्री अथक परिश्रमपूर्वक अयोध्या में आई थीं, आज उसे सफलीभूत देखकर उनके वे नेत्र भला अपनी आनन्दभेंट प्रभु चरणों में क्यों न चढ़ाते!
श्री वादिराज मुनिराज की ये पंक्तियाँ यहाँ सार्थक सिद्ध हो रही थीं-
‘‘आनन्दाश्रुस्नपितवदनं गद्गदंचाभिजल्पन्……….’’
पूरे परिवार ने उस सोने के कलश से क्रम-क्रम से अभिषेक किया पुन: हर्षोल्लासपूर्वक भेंट में प्राप्त उस पवित्र कलश को मस्तक पर लगाया।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि मस्तकाभिषेक महोत्सव समिति की ओर से समस्त कलश करने वालों को पूर्व योजनानुसार स्वर्ण, रजत एवं सामान्य कलश भेंट स्वरूप प्रदान किए गए।
इसी शृंखला में प्रथम स्वर्णकलश से अभिषेक करके महावीर प्रसाद जैन ने खुशी से नाचते हुए हजारों रुपयों की एवं रजत पुष्पों की रत्नवृष्टि प्रभु ऋषभदेव एवं ज्ञानमती माताजी के ऊपर कर डाली, जिससे उन्होंने निश्चित ही सातिशय पुण्य बंध कर लिया।
प्र्तीर्थंकर के मस्तक पर तीर्थंकर कलशों से महाभिषेक-
जब रजत धातु से निर्मित तीर्थंकर नामक कलशों से तीर्थंकर प्रभु का अभिषेक हुआ, तब तीर्थंकर ऋषभदेव की जय-जयकार करते हुए भक्तगण झूम उठे। इस सौभाग्य को प्राप्त करने वालों में साहू अशोक कुमार जैन,श्री निर्मल कुमार सेठी, श्री गजराज गंगवाल, श्री श्रीपाल मोटर वाले-दिल्ली, श्री आर.के. जैन-मुम्बई, श्री पदमचंद पाटनी-दिल्ली, श्री राजकुमार जैन-प्रीतमपुरा, दिल्ली, श्री शीतल प्रसाद जैन-दिल्ली आदि प्रमुख रहे।
इसके पश्चात् गणधर कलश से दिल्ली के श्री अजितप्रसाद विनोद कुमार जैन पटाखे वालों एवं श्री देवेन्द्र कुमार जैन प्रीतविहार-दिल्ली ने अभिषेक किया पुन: चक्रवर्ती कलश प्राप्त करने का सौभाग्य मिला श्री पदमचंद अशोक कुमार-इलाहाबाद, श्री प्रेमचंद जैन-पहाड़गंज, नई दिल्ली, श्री कमलकुमार जैन, खारीबावली-दिल्ली, श्री आनंद जी दीपक जी, पूषा रोड-नई दिल्ली, श्री हेमचंद विजय कुमार जैन, सरस्वती विहार-दिल्ली, श्री देवकुमार सिंह कासलीवाल-इंदौर एवं श्री मुकेश कुमार जैन-इंदौर को।
अभिषेक की इसी शृंखला में भरतकलशों से अभिषेक के पश्चात् पंचामृत अभिषेक प्रारंभ हुआ।
प्र्पंचामृत की धाराओं ने अयोध्या को केशरिया कर दिया-
तीर्थंकर गणधर आदि ७२ कलशों के जलाभिषेक के पश्चात् जब पंचामृत की धाराएँ शुरू हुईं, तो देखने वाले भक्त नर-नारी अपने उमड़ते भावों को रोक न सके और भावभीना नृत्य करते हुए अभिषेक की पवित्र गंगा में स्नान करने लगे।
सर्वप्रथम सैकड़ों नारियल के शुद्धजल से श्री नरेशचंद अभयकुमार जैन-बाराबंकी ने पूरे परिवार के साथ अभिषेक किया। इक्षुरस के दीर्घकाय ५ घड़ों से अभिषेक करने का सौभाग्य प्राप्त किया। श्री पुखराज जी पाण्ड्या एवं अनूप बाई पाण्ड्या-गोरखपुर ने।
सौ किलो सन्तरे के रस से श्री मोतीचंद कासलीवाल जौहरी-दिल्ली ने भगवान ऋषभदेव का अभिषेक किया। १ क्विटल अंगूर के रस से मस्तकाभिषेक करने का सौभाग्य प्राप्त किया श्री सुमेरचंद पाटनी-लखनऊ ने।
शक्कर से निर्मित शुद्ध ५ किलो बूरे से श्री मुकेश कुमार जवाहरलाल जैन-सूरत वालों ने अभिषेक किया, इसी प्रकार १० किलो चावल के आटे (कल्कचूर्ण) को कोमलचंद जैन-महमूदाबाद वालों ने जब भगवान के मस्तक पर डाला, तो पूरा मंदिर सफेद बादलों से आच्छन्न जैसा हो गया और उस कल्क चूर्ण में मिश्रित कर्पूर ने सारे वातावरण को अपनी सुगंध से महका दिया पुन: १०० किलो अनार के रस से श्री मानमल झांझरी-झुमरीतलैया के सुपुत्र ने अभिषेक किया और शुद्ध घृत से अभिषेक करने की बोली प्राप्त करने का सौभाग्य श्री राजकुमार जैन-प्रतापगढ़ (उ.प्र.) वालों को मिला।
इन अष्टधाराओं के पश्चात् ५०० लीटर दूध से बड़े-बड़े घड़ों के द्वारा भगवान ऋषभदेव का अभिषेक जब श्री उम्मेदमल पाण्ड्या-दिल्ली ने किया, तब तो अयोध्या की धरा पर रामराज की तरह मानों फिर से दूध की नदी ही प्रवाहित हो गई प्रतीत हो रही थी। सफेद दूध के मध्य केशरिया दूध की पड़ती हुई धारा प्रतिमा के श्वेत वर्ण को अत्यधिक मुखरित कर रही थी।
भगवान के दुग्ध स्नान के साथ-साथ सैकड़ों भक्तों ने अपनी सुध-बुध खोकर नीचे स्वयं उस दुग्धाभिषेक के गंधोदक सरोवर में स्नान कर अपनी काया को परम पावन बनाया।
दूध के बाद क्रम आया दधिस्नपन का। इसका सौभाग्य श्री मनोज कुमार जैन (मेरठ निवासी) को मिला। ५० लीटर दही की मोटी धारा बर्फ के टुकड़ों के समान प्रतीत हो रही थी पुन: मनोज कुमार की मातेश्वरी श्रीमती आदर्श जैन एवं ध.प. सौ. नविता जैन आदि समस्त परिवार ने मिलकर ५० किलो सर्वौषधि चूर्ण से मिश्रित अनेक घड़ों जल से सर्वौषधि अभिषेक किया। इस सर्वौषधि में हल्दी,केशर, चंदन, कपूर, इलाइची, लवंग, जावित्री, जायफल आदि अनेक सुगंधित पदार्थ मिले हुए थे, जिससे मंदिर तो सुवासित हुआ ही, भक्तगणों ने भी अपने वस्त्रों को, शरीर को सुगंधित किया तथा सदा आरोग्यता प्राप्त करने की भावना से शीशी, पात्र एवं मलमल के छन्नों में भरकर अपने घर भी ले गए।
प्र्सरयू का जल भी आतुर हो उठा अपने प्रभु के अभिषेक को-
महापुराण में वर्णन आता है कि भगवान् ऋषभदेव के राज्याभिषेक के समय अयोध्या के नर-नारी मिट्टी के घड़ों में, कमलपत्र के दोनों में सरयू नदी का जल भरकर लाए थे और उससे भगवान के चरणों का अभिषेक किया था।
कोड़ाकोड़ी वर्षों से अयोध्या में सतत बह रही सरयू नदी आज पुन: अपने लाल के अभिषेक को आतुर हो उठी थी अत: पूज्य ज्ञानमती माताजी की प्रेरणानुसार आज सरयू नदी का जल मंगल कलशों में भर कर लाया गया और उससे अभिषेक करने का अहोभाग्य मिला श्री जिनेन्द्र प्रसाद जैन-ठेकेदार एवं उनकी ध.प. श्रीमती विमला देवी को।
प्र्असली केसर से होली-
२४ फरवरी को प्रात:काल से ही जहाँ अपार जनता भगवान का मस्तकाभिषेक करने और देखने के लिए उमड़ रही थी, वहीं व्यवस्थापक बंधु मस्तकाभिषेक की सामग्री तैयार करने में व्यस्त थे। बाराबंकी निवासी श्री सुशील कुमार जैन एवं उनके सहयोगियों ने जयपुर से पधारे स्वयंसेवकों की सहायता से सभी प्रकार के रस, दूध आदि वस्तुएँ समय पर प्रदान कर मस्तकाभिषेक कार्यक्रम सफल बनाया।
सुबह से घिसी जा रही ढेर सारी केशर गाढ़े सुर्ख रंग में जब मंच पर आई, तब सभी भक्तों का मन ललचा उठा और सबके मुंह से अनायास गीत के स्वर फूट पड़े ‘‘केशरिया केशरिया, आज प्रभु का रंग केशरिया’’। इस स्वर लहरी के मध्य ५०० ग्राम केशर, जिसे घिसने पर पूरा घड़ा भर गया था, उस काश्मीरी केशर से अभिषेक किया मांगीलाल बाबूलाल पहाड़े-हैदराबाद ने। तब तो भगवान ऋषभदेव अपने असली रंग में आ गए थे। जैसा कि चैत्यभक्ति में उनके शरीर का वर्ण तपाये स्वर्ण के समान माना गया है। उगते हुए सूर्य की प्रभा के समान उस समय का वर्ण वास्तव में इतना मनमोहक था, जिसे लेखनी से पन्नों पर उतारा नहीं जा सकता है।
केशर अभिषेक के बाद गुलाब, गेंदा, चमेली आदि अनेक रंगों के पुष्पों को नई टोकरी में भरकर भगवान के मस्तक पर पुष्पवृष्टि की अतरसेन सत्येन्द्र कुमार जैन-जगाधरी वालों ने।
इधर तो अंदर काफी देर तक भक्तगण भगवान के ऊपर पुष्पवृष्टि करते रहे और उधर बाहर अयोध्या के राजा पप्पू भैय्या ने विशेष वायुयान के द्वारा मंदिर के ऊपर खूब पुष्पवृष्टि कर पुण्यार्जन किया। इसी क्रम में डॉ.विनय कुमार जैन-बाराबंकी ने सपरिवार मंगल आरती करने का सौभाग्य प्राप्त किया एवं सुगंधित जल की धारा टिवैâतनगर निवासी प्रद्युम्न कुमार जैन (छोटी शाह) एवं वैâलाशचंद जैन सर्राफ (लखनऊ) ने की।
प्रात: ११ बजे से प्रारंभ हुई महामस्तकाभिषेक शृंखला ने विराम लिया सायं ५ बजे, तब पूर्णकुंभ से महाशांतिधारा श्री विजय कुमार जैन दरियागंज-दिल्ली वालों ने सपरिवार किया। परमपूज्य गणिनी आर्यिका शिरोमणि के शुद्धोच्चारणपूर्वक हुई इस शान्तिधारा में विश्वशांति एवं जनकल्याण की भावना प्रचारित हुई।
मस्तकाभिषेक के इस कार्यक्रम में रवीन्द्र जैन-मुम्बई ने अपने सुन्दर गीत प्रस्तुत किए, जिनके बोल निम्न प्रकार थे-
१. आओ आओ रे मेरे संग आओ रे,
गुण ऋषभदेव के गाओ रे।
२. आदिनाथ भगवान का मस्तकाभिषेक।
इस प्रकार केशरिया होली खेलते हुए देश भर के श्रद्धालु भक्त जय आदीश्वर जय वृषभेश्वर के नारे लगाते रहे एवं अयोध्या की वसुंधरा पर प्रथम बार आयोजित यह महामस्तकाभिषेक आशातीत सफलताओं के साथ निर्विघ्न सम्पन्न हुआ।
मस्तकाभिषेक के इस पावन अवसर पर २४ फरवरी को ही संयोगवश अयोध्या में परमपूज्य आचार्य श्री १०८ सुमतिसागर महाराज का ससंघ मंगल पदार्पण हुआ और आचार्य महाराज ने ससंघ पधारकर अभिषेक समारोह देखा तथा भक्तों को आशीर्वाद प्रदान किया।
उत्तरप्रदेश दूरदर्शन से कार्यक्रम का प्रसारण करने हेतु लखनऊ से श्रीमती सुधा जिंदल टी.वी. वैâमरा टीम लेकर पधारीं तथा पैâजाबाद आकाशवाणी से रेडियो प्रसारण हेतु डॉ. दिलीप जैन रेकार्डिंग कराने के लिए वहाँ के महानुभाव को साथ लाए। आकाशवाणी पैâजाबाद से १९, २०, २३ और २४ फरवरी के पूरे कार्यक्रम रिले हुए तथा लखनऊ से दिनाँक २५ फरवरी को शाम ५.५० बजे से ६.२० बजे तक (आधा घंटा) २४ फरवरी का महामस्तकाभिषेक कार्यक्रम एवं २० फरवरी, २३ फरवरी की सभाओं का प्रसारण भी हुआ।
मस्तकाभिषेक समारोह में कलश व्यवस्थापक श्री सरोज कुमार जैन-फतेहपुर, संयुक्त महामंत्री महोत्सव समिति ने सुचारू ढंग से कलशों का आवंटन राशिक्रम के अनुसार किया तथा श्री प्रकाशचंद जैन सर्राफ, विमलचंद जैन-सनावद एवं राकेश जैन-मवाना (मेरठ) ने अभिषेक स्थल पर व्यवस्था बनाने में सक्रिय सहयोग प्रदान किया अत: निर्विघ्नरूप से सभी भक्तगणों ने मस्तकाभिषेक करने का आनंद प्राप्त किया।
श्री ऋषभदेव मस्तकाभिषेक, जो अयोध्या का प्रमुख और प्रथम कार्यक्रम था, उसके बारे में आँखों देखा संक्षिप्त चित्रण यहाँ मैंने प्रस्तुत किया है। इसके अतिरिक्त मस्तकाभिषेक से पूर्व (१९ फरवरी से २३ फरवरी १९९४ तक) अयोध्या की वसुन्धरा पर ‘‘जिनबिंब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव’’ भी संपन्न हुआ, जिसमें अनेक राजनेताओं ने पधारकर पूज्य माताजी से आशीर्वाद प्राप्त किया। २० फरवरी को उ.प्र. के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह जी ने अयोध्या क्षेत्र के विकास हेतु कुछ घोषणाएँ भी कीं, जो इस प्रकार हैं-
१. अयोध्या में ‘भगवान ऋषभदेव नेत्र चिकित्सालय’’ खोला जाएगा।
२. राजघाट राजकीय उद्यान का नाम ‘‘ऋषभदेव उद्यान’’ कर दिया जायेगा।
३. पैâजाबाद के अवध विश्वविद्यालय में ‘‘ऋषभदेव जैन चेयर’’ की स्थापना हेतु २५ लाख रुपयों का सरकार की ओर से अनुदान घोषित किया।
४. अयोध्या में ‘‘अवध प्रेस क्लब’’ की स्थापना और भवन निर्माण हेतु १० लाख रुपये का अनुदान घोषित किया।
इन घोषणाओं के पश्चात् मुख्यमंत्री जी ने कहा कि मैं अयोध्या के लिए एक बहुत बड़ी योजना जनता के कल्याण की दृष्टि से बना रहा हूँ। समय आने पर उसे भी शीघ्र ही घोषित करके क्रियान्वित करने की तीव्र भावना है।
श्री मुलायम सिंह जी के भाषणोपरांत पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने आशीर्वादात्मक प्रवचन में जनमानस को सम्बोधित करते हुए कहा-भगवान् ऋषभदेव ने इसी अयोध्या की भूमि पर प्रजा को जीवन जीने की कला सिखाइ थी। असि, मसि, कृषि आदि षट् क्रियाओं के द्वारा कर्म करना बताया था। इसीलिए हमारी इस धरती को कर्मभूमि कहा जाता है। महापुरुषों के सिद्धान्त हर प्राणी के लिए होते हैं, किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं। उन्होंने कहा कि जिस प्रकार पेड़ खूंखार शेर और दयामयी गाय दोनों को समान रूप से छाया प्रदान करता है, उसी प्रकार सनातन जैनधर्म भी सभी को आश्रय देकर पतित को भी पावन बनाता है। यह प्रसन्नता की बात है कि मुलायम सिंह जी जन्म से ही शाकाहारी हैं, अब ये अपने अहिंसक कार्यकलापों से संसार में भी अहिंसा धर्म का खूब प्रचार करें, यही मेरा उनके लिए मंगल आशीर्वाद है।
प्र्श्रीचन्द्र जैन (सनावद) ने सप्तम प्रतिमा ग्रहण की-
अयोध्या में भगवान के दीक्षा कल्याणक के मंगल अवसर पर सनावद (म.प्र.) निवासी धर्मनिष्ठ श्रावक श्रीचंद जी ने सप्तम प्रतिमा के व्रत पूज्य माताजी से ग्रहण किए। आपने सपत्नीक सन् १९८७ में क्षुल्लक मोतीसागर जी की दीक्षा के समय हस्तिनापुर-जम्बूद्वीप में आयोजित पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर माता-पिता बनकर आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया था पुन: अयोध्या के इस चातुर्मास में माताजी के संघ में ही रहकर यहाँ के कार्य में भी पूर्ण योगदान दिया। उनके सप्तम प्रतिमा लेने पर अनेक गणमान्य महानुभावों ने उनका स्वागत किया।
ज्ञातव्य है कि कुछ वर्षों बाद ये ब्र.जी आचार्य श्री रयणसागर जी महाराज से दीक्षा ग्रहण कर ‘‘मुनि अमेयसागर’’ बने पुन: इन्होंने सन् २००१ में समाधिमरणपूर्वक नश्वर शरीर का त्याग किया।
प्र्राजधानी लखनऊ में व्यापक धर्म प्रभावना-
लखनऊ की वसुन्धरा ने अपनी राजमाता के रूप में पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी का भावभीना स्वागत तो किया ही और १ मई १९९४ को उनकी दीक्षा जयंती का समारोह रवीन्द्रालय में मनाकर त्याग का आदर्श भी प्रस्तुत किया। लगातार २ माह तक लखनऊ की सभी कॉलोनियों में आर्यिका संघ के पदार्पण से महती धर्म प्रभावना हुई। इस प्रवास से जनता को ज्ञात हो सका कि आचार्य संघ एवं मुनि संघों के समान ही ‘गणिनी आर्यिका संघ’ भी त्याग और ज्ञान के माध्यम होते हैं। इससे पूर्व लखनऊ तथा पूरे अवध में आज तक कभी किसी आर्यिका संघ का पदार्पण नहीं हुआ था।
प्र्इन्दिरा नगर में श्रावक सम्मेलन (जब दान के लिए स्वर्णाभूषण भी उतरने लगे)-
लखनऊ की एक कॉलोनी इन्द्रानगर है, जहाँ विशेष शिक्षित जैन समुदाय को पाकर पूज्य माताजी ने भी अपने ज्ञान का अमृत खुले दिल से वितरित किया। ५ दिन तक वहाँ विभिन्न विषयों पर संगोष्ठी चली पुन: १९ जून १९९४ को एक श्रावक सम्मेलन हुआ, जिसमें अनेक वक्ताओं के साथ ही हम लोगों ने भी श्रावकों को सम्बोधित किया। वहाँ एक विशाल जिनमंदिर का निर्माण उन दिनाें चल रहा था। प्रवचन के मध्य कुछ महिलाएँ इतनी भावुक हो उठीं कि उन्होंने अपने स्वर्ण आभूषण भी उतार-उतारकर मंदिर निर्माण के लिए दान कर दिये। त्याग और दान का यह अनुपम उदाहरण प्रत्येक श्रावक-श्राविका के लिए अनुकरणीय है, जब देखते ही देखते वाणी के जादू से लाखों रुपये का अनुदान मंदिर के लिए एकत्रित हो गया।
प्र्वर्षों का मनमुटाव जिनकी प्रेरणा से स्नेहबंधन में बदल गया-
बाराबंकी वालों के विशेष आग्रह पर पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने यहाँ कई वर्षों से चले आ रहे आपसी मनमुटाव संंबंधी दो विवादों को बड़ी ही कुशलतापूर्वक समाप्त करवाकर आपसी सौहार्द्र की स्थापना कराई।
विवादग्रस्त दोनों पक्षों के लोगों ने माताजी से करबद्ध निवेदन किया कि यहाँ समाज के लोगों में चुनाव संबंधी बहुत बड़ा विवाद है, जिससे काफी तनाव है तथा दूसरा संघर्ष महावीर विद्यालय का है। इन दोनों विवादों के कारण समाज में आपसी मतभेद-मनभेद व कषाय का वातावरण बना हुआ है, इसे आपके आशीर्वाद से हम लोग समाप्त करना चाहते हैं। प्रशंसा की बात यह रही कि अनेक प्रबुद्ध लोगों ने यह कहा कि पूज्य माताजी! आपका जो भी आदेश होगा, हम उसे सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से भी अधिक आदरपूर्वक स्वीकार करेंगे, पुन: हुआ भी यही।
दोनों पक्षों की बात सुनने के बाद पूज्य माताजी ने जो भी निर्णय दिया, उसे सभी लोगों ने मान्य किया और आपस में एक-दूसरे के साथ गले मिलकर विवाद समाप्त कर दिया। दो वर्षों से जो चार्ज विद्यालय कमेटी को नहीं प्राप्त हुआ था, गोलक नहीं खुली थी, वह सब सम्पूर्ण चार्ज नई कमेटी को पुरानी कमेटी ने सौंप दिया।
बाराबंकी की जैन समाज आज भी पूज्य माताजी के प्रति पूर्ण कृतज्ञ है तथा यह महसूस करती है कि माताजी के संघ सहित पदार्पण से हमारी समाज की खोई एकता पुन: स्थापित हुई है। गुरुसानिध्य से प्राप्त होने वाली सुभिक्षता का यह अनुपम उदाहरण है।
प्र्स्नेह की विकट स्थिति-
बाराबंकी समाज के प्रमुख भक्तगण अब पूज्य माताजी से भारी अनुरोध करने लगे कि माताजी! अब आप यहाँ चातुर्मास करके हम लोगों की एकता का नमूना देखें तथा हमें संगठित होकर संघसेवा का अवसर प्रदान करें। इसी बीच लखनऊ चारबाग से धरणेन्द्र जैन, हंसकुमार जैन, श्रीमती त्रिशला जैन तथा समाज के अनेक प्रमुख नर-नारियों ने बाराबंकी पधारकर माताजी से लखनऊ चातुर्मास हेतु अनुरोध किया और भारी प्रभावना के साथ वहाँ चातुर्मास कराने का आश्वासन प्रदान करते हुए श्रीफल चढ़ाया। इधर टिवैâतनगर के लोग तो पूर्व से ही आशान्वित थे कि इस बार पूज्य माताजी हमारे गांव को ही चातुर्मास का लाभ देंगी अत: वे लोग भी विश्वासपूर्वक बाराबंकी में अपना नारियल चढ़ाने आए। वे सभी अपने-अपने ढंग से संघ पर प्रभाव डालने के पूर्ण प्रयासों में लग गए। अब पिछले वर्ष जैसी ही स्थिति एक बार पुन: प्रगट हो गई, लखनऊ के श्रावकगण राजधानी की गरिमा के अनुरूप व्यापक प्रभावना आदि की बातें करने लगे और उनके साथ बाराबंकी के प्रतिष्ठित श्रावकगण भी अपने शहर का मोह छोड़कर लखनऊ चातुर्मास में संभावित प्रभावना का अनुमान लगाते हुए माताजी से लखनऊ के लिए ही आग्रह करने लगे। उस दिन अत्यधिक ऊहापोह की स्थिति के कारण पूज्य माताजी ने अपना कोई निर्णय नहीं सुनाया पुन: २-४ दिन के बाद टिवैâतनगर के लोगों का आग्रह तथा पूर्ण विश्वास समन्वित श्रीफल देखकर उनका हृदय पसीज गया और उस वर्ष टिवैâतनगर चातुर्मास की उन्होंने पक्की स्वीकृति प्रदान कर दी।
वह छोटा सा गाँव अपनी कन्या का जगन्माता के रूप में प्रथम चातुर्मास कराकर धन्य तो हुआ ही, वहाँ के नर-नारियों को जो ज्ञान का लाभ इन दिनों प्राप्त हुआ, वह तो अभूतपूर्व ही था।
प्र्भवि भागनवश जोगे वशाय-
असलियत में इसे बाराबंकी नगर की जनता का भाग्य ही कहना पड़ेगा कि पूज्य गणिनी आर्यिकाश्री ने स्वयं अपने मुखारविन्द से अनेक दुर्लभ विषयों की कक्षाओं का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त कराकर उनकी परीक्षा ली एवं अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग का जीवन्त संदेश प्रदान किया।
इसी शृंखला में दशलक्षण पर्व के प्रवचन बाजार के चौराहे पर बनाए गए भव्य पांडाल में हुए, जिससे हिन्दू-मुसलमान सभी ने लाभ उठाया तथा जैन साध्वी का विशाल-व्यापक-सर्वोदय स्वरूप देखकर अपने जीवन को धन्य किया।
प्र्सन् १९९४ का चातुर्मास जन्मभूमि-टिवैâतनगर में-
यद्यपि लखनऊ प्रवास के मध्य वहाँ के नागरिेकों ने लखनऊ में चातुर्मास करने हेतु पूज्य माताजी से अनेक बार श्रीफल चढ़ाकर निवेदन किया किन्तु चूँकि सन् १९९३ में पूज्य माताजी ने टिवैâतनगर में ९९ प्रतिशत चातुर्मास की स्वीकृति देकर एक प्रतिशत की छूट में अयोध्या तीर्थ पर चातुर्मास कर लिया था, उस समय टिवैâतनगर के लोग बहुत दु:खी हो गए थे अत: सन् १९९४ का चातुर्मास पूज्य माताजी ने टिवैâतनगर में किया। चातुर्मास के मध्य अनेक प्रकार के प्रभावनात्मक कार्यक्रम सम्पन्न हुए।
प्र्संभावित कलह वास्तविक क्षमावणी बन गई-
जैसा कि बीसों वर्ष से टिवैâतनगर में क्षमावणी पर्व के दिन सामाजिक संघर्ष चुनाव आदि किसी न किसी विषय को लेकर अवश्य हुआ करता था। यह भावी आशंका पूज्य माताजी के समक्ष भी आई तो उन्होंने कहा कि क्षमावणी पर्व तो आत्मशुद्धि के लिए आता है, इस दिन सामाजिक चुनाव या आर्थिक लेखा-जोखा लेकर नहीं बैठना चाहिए किन्तु इसके लिए कोई अतिरिक्त दिवस निर्धारित करें और यह पर्व अत्यन्त सौहार्द्र पूर्वक पारस्परिक क्षमायाचना करके मनावें। पूज्य माताजी की यह भावना सफल हुई और क्षमावणी पर्व चिरकाल पश्चात् वहाँ धूमधाम से बिना विवाद के सम्पन्न हो गया।
पूज्य माताजी की यह शिक्षा अन्य समाजों को भी ग्रहण करके सामाजिक चुनाव, आर्थिक व्यवस्था आदि के कार्य पर्व के दिन न करके अन्य साधारण तारीखों में करना चाहिए ताकि हमारे पवित्र पर्व शालीनता के साथ लोग मना सकें।
प्र्आचार्य श्री वीरसागर महाराज चरण स्थापना-
आश्विन कृष्णा अमावस्या को गणिनी आर्यिकाश्री के दीक्षागुरु आचार्य श्री वीरसागर महाराज की पुण्यतिथि मनाई गई तथा उनकी प्रेरणा से मंदिर जी में सुमेरु पर्वत के समक्ष आचार्यश्री के चरण विराजमान किए गये। यहाँ लोगों ने बताया कि सन् १९५४ में आचार्यश्री वीरसागर महाराज अपने संघ के साथ टिवैâतनगर पधारे थे और उनके पावन करकमलों से भगवान नेमिनाथ की प्रतिमा वेदी में विराजमान हुई थी। सो अब ४० वर्ष बाद उनके चरणों की स्थापना से पुन: उनकी स्मृतियाँ ताजी हो गईं।
प्र्जन्मभूमि में मनाई गई षष्ठी पूर्ति-
यह एक मणि-कांचन संयोग ही माना जाएगा कि जहाँ आठ वर्ष का शैशव बीता, वहीं ज्ञानमती माताजी ने अपने जीवन के साठ वर्ष पूर्ण किए। नगरवासियों ने अत्यन्त उत्साहपूर्वक उनके ‘‘षष्ठिपूर्ति’’ समारोह को मनाया। इसके अन्तर्गत कई कार्यक्रमों के साथ-साथ देशभर से आमंत्रित ६१ श्रेष्ठियों को सम्मानित किया गया। इस अवसर पर उ.प्र. के महामहिम राज्यपाल श्री मोतीलाल जी वोरा, कारागार मंत्री-श्री अवधेश प्रसाद जी एवं पैâजाबाद के पूर्व विधायक श्री जयशंकर पांडे आदि अनेक शासन-प्रशासन के लोग पधारे। विशेष बात यह है कि कारागार मंत्री ने इस अवसर पर जेल से ६१ वैâदियों को रिहा करने की घोषणा करते हुए स्वयं भी मानव कल्याण के पथ पर चलने का संकल्प लिया था।
प्र्विदाई के रोमांचक क्षण, आँसुओं से भीगे तन-मन-
चातुर्मास समापन के क्षण ज्यों-ज्यों नजदीक आ रहे थे, नगरवासियों की विह्ललता बढ़ती जा रही थी और आखिर वह मंगलविहार के दिन अश्रु सरिता रूप में फूट पड़ी। ओह! मैंने आज तक जीवन में ऐसा करुण क्रन्दन नहीं देखा। पिछले वर्ष तो मैं सोचती थी कि इन्हें अपनी निधि के चातुर्मास का लाभ न मिलने के कारण ये इतने दुखी हो रहे थे, किन्तु अब चातुर्मास होने के बाद इतिहास पुरुष जीवन्धर के समान अपनी माता को अपने नगर से जाने ही नहीं देना चाहते थे और अपनी इच्छा सफल होती न देख रोने के सिवाय उनके पास कोई चारा भी न था। जिनमंदिर से पूज्य माताजी के संघ सहित निकलते ही प्रत्येक श्रावक अपने घर के समक्ष उनके चरण प्रक्षाल करते हुए आरती करते ही फूट-फूट कर रो पड़ते। इन भावभीने क्षणों में हमारे संघ के लोगों की भी निष्ठुरता में कमी आ गई और कई जगह उन सबकी आँखें भी सजल हो गईं। गाँव का हर वृद्ध,बालक, महिला, युवा सभी तो सिसकियाँ भर-भर कर रो रहे थे। हम तो किंकर्तव्य विमूढ़ हो सबके मोह की लीला देख रहे थे और महसूस कर रहे थे कि इनकी अन्तर्वेदना वर्षों तक कोई दूर नहीं कर पाएगा। अत्यन्त कठोर हृदय होने के बावजूद भी उस समय पूज्य माताजी उन सबके शोक की उमड़ती सरिता को देख पाने में कठिनाई महसूस कर रही थीं।
युवकों की भजन पंक्तियाँ निरन्तर ६ किमी. तक गूंजती रहीं और हजारों नर-नारियों को रुलाती रहीं-
‘‘माता तुम न जाना भूल, तुम तो चलीं दूर-दूर, हमें याद रखना’’।
इसे बाल अपनत्व कहूँ या धर्म स्नेह? आज भी जब मैं उस दृश्य का स्मरण कर लेती हूँ तो सारा शरीर रोमांचित हो जाता है पुन: एक क्षण को उस वीतराग अवस्था को प्राप्त करने के लिए मन आतुर होता है जिसमें रंचमात्र मोहकर्म सताने न पावे क्योंकि मोक्ष प्राप्ति तो उस अवस्था से ही हो सकती है।
प्राचीन कथानक के अनुसार जैसे बलराम जब कोलाहल देखकर, अपने रूप के प्रति आकर्षण देखकर, ध्यान में विघ्न उपस्थित होता देख कर, जनता के स्नेह से अपने को विमुख करने हेतु मांगीतुंगी (महाराष्ट्र में) पर्वत पर जाकर जंगल की ओर मुँह करके जनता की ओर पीठ करके ध्यान में खड़े हो गए थे। इसी प्रकार पूज्य माताजी भी अपने कर्तव्य का निर्वाह करने के पश्चात् सारे अवधवासियों के स्नेह से अपने को विमुख करने हेतु चल पड़ीं दूसरी दिशा की ओर। अब उनका लक्ष्य भगवान ऋषभदेव और तीर्थ अयोध्या पर केन्द्रित हो गया, जिससे वहाँ के अधूरे कार्य पूर्ण सम्पन्न होकर क्षेत्र की कीर्तिध्वजा दिग्दिगन्त में फहराने लगे।
प्र्अयोध्या तीर्थ पर पुन: आगमन-
टिवैâतनगर में चातुर्मास सम्पन्न करने के पश्चात् पूज्य माताजी १६ दिसम्बर १९९४ को पुन: अयोध्या पधारीं, वहाँ पहुँचने के बाद १४ फरवरी १९९५ तक समवसरण मंदिर एवं रचना का निर्माण कार्य द्रुतगति से पूर्ण हुआ पुन: १५ फरवरी १९९५ से नवनिर्मित समवसरण मंदिर की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करवाकर आर्यिकाश्री ने तीर्थ और भगवान के श्रीचरणों में अपनी एवं देशभर की ओर से द्वितीय धरोहर भेंट में चढ़ाई। प्रतिष्ठा के अंतिम दिवस अर्थात् निर्वाणकल्याणक के दिन दोनों नूतन मंदिरों (तीन चौबीसी मंदिर एवं समवसरण रचना मंदिर) के शिखरों पर कलशारोहण हुआ एवं सन् १९९४ में पूज्य माताजी की प्रेरणा से मुख्यमंत्री मुलायम सिंह द्वारा घोषित वहाँ के राजकीय उद्यान का नामकरण ‘‘भगवान ऋषभदेव उद्यान’’ किया गया एवं उस उद्यान में भगवान ऋषभदेव की आर.सी.सी. से निर्मित विशाल प्रतिमा स्थापित हुईं।
प्र्विश्वविद्यालय ने डी.लिट्. की मानद् उपाधि प्रदान कर अपने को गौरवान्वित किया-
अयोध्या प्रवास के दौरान पैâजाबाद के अवध विश्वविद्यालय के कुलपति श्री के.पी. नौटियाल जी कई बार पूज्य माताजी के दर्शन हेतु पधारे तथा जब उन्होंने यह जाना कि पूज्य माताजी इसी अवध प्रांत की अनमोल मणि हैं और इन्होंने एक छोटे कस्बे में छोटी सी लौकिक शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद भी अपने ज्ञान के आधार पर एक-दो नहीं अपितु दो सौ से अधिक ग्रंथों की रचना करके एक कीर्तिमान स्थापित कर दिया है, तब वे अपने आपको गौरवशाली समझते हुए बोले-माताजी! हम आपको विश्वविद्यालय की सबसे बड़ी मानद् उपाधि डी.लिट्. से सम्मानित करके अपने विश्वविद्यालय का गौरव बढ़ाना चाहते हैं परन्तु पूज्य माताजी ने हंसकर उनकी बातों को टाल दिया वे बोलीं-भैय्या! हमारे पास तो अपने गुरु द्वारा प्रदत्त आर्यिका और गणिनी पद ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, शेष हमें कोई पदवी नहीं चाहिए।’’
लेकिन ऐसा कहते हैं कि विचारक व्यक्ति के मन में यदि गहराई से कोई विचार समा जाता है, तो वह एक न एक दिन मूर्तरूप अवश्य लेता है। यही अवध विश्वविद्यालय के कुलपति जी के साथ भी हुआ, पूज्य माताजी की बात सुनकर उस समय तो कुलपति जी चले गए परन्तु जनवरी १९९५ के अंतिम सप्ताह में एक दिन उन्होंने किसी के द्वारा समाचार भिजवाया कि मुख्यमंत्री श्री मुलायम सिंह यादव द्वारा भगवान ऋषभदेव महामस्तकाभिषेक महोत्सव के मंच से घोषित ऋषभदेव जैन चेयर के भवन बनाने हेतु सरकार से पैसा प्राप्त हो गया है, उस भवन के शिलान्यास हेतु माताजी मुहूर्त निश्चित कर दें एवं अपना सानिध्य प्रदान करने हेतु स्वीकृति प्रदान करें।
शिलान्यास की बात आते ही पूज्य माताजी ने ५ फरवरी की तिथि घोषित करते हुए अपने पहुँचने की स्वीकृति दे दी। उस दिन कुलपति जी ने बहुत ही सूझ-बूझ का परिचय देते हुए शिलान्यास के पश्चात् उसी दिन (५ फरवरी १९९५ को) पूज्य माताजी को विश्वविद्यालय लाकर डी.लिट्. की मानद् उपाधि प्रदान करके अपने विश्वविद्यालय का गौरव वृद्धिंगत कर लिया।
प्र्अयोध्या से मंगल विहार-
भगवान ऋषभदेव की जन्मजयंती के पश्चात् २८ मार्च १९९५ को पूज्य माताजी ने अपने संघ के साथ अयोध्या से मंगल विहार कर दिया। बड़े बाबा के श्रीचरण छोड़ते हुए उन्हें भी मानसिक वेदना हुई तथा उन्होंने अपने उद्बोधन में अवधवासियों को अयोध्या तीर्थ की तन-मन-धन से रक्षा करने का संदेश दिया। पूज्यश्री की उक्त भावना को मैंने एक भजन में संजोया, जिसने समय के अनुरूप तीर्थभक्तों को प्रबल प्रेरणा प्रदान किया-
निधियाँ कई दे दी हैं, अयोध्या को मात ने।
अब तीर्थ को रखना, मेरे भक्तों! संभाल के।।टेक.।।
आए थे कभी देशभूषण जी महामुनी।
जिनकी कृपा से ऋषभदेव मूर्ति है बनी।।
उपकार उनका लिख गया इस तीर्थ भाल पे।
अब तीर्थ को रखना मेरे भक्तों! संभाल के।।१।।
वीरान हो गई थी पुन: पुरी अयोध्या।
जिनधर्म की प्रभावना न हुई थी यहाँ।।
प्रचलित है रामजन्मभूमि की मिशाल से।
अब तीर्थ को रखना मेरे भक्तों! संभाल के।।२।।
इस अवध की अनमोल मणी ज्ञानमती माँ।
गणिनी शिरोमणी तथा चारित्र चन्द्रिका।।
उनकी गई इक दृष्टि अयोध्या विकास पे।
अब तीर्थ को रखना मेरे भक्तों! संभाल के।।३।।
निज संघ सहित आ गईं इस आदि तीर्थ पर।
फिर छा गई यह ऋषभ जन्मभूमि जगत पर।।
अतिशायि कार्य हो गये हैं अल्पकाल में।
अब तीर्थ को रखना मेरे भक्तों! संभाल के।।४।।
फिर ना कभी वीरान हो जावे ये बगीचा।
श्री देशभूषण ज्ञानमती ने इसे सींचा।।
चैतन्य तीर्थ ‘‘चन्दना’’ गुरु ही त्रिकाल में।
अब तीर्थ को रखना मेरे भक्तों! संभाल के।।५।।
इस प्रकार अयोध्या की गलियाँ, वहाँ की जनता, वहाँ की इमारतें सब अपनी पुत्री को विदाई देते समय शून्यता का अनुभव कर रही थीं। अयोध्या के पत्रकार बंधु, वहाँ के सन्त-महन्त उस भावी शून्यता को शब्दों में प्रगट करते हुए कह रहे थे-
‘पूज्य माताजी! आपके यहाँ पर विराजने से इतने दिन अयोध्या में जो चारों तरफ अमन-चैन हुई है, वह कहीं आपके जाते ही फिर न खत्म हो जाए, इसलिए आप अयोध्या से न जाएँ, यही आपसे हमारी प्रार्थना है।’ एक प्रभावी महंत जी अपने उद्गार व्यक्त करते हुए बोले-
‘‘अयोध्या में महन्त बहुत हैं किन्तु सन्त के रूप में हमने आपको पहली बार पाया है। वास्तव में महानता का अन्त करने वाले महन्त कहलाते हैं तथा संसार का अन्त करने के पथ पर चलने वाले सन्त कहे जाते हैं। यदि हमारी नगरी में आप जैसे नि:स्वार्थ सन्त रहने लग जावें, तो इसका उत्थान अवश्य हो सकता है।’’
सबकी भावनाओं का सम्मान करती हुईं, हृदय से जन-जन को आशीर्वाद प्रदान करती हुईं पूज्य माताजी ने २८ मार्च काr शाम तक अयोध्या की सीमा पार कर ली और मन में प्रभु की मूरत बसाए हुए चल पड़ीं अपने गन्तत्व की ओर। पूरे ६० दिनों में अयोध्या से हस्तिनापुर की यात्रा सम्पन्न हुई।
प्र्सन्त समागम से हृदय परिवर्तन-
पद विहार करते हुए जैन साधु-साध्वियों को अनेक अनहोने प्रसंगों का सामना करना पड़ता है। अयोध्या से विहार करने के दो-तीन दिन पश्चात् ही एक दिन मार्ग में एक ठाकुर साहब मिले, उन्होंने पूज्य माताजी के पास आकर पाँच सौ रुपये का नोट चढ़ाया। माताजी मुस्कराकर आगे चल पड़ीं, तो ठाकुर साहब ने नोट उठाकर उनसे लेने का आग्रह किया। पुन: हम लोगों ने उन्हें बताया कि जैन साधु पैसा छूते भी नहीं हैं लेने और रखने की बात तो बहुत दूर है। कुछ देर चर्चा करने के बाद वे प्रभावित होकर वापस चले गए।
संयोगवश दूसरे दिन अगले गाँव में शाम को ६ बजे पुन: वे वहाँ आ गए, जहाँ एक स्कूल में हम लोग ठहरे थे। वे फिर रुपये चढ़ाकर कहने लगे-
अम्माजी! आपने कल मुझे फुसलाकर पैसे वापस कर दिए थे परन्तु आज तो आपको लेना प़ड़ेगा, मैं बिना दिये वापस नहीं जाऊँगा।
‘‘अच्छा! बिना दिये तुम वापस नहीं जाओगे’’ उसी की बात दुहराते हुए ज्ञानमती माताजी बोली, तब उसने फिर से उनसे रुपये ग्रहण करने की विनती की।
माता ने अब बच्चे की भावुकता पर ध्यान दिया और अकस्मात बोल पड़ीं-
‘‘मैं जो कुछ भी कहूँ वह तुम मानने को तैयार हो?’’
‘‘हाँ हाँ माँ जी! मैं सब कुछ तुम्हारें चरणों में न्योछावर करने को तैयार हूँ।’’ ठाकुर ने कहा।
माताजी ने अब कुछ सोचकर कहा-वत्स। साधु को नोट या वोट नहीं चाहिए, उसे तुम्हारी खोट चाहिए। वह बेचारा बोल पड़ा-माँ! मैं समझा नहीं कि आप क्या चाहती हैं?
माँ का स्वर फूटा—बेटा! यदि माँसाहार करते हो तो छोड़ दो।
इतना सुनते ही वह ठगा सा रहा गया और कहने लगा-
माँ जी! क्या आप अंतर्यामी हैं? आपमें जरुर कोई दिव्यशक्ति है, जिसने बिना कुछ कहे मेरी खोट जान ली। अच्छा! आप यही खोट मुझे दे देने को कह रही थीं?
हाँ में सिर हिलते ही ठाकुर चरणों में नतमस्तक होकर बोल पड़ा-
‘‘अम्मा! मैंने त्याग दिया आज आपके चरणों में जीवन भर के लिए माँसाहार को।’’
उसके कई मित्र भी पास में खड़े थे और सैकड़ों ग्रामीण थे। उन सब ने यह दृश्य देखकर अण्डे खाने का, मांसाहार करने तथा शराब पीने का आजीवन त्याग कर दिया। कुछ ही क्षणों में वहाँ ठाकुर की माँ, पत्नी, बच्चे सब आ गए वे इस आकस्मिक त्याग से अत्यन्त प्रभावित हुए और पूज्य माताजी को कोटि-कोटि धन्यवाद देते हुए कहने लगे-
‘सुनी तो बहुत थी सन्तों की महिमा पर आँखों से देखी है सच्ची कहानी’’
पुन: कई दिनों तक वे ठाकुर साहब आते रहे और माताजी का शुभाशीर्वाद प्राप्त कर ग्राम पंचायत के चुनाव में विजयी बने।
ऐसे कई उदाहरण इस पद विहार में देखे गए, जब छोटे-बड़े ग्राम के वासियों ने हम लोगों के लघु संबोधन पर अनेक व्यसनों का त्याग किया।
प्र्मच्छर भी गायब हो गए –
कुण्डासर नामक गाँव की बात है। हम लोग वहाँ रात्रि विश्राम हेतु एक डॉ. के घर पर रुके हुए थे। वे पति-पत्नी अत्यन्त सज्जन थे। सुबह जब हम लोग वहाँ से विहार कर रहे थे तो डॉ. साहब ने कहा-माताजी! यहाँ तो रोज इतने मच्छर रहते थे कि बैठना, उठना, लेटना मुश्किल पड़ जाता था किन्तु आज रात को तो चमत्कार हो गया। आज आप लोगों के आगमन व विश्राम से चमत्कारवश एक भी मच्छर नहीं रहा। वास्तव में सन्तों की चर्या ऐसी होती है कि मच्छर क्या, उनके तप के प्रभाव से बड़े-बड़े अकाल भी दूर हो जाते हैं।
प्र्बाबाजी ने कई लोगों को शाकाहारी बनाया-
हस्तिनापुर की ओर हम लोग निरन्तर बढ़ते चले जा रहे थे। कुंवरगड्डी में हमारा आहार था। दिन में एक बुड्ढे बाबाजी आये और कहने लगे कि आपने दो वर्ष पूर्व यहाँ जो प्रवचन किया था, उससे मैं बहुत प्रभावित हुआ हूँ। वे ऐसा कहकर मेरे द्वारा २ वर्ष पूर्व सुनाई गई भील द्वारा कौवे के माँस त्याग की कथा ज्यों की त्यों सुनाने लगे, जिसे सुनकर हम सभी को बड़ी प्रसन्नता हुई, फिर वह पूज्य माताजी से अपने ज्ञानवर्द्धन के लिए एक पुस्तक ‘‘आटे का मुर्गा’’ प्राप्त कर प्रसन्न मन से यह कहकर चले गये कि अब मैं हर एक व्यक्ति को शाकाहारी बनने की प्रेरणा देता हूँ।
प्र्मिट्टी हटाते ही पानी आ गया-
अपने गृहस्थावस्था के ननिहाल महमूदाबाद से विहार कर हम लोग ८ किमी. दूर भेथरामाधव नामक गाँव के स्कूल में पहुँचे। ब्रह्मचारिणी बहनों को सुबह से यहाँ पानी की बड़ी दिक्कत थी। जब हम लोग वहाँ पहुँचे तो सामने ही एक मिस्त्री ने मिट्टी हटाई और मोटर लगाते ही ट्यूबवेल चलने लग गया। बाद में गाँव वालों से पता चला कि यहाँ तो पानी की बहुत ज्यादा दिक्कत थी, यह तो कोई चमत्कार है, जो आज यहाँ पानी आ गया। इसी प्रकार की एक घटना खैराबाद नाम के गाँव में हुई, यहाँ आते ही ब्र. बहनों ने बताया कि यहाँ पानी के लिए हम सब बहुत परेशान हुए, गाँव वालों से पूछने पर ट्यूबवेल १ किमी. दूर बताया और यहाँ का कुंआ बिल्कुल सूखा पड़ा था किन्तु माताजी का चमत्कार कि रात में ही जाने कहाँ से उसमें खूब अच्छा पानी आ गया और उसी से चौका बनाया गया।
प्र्सीतापुर में हुआ अवध यात्रा का समापन –
पिछले वर्ष अयोध्या में धर्मामृत की वर्षा करने के बाद पूज्य माताजी अयोध्या से विहार करव्ाâे फतेहपुर, बेलहरा, पैतेपुर, महमूदाबाद, सिधौली होती हुई २८ अप्रैल १९९५ को सीतापुर पहुँचीं। उनके मंगलपदार्पण पर सीतापुर जैन मंदिर के पीछे एक त्यागीभवन का शिलान्यास हुआ तथा वहीं से भक्तों ने भावभीनी विदाई दी।
इस अवसर पर लखनऊ से श्री सुमेरचंद जैन पाटनी व श्री विजय कुमार जैन पधारे और पाटनी जी ने सभा में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि आज १४ महीने के बाद मैं पूज्य माताजी के दर्शन करने आया हूँ। इसे मैं अपना दुर्भाग्य मानता हूँ। इस मध्य मेरे मन में कारणवश कुछ गलतफहमी उत्पन्न हो गई थी जिनके कारण मैं संघ के दर्शन को नहीं आ सका और अयोध्या के द्वितीय पंचकल्याणक में भी भाग न ले सका। अभी मैं ५-७ दिन पूर्व ही अयोध्या होकर आया हूँ, वहाँ के कार्यकलापों की तो जितनी प्रशंसा की जावे, कम है। इतने कम समय में जो अनेक विशाल निर्माण हुए हैं, इतिहास उन्हें युगों-युगों तक स्वर्णाक्षरों में अंकित रखेगा। पूज्य माताजी अब अवधप्रान्त से विहार कर रही हैं, मैं कई दिनों से उनके दर्शन करने एवं क्षमायाचना करने हेतु आने वाला था किन्तु पारिवारिक परिस्थितियों के कारण नहींr आ सका। आज अवध यात्रा के समापन की बेला में माताजी से व आर्यिका संघ से क्षमायाचना करता हुआ यही आशा रखता हूँ कि मेरे ऊपर आप लोगों का पूर्व जैसा आशीर्वाद तथा स्नेह बना रहेगा। अन्त में पाटनी जी ने कहा कि अयोध्या तीर्थक्षेत्र की नई कमेटी के प्रति मेरी पूर्ण आस्था है, उसके प्रति मेरा कोई दुर्भाव नहीं है। आज पूज्य माताजी के समक्ष मैं पुरानी बातों का त्याग करके जा रहा हूँ। भाई रवीन्द्र जी अयोध्या के कार्य में मुझसे जब भी कोई सहयोग मागेंगे, मैं सदैव सहयोग दूँगा।
अवध यात्रा समापन के समय अपने मंगल उद्बोधन में परमपूज्य गणिनी आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी ने अपने आशीर्वादात्मक प्रवचन में कहा कि साधु तो क्षमा की मूर्ति होते हैं। आप सभी अपने शाश्वत तीर्थ अयोध्या का सतत विकास करते हुए उसकी रक्षा करें, यही मेरा सबके लिए मंगल आशीर्वाद है।
प्र्आशीर्वाद से अनहोनी टल गई-
५ मई की बात है, हम लोग बंथरा से तिलहर डिग्री कालेज पदयात्रा करते हुए पहुँचे ही थे कि संघस्थ ब्रह्मचारिणी बहनों ने आकर बताया कि माताजी! आज तो बड़ा अनिष्ट टला है वर्ना आज न जाने क्या होता? मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि आज हमारी मेटाडोर का बड़ा भारी एक्सीडेंट हुआ, भगवान की पेटी चूँेिक साथ में थी इसलिए हम लोग बच गए। हुआ यूँ कि बंथरा स्कूल के बाहर एक छोटा सा आधा बना हुआ गेट था, उसमें से मेटाडोर निकलने लगी तो ऊपर वैâरियर पर रखा सामान उस गेट से टकरा गया और गेट के दोनों पिलर और ऊपर का हिस्सा सारा का सारा हमारी मेटाडोर पर गिर गया। आगे का पूरा शीशा टूट गया, दरवाजे का लॉक टूटा और हल्की-फुल्की खरोंच गाड़ी में आयी किन्तु हममें से किसी को या ड्राइवर को एक खरोंच भी नहीं आयी। यह सब भगवान का चमत्कार और आपके आशीर्वाद का ही फल है कि इतने भयंकर एक्सीडेंट के बाद भी हम लोग सही-सलामत आपके सामने खड़े हैं।
प्र्व्यसन मुक्ति का जीवन्त संदेश देते हैं साधु-सन्त-
यूँ तो पूज्य माताजी की प्रेरणा व उपदेश से तमाम व्यक्ति मांसाहार का त्याग कर देते हैं परन्तु जिस गांव में ग्राम प्रधान मुसलमान हों और जाटों की बस्ती हो, वहाँ के लोग शराब व माँस का त्याग हमेशा के लिए कर दें, यह अपने आप में अनोखी एवं अविस्मरणीय बात है। छजलेट गाँव में भी ऐसा ही हुआ। हम लोग लगभग १ फर्लांग अन्दर जाकर जूनियर हाईस्कूल में ठहरे, दिन का समय था। हस्तिनापुर से पधारे पं. नरेश कुमार शास्त्री को पूज्य माताजी ने प्रवचनार्थ इशारा किया, उनके प्रवचन के पश्चात् क्षुल्लक मोतीसागर महाराज का जैसे ही अहिंसा धर्म पर प्रवचन प्रारंभ हुआ, उस गाँव के लगभग २५-३० लोगों ने तुरंत ही शराब व मांस का त्याग कर दिया।
प्र्गुरु का उपदेश जीवन परिवर्तन में माध्यम बना-
जैसा कि मैंने आपको पहले बताया कि सन्त समागम मानव जीवन में परिवर्तन ला देता है। वही परिस्थिति पटपरागंज नामक गाँव में भी देखने मिली। गाँव वालों की उत्सुकता देखकर मैंने अहिंसा धर्म पर उन सभी को थोड़ा सा उपदेश देकर मद्य और मांसाहार त्याग करने की प्रेरणा दी, उस समय जितने भी ग्रामीण प्रवचन सुनने आए थे, उन ३००-४०० लोगों ने तुरंत मद्य एवं मांसाहार त्याग का नियम ले लिया। इसी प्रकार मझगवां गाँव में पूज्य माताजी से कुछ ग्रामीण बोले-अम्मा! थोड़ा उपदेश सुना दो। माताजी ने उनको माँसाहार व मदिरापान का त्याग करने का उपदेश दिया और माताजी के सामने ही लगभग २०० ग्रामीणों ने मद्य एवं मांस का त्याग कर दिया।
प्र्धीवर ने मछली मारने का त्याग कर दिया-
एक भन्डिया नामक ग्राम में संघ का रात्रि विश्राम था। वहाँ जनता की भीड़ उमड़ आने पर पूज्य माताजी ने क्षुल्लक मोतीसागर को प्रवचन के लिए संकेत किया। उन्होंने प्रवचन में धीवर का एक प्राचीन कथानक सुनाते हुए कहा कि उसने एक महात्मा जी से एक दिन नियम ले लिया कि ‘पहली मछली जो मेरे जाल में पँâसेगी उसे मैं छोड़ दिया करूँगा।’’ इस नियम के अनुसान उसने एक मछली को उसी दिन पांच बार जीवनदान दिया और कोई दूसरी मछली दिन भर जाल में न आने पर भी उसने िनयम नहीं तोड़ा। भले ही उसे तथा उसके परिवार को भूखे रहना पड़ा।
उस नियम के प्रभाव से अगले जन्म में वह धीवर एक धनी सेठ का लड़का हुआ और जीवन में पाँच बार मृत्यु से उसकी रक्षा हुई। अत: प्रत्येक प्राणी को अपने समान मानकर किसी की हिंसा नहीं करना चाहिए।
उक्त प्रवचन समाप्त होते ही सभा में एक धीवर जाति का व्यक्ति उठ खड़ा हुआ और उसने जीवन भर के लिए मछली मारने तथा खाने का त्याग कर दिया। क्षुल्लक जी ने उसे सम्मानित किया, पुन: कई लोगों ने मांसाहार का त्याग किया।
प्राचीन काल के समान आज भी साधुओं की सत्संग सभाओं से अनेक जीवों का कल्याण होता है। देखो न! पौराणिक धीवर ने तो पहली मछली को जीवन दान देने का नियम लिया था। किन्तु आज के धीवर ने उससे भी अधिक साहस का परिचय दिया, निश्चित ही उसका भव सुधरने वाला होगा।
ऐसे छोटे-छोटे संस्मरणों से अवध यात्रा का एक वृहत् पुराण तैयार हो सकता है किन्तु यहाँ मैंने केवल दो-चार उदाहरण लिखकर ही साधु-सानिध्य से होने वाले परोपकारों को प्रस्तुत किया है।
पुन: २८ मई १९९५, ज्येष्ठ कृ. चतुर्दशी भगवान शान्तिनाथ के जन्म, तप एवं निर्वाणकल्याणक की पावन बेला में पूज्य माताजी अपने पूरे संघ के साथ हस्तिनापुर पधारीं।
प्र्तेरी इस त्यागप्रथा में, कितनी बालाएँ आईं –
वैसे तो माताजी को इस हस्तिनापुर से अयोध्या विहार के मध्य अनेक अचेतन उपलब्धियों की प्राप्ति हुई थी, जिससे पूरे अवध की ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत देश की जनता लाभान्वित हो रही है और होती रहेगी परन्तु इनके साथ ही साथ जो चेतन उपलब्धियों के रूप में पूज्य माताजी ने तीन कन्याओं को संसाररूपी कीचड़ से निकालकर त्यागमार्ग में लगाने का उपक्रम किया है, वह युगों-युगों तक अविस्मरणीय रहेगा। उन कु. सारिका, कु. इन्दू एवं कु. अलका के लिए मेरा मंगल आशीर्वाद है कि उन्होंने अपनी छोटी-छोटी उम्र में यह जो तलवार की धार के समान कठिन व्रत अंगीकार किया है, उसका निरतिचार पालन करते हुए सदैव अपने चारित्र की वृद्धि करें। कु. सारिका पूज्य माताजी की गृहस्थावस्था की छोटी बहन श्रीमती कामिनी जैन (दरियाबाद) की सुपुत्री हैं, कु. इन्दू भी पूज्य माताजी के ही गृहस्थावस्था के भ्राता स्व.श्री प्रकाशचंद जैन की सुपुत्री हैं और कु. अलका भी उसी जन्मभूमि टिवैâतनगर के ही श्रावक श्री कोमलचंद्र जैन की सुपुत्री हैं। जहाँ पर पूज्य ज्ञानमती माताजी जैसे महान साधु जन्मे हैं तथा अनेकों त्यागी, व्रती लगातार त्याग मार्ग में आगे बढ़कर नगरी का गौरव बढ़ा रहे हैं।
प्र्हस्तिनापुर तीर्थ पर मंगल-पदार्पण-
इस प्रकार अयोध्या से यहाँ तक के पदविहार में अनेक प्रकार के खट्ठे-मीठे अनुभवों का आनन्द लेते हुए संघ का मंगल पदार्पण हस्तिनापुर के जम्बूद्वीप-स्थल पर हुआ। तीर्थ के अतुलनीय सौन्दर्य को देखते ही मन प्रसन्नता से भर उठा तथा इतनी लम्बी यात्रा की सारी थकान दूर हो गई।
मंगल प्रवेश के अवसर पर आयोजित प्रवचन सभा में सर्वप्रथम क्षुल्लक मोतीसागर जी महाराज ने अपने मंंगलाचरण में कहा-दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के कार्यकर्ताओं की कर्मठता और उनके दीर्घकालीन अनुभव का ही प्रतिफल है, जो अयोध्या तीर्थ का इतने अल्पकाल में उद्धार हो गया।
पुन: मैंने अपने वक्तव्य में कहा कि-एक पथिक कुंए में गिर गया, तो अपनी प्राणरक्षा के लिए बचाओ-बचाओ कहकर चिल्लाने लगा। एक सिद्धांतशास्त्री उसे कर्मसिद्धान्त का भाषण सुनाकर चले गये, एक नेता जी ग्राम पंचायत की बुराई करके चले गए और एक क्रिश्चियन भाई बोले-अभी साधन लाकर आपको निकालता हूँ पुन: तीर्थंकर महावीर के एक सच्चे भक्त ने बिना भाषण दिए, बिना विचार किए ही शीघ्र साथ में लाए छन्ना, लोटा, डोर का सदुपयोग किया और अपनी डोर के सहारे कुंए से उस दुखी पथिक को निकाल लिया, पथिक ने उसे कोटि-कोटि धन्यवाद दिया। इसी प्रकार हस्तिनापुर और अयोध्या दोनों तीर्थ उपेक्षितरूप में महावीर के भक्त को अपने उद्धार हेतु पुकार रहे थे, पूज्य ज्ञानमती माताजी के रूप में उन्हें सच्चा उद्धारक मिला और वे दोनों तीर्थ अब विश्व के मानस पटल पर उभरकर आए हैं।
सभा के अंत में पूज्य माताजी ने सभी उपस्थित भक्तों को अपना मंगलमयी आशीर्वाद प्रदान किया तथा अयोध्या और हस्तिनापुर का पारस्परिक संबंध जोड़ते हुए उन्होंने कहा कि-‘‘हिन्दी वर्णमाला का प्रथम अक्षर ‘अ’ है और अंतिम अक्षर ‘ह’ है अत: अयोध्या और हस्तिनापुर के बीच में वर्णमाला के शेष समस्त अक्षरों की भांति शेष सभी तीर्थ समाहित हो जाते हैं।’’
प्र्वर्षायोग स्थापना-
‘धरती का स्वर्ग’ कही जाने वाली हस्तिनापुर की धरती पर जिस दिन से पूज्य माताजी ने प्रवेश किया, नित्य ही छोटे-बड़े कार्यक्रम आयोजित होने लगे। इसी शृंखला में दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के पदाधिकारियों के विशेष आग्रह से पूज्य माताजी ने ईसवी सन् १९९५ का वर्षायोग जम्बूद्वीप स्थल पर स्थापित किया।
चातुर्मास के मध्य रक्षाबंधन पर्व, दशलक्षण पर्व आदि कार्यक्रम विशेष आयोजनपूर्वक सम्पन्न हुए तथा जम्बूद्वीप का द्वितीय महामहोत्सव एवं पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी का जन्मदिवस अद्वितीय समारोह के साथ मनाया गया।
प्र्सोने में सुगंधि-
पाँच वर्षों के बाद जम्बूद्वीप महामहोत्सव का यह आयोजन इसलिए और अधिक महिमामंडित बन गया क्योंकि उसी दिन आयोजन की प्रेरिका चारित्र चन्द्रिका गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी की जन्म और वैराग्यजयन्ती भी आ गई थी। वह पवित्र दिवस था आश्विन शुक्ला पूर्णिमा (शरदपूर्णिमा) ८ अक्टूबर १९९५ रविवार का। जब चन्द्रमा अपनी सोलह कलाओं से परिपूर्ण होकर अमृतमयी किरणें बिखेरता है, उसी शरदपूर्णिमा की रात्रि के प्रथम प्रहर में जन्म लेने वाली कन्यारत्न ने सन् १९५२ में शरदपूर्णिमा के दिन ही गृहबन्धन को त्याग कर रत्नत्रयपथ की ओर कदम बढ़ाए थे, इसीलिए शरदपूर्णिमा की तिथि वैराग्यदिवस से भी प्रसिद्ध हुई है।
प्र्जिलाधिकारी महोदय की घोषणा-
२ से ८ अक्टूबर तक आयोजित जम्बूद्वीप महामहोत्सव में मेरठ के जिलाधिकारी माननीय श्री दीपक सिंघल ने ६ अक्टूबर को पधारकर पूज्य गणिनी माताजी का आशीर्वाद प्राप्त किया। संस्थान की ओर से माननीय जिलाधिकारी महोदय का भावभीना स्वागत किया गया। इस अवसर पर जिलाधिकारी महोदय ने संस्थान व पूज्य माताजी द्वारा किये गये हस्तिनापुर विकास की प्रशंसा करते हुए कहा कि जिस प्रकार से श्रवणबेलगोला जैन समाज का अंतर्राष्ट्रीय स्तर का तीर्थ है, उसी प्रकार जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर को अंतर्राष्ट्रीय स्तर का तीर्थ बना देना चाहिए। आपने यह भी कहा कि आप लोग हस्तिनापुर के विकास की योजना तैयार करें, उसमें शासन से जो भी सहयोग की जरूरत होगी, मैं उसे पूरा करूँगा।
प्र्नूतन मंदिरों में श्री जी विराजमान हुए-
नवनिर्मित श्री शांतिनाथ मंदिर, श्रीवासुपूज्य मंदिर एवं ध्यान मंदिर में दिनाँक ४-५ अक्टूबर १९९५ को घटयात्रापूर्वक ८१ कलशों से वेदी शुद्धि हुई और धाम सम्प्रोक्षण, वेदीवस्त्राच्छादन, मंदिरों की चारों दिशाओं में चतुर्दिक् हवन कराकर समस्त शास्त्रोक्त विधि सम्पन्न हुई। पुन: ६ अक्टूबर (आश्विन शु. १३) को प्रात: ९ बजे से वेदियों में भगवान विराजमान किये गये।
सर्वप्रथम वासुपूज्य भगवान की प्रतिमा विराजमान करने का सौभाग्य मिला मवाना निवासी श्रीपाल जैन (भगत जी) को, पुन: भगवान् शांति-कुंथु-अरहनाथ की प्रतिमाएँ शांतिनाथ मंदिर में श्री राजकुमार जैन-मेरठ सदर ने विराजमान कीं। इस मंदिर का निर्माण भी राजकुमार जैन की ओर से ही हुआ है।
इसके पश्चात् बिल्कुल नये डिजाइन वाले नवनिर्मित ध्यान मंदिर में चौबीस तीर्थंकरों से समन्वित ‘ह्रीं’ की धातुनिर्मित प्रतिमा गुजरात (अहमदाबाद) निवासी श्री हीरालाल जैन एवं उनकी धर्मपत्नी सौ. कान्ताबेन को विराजमान करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
प्र्कलशारोहण एवं ध्वज स्थापना-
भगवान वासुपूज्य के मंदिर पर शिखरपूजन के साथ कलशारोहण श्री ऋषभकुमार जैन-जयपुर निवासी ने सपरिवार किया तथा श्री विजय कुमार जैन-दरियागंज दिल्ली (सूर्या प्रिन्टर्स) ने अखंड ध्वज स्थापित किया।
तीर्थंकर श्री शांतिनाथ मंदिर पर मंदिर के ही निर्माता श्री राजकुमार जैन-मेरठ को कलशारोहण और अखंडध्वज स्थापना का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ।
इसी शृंखला में ध्यान मंदिर के ऊपर श्री हंसकुमार जैन, शालीमारबाग-दिल्ली ने कलशारोहण किया और श्री सुरेशचंद जैन गोटे वाले-गली गुलियान, दिल्ली परिवार ने अखंड ध्वज स्थापित कर अपनी पुण्यकीर्ति पताका फहराई।
प्र्महामहोत्सव के अवसर पर महाभिषेक-
विश्व की अलौकिक एवं एकमात्र जम्बूद्वीप रचना के मध्य निर्मित उत्तुंग सुमेरु पर्वत पर शरदपूर्णिमा की प्रात: से ही आम जनता के जाने पर प्रतिबंध लगा हुआ था, क्योंकि उस दिन वहाँ की पाण्डुक आदि चारों शिलाओं पर तीर्थंकर भगवन्तों का १००८ कलशों से महाभिषेक होने वाला था। कलशाभिषेक करने वालों को क्रम-क्रम से वहाँ तक पहुुँचाने हेतु सुन्दर और मजबूत व्यवस्था बनाई गई।
जम्बूद्वीप के सामने एक बड़े चबूतरे पर अनेक कर्मठ महानुभावों के सहयोग से शास्त्रोक्त विधि से बनाए गए मंडल पर १००८ कलश जल भरवाकर स्थापित किये गए। सुमेरु पर्वत की ही डिजाइन में बने ये रंगबिरंगे कलश दर्शकों के विशेष आकर्षण के केन्द्र रहे। संसार में प्रथम बार इस प्रकार के सुमेरु कलश निर्मित हुए, जो अभिषेक करने वाले महानुभावों को महोत्सव समिति की ओर से भेंट कर दिए गए। सुमेरु पर्वत के पांडुक वन में बनी पाण्डुक, पांडुकबला, रक्ता और रक्तकंबला इन चार शिलाओं पर भरतक्षेत्र, पश्चिम विदेह, ऐरावत क्षेत्र और पूर्व विदेह में जन्में तीर्थंकरों का अभिषेक होना था, जो कि जन्माभिषेक का प्रतीक था। उन तीर्थंकरों को अपनी-अपनी शिलाओं पर विराजमान करने का सौभाग्य निम्न चार श्रावकों ने प्राप्त किया और सौधर्म इन्द्र के रूप में गाजे-बाजे के साथ जिन प्रतिमाओं को त्रिमूर्ति मंदिर से सुमेरु पर्वत के ऊपर ले गए-
१. श्री अनिल कुमार जैन, प्रीतविहार-दिल्ली
२. श्री राजकुमार जैन, सफदरजंग एन्क्लेव-दिल्ली
३. श्री ऋषभ कुमार जैन, जयपुर
४. श्री राजेश कुमार जैन-सलावा (मेरठ)
प्र्‘सुमेरु कलश’ से प्रथम अभिषेक–
पूर्व नियोजित व्यवस्थानुसार प्रथम नम्बर के ‘सुमेरु कलश’ से अभिषेक करने वाले महानुभावों के लिए स्वर्ण के कलश बनाए गए थे।
सुमेरु कलश से सर्वप्रथम अभिषेक करने का सौभाग्य जिन महानुभावों ने प्राप्त किया, उन्हें वह स्वर्ण कलश स्मृतिस्वरूप भेंट कर दिया गया।
अन्य कलशों वेâ द्वारा भी क्रम-क्रम से समस्त नरनारियों ने अभिषेक कर असीम पुण्य संचित किया। महिलाओं के लिए स्पेशल बनी केशरिया साड़ियाँ तथा पुरुषों के लिए सफेद धोती-दुपट्टे भी सबको प्रदान किए गए। उन्हें पहनकर पंक्तिबद्ध खड़े हुए इन्द्र-इन्द्राणियों की शोभा से महाभिषेक का वातावरण और भी मनमोहक बन गया था।
गीत-संगीत की मधुर ध्वनियों के बीच न्हवन करने वाले भक्तगण अभिषेक करते रहे और देखने वाली जनता के लिए नीचे पांडाल में क्लोजसर्किट टी.वी. की व्यवस्था थी, उनमें देख-देखकर वे सभी हर्षायमान हो नृत्य-गीत करके आनंद प्राप्त कर रहे थे। पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी, मैं, क्षुल्लक मोतीसागर महाराज, क्षुल्लिका श्रद्धामती जी एवं समस्त ब्रह्मचारिणी बहनों सहित पूरे संघ का सानिध्य भी भक्तों को उत्साह प्रदान कर रहा था तथा विभिन्न विद्वानों के द्वारा जहाँ अभिषेक मंत्रों का उच्चारण चल रहा था, वहीं सामयिक भाषणों से सुमेरु पर्वत, जम्बूद्वीप और महामहोत्सव से संबंधित अनेक तथ्यपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त हो रही थीं।
यह अभिषेक क्रम प्रात: ९ बजे से मध्यान्ह १ बजे तक चला, जिसमें सुमेरु कलश, रत्नकलश, सुवर्ण कलश करने के पश्चात् कुछ श्रद्धालुओं ने पंचामृत अभिषेक करने का पुण्य लाभ प्राप्त किया।
प्र्महोत्सव एवं जन्मजयंती की विशाल सभा-
यूँ तो प्रात: ५ बजे से ही ‘रत्नत्रय निलय’ में अवध प्रान्त से आई जनता ने पुत्र जन्म जैसी खुशियाँ मनाना प्रारंभ कर दिया था, चरण प्रक्षालन, आरती, भजन, बधाई, पुष्पवृष्टि, रत्नवृष्टि आदि से जम्बूद्वीप परिसर अतिशय सुगंधित हो गया था, फिर भी मध्यान्ह २ बजे से जम्बूद्वीप रचना की उत्तर दिशा में एक विशाल पांडाल में सार्वजनिक सभा का आयोजन किया गया। यहाँ मुख्यअतिथि के रूप में पधारे भारत सरकार के केन्द्रीय खाद्य मंत्री-चौधरी श्री अजित सिंह जी।
सभा का शुभारंभ संघस्थ ब्रह्मचारिणी बहनों द्वारा ‘शारद वंदना’ से हुआ पुन: महोत्सव समिति के उपस्थित कार्यकर्ताओं ने मुख्य अतिथि महोदय का स्वागत किया और उन्हें महोत्सव का प्रतीक ‘सुमेरुकलश’ भेंट किया गया।
प्र्सरस्वती और लक्ष्मी का रूप बन गईं तब पूज्य माताजी-
सभा मंच पर बीचों बीच अपने संघ सहित काष्ठासन पर विराजमान पूज्य वात्सल्यमूर्ति-तीर्थोद्धारिका गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी सचमुच में उस दिन सरस्वती और लक्ष्मी दोनों का प्रतिनिधित्व करती प्रतीत हो रही थीं क्योंकि उनके बाईं ओर सरस्वती पुत्र विद्वानों का समूह अपनी माता के चरणों में विनयांजलि करने को आतुर बैठा था और उनके दाईं ओर राजनेता-समाजनेता, लक्ष्मीपुत्र श्रीमानगण अपनी अर्थांजलि समर्पित करने को लालायित थे। सभी के मुंह से श्रद्धापूरित शब्द निकल रहे थे कि ‘‘इन शारद माता ने अपने ज्ञान की लक्ष्मी से निज को तो अक्षय निधि का भंडार बनाया ही है, इस वीरान हस्तिनापुर तीर्थ को भी साक्षात् समवसरण का स्वरूप प्रदान कर संसार में अमर कर दिया है।’’
जिनके वचनों से सरस्वती-जिनवाणी का रस टपकता है, सम्यग्ज्ञान का अमृत बरसता है, न्याय का रूप झलकता है, भक्ति का प्रवाह छलकता है, सिद्धान्त का समन्दर निकलता है, अध्यात्म का तेज दिखता है, वात्सल्य का भाव महकता है, निस्पृहता का सूत्र मिलता है, निश्छलता का मूर्तिरूप खिलता है, ऐसी न्यायप्रभाकर, विधानवाचस्पति, साहित्य वारिधि, विद्यावाचस्पति, आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी इस युग की सरस्वती का रूप हैं तभी निर्दोष ज्ञान प्राप्ति की इच्छा से विद्वत्गण इनके सानिध्य को प्राप्त कर अतिहर्षित होते हैं।
जिनकी जिह्वा को दीर्घकालीन भाषासमिति ने वचनसिद्धि प्राप्त करा दी है अत: जिनकी एक प्रेरणा पर तीर्थोद्धार, मंदिर निर्माण, शिक्षा क्षेत्र, साहित्य प्रकाशन, महामस्तकाभिषेक आदि महोत्सवों के लिए श्रेष्ठीगण अपनी अर्थांजलि समर्पित करने को उत्सुक रहते हैंं, वे श्रीमानों की श्रद्धापात्र इसीलिए हैं कि तीर्थंकर जन्मभूमियों के उद्धार-विकास की निश्छल और निस्पृह भावना उनके अंदर कूट-कूट कर भरी हुई है। वे अनेक कर्मठ साधुओं तथा श्रावकों को भी प्रेरणा दिया करती हैं कि तीर्थंकर भगवन्तों की जन्मभूमि के प्रतीक कई तीर्थ आज बिल्कुल उपेक्षित हैं, उनके उद्धार-विकास-प्रचार का कार्य यदि एक-एक साधुसंघ और एक-एक गाँव, शहर के श्रेष्ठी अपने ऊपर ले लें,तो निश्चित ही शीघ्र उन तीर्थों का यश संसार में पैâल जाएगा और श्रीमानों के धन का सदुपयोग भी हो जावेगा।
श्रुतज्ञान की लक्ष्मी जिन्हें पूर्व भव के संस्कारों से प्राप्त हुई है, उन पूज्य माताजी में लक्ष्मी और सरस्वती पर्यायवाची के समान ही प्रतीत होती हैं।
प्र्कल्पवृक्ष और सुमेरु में सजे ६२ दीप जल उठे-
पिछले वर्ष पूज्य माताजी का षष्टिपूर्ति महोत्सव जन्मभूमि टिवैâतनगर में पूरे अवधवासियों ने असीम उल्लास के साथ मनाया था, जिनमें उत्तरप्रदेश के महामहिम राज्यपाल जी ने पधारकर ६१ दीप वाले कल्पवृक्ष, स्वस्तिक और ॐ को प्रज्वलित कर वहाँ की जनता को शरदपूर्णिमा का आलोक प्रदान किया था। इस वर्ष वे पावन क्षण मातुश्री की तपोभूमि में माननीय केन्द्रीय खाद्य मंत्री श्री अजित सिंह को प्राप्त हुए। समारोह के संचालक कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जी तथा सभाध्यक्ष श्री महावीर प्रसाद जैन (बंगाली स्वीट) अतिथि महोदय को मंच पर सुसज्जित सुन्दर सुमेरु पर्वत, कल्पवृक्ष और स्व्ास्तिक के निकट ले गए, जहाँ उन्होंने बिजली का स्विच दबाया और ६२-६२ विद्युत प्रभाएँ चमक उठीं। ये तीनों आइटम टिवैâतनगर की भरतसेना के कर्मठ नवयुवक परिश्रम पूर्वक तैयार करवाकर लाए थे। अपनी विभूति के चरणों में प्रभांजलि अर्पित कर सम्यक् दिशा प्रदान करने हेतु उनका यह प्रयास सफलीभूत हो, यही मंगलकामना है।
प्र्समयसार उत्तरार्ध का विमोचन-
पूज्य आर्यिका श्री द्वारा हिन्दी ज्ञानज्योति टीका में रचित समयसार ग्र्रंथ के पूर्वार्द्ध का प्रकाशन तो सन् १९९० में हो चुका था, उसी टीका के उत्तरार्ध का प्रकाशन अब हो सका। उसका विमोचन भी आज शरदपूर्णिमा के दिन मुख्य अतिथि के द्वारा हुआ और उन्होंने पूज्य माताजी के करकमलों में समयसार ग्रंथ भेंट किया। साधु संघों तथा विद्वानों की चिरप्रतीक्षित आशा पूर्ण हुई, क्योंकि अब उन्हें पूरे समयसार ग्रंथ के स्वाध्याय का लाभ प्राप्त होगा। इन ग्रंथों में पूज्य माताजी ने आचार्य श्री अमृतचंद्र जी की आत्मख्याति टीका तथा आचार्य श्री जयसेन स्वामी की तात्पर्यवृत्ति दोनों संस्कृत टीकाओं की हिन्दी एक साथ प्रकाशित की है तथा स्थान-स्थान पर विशेषार्थों के माध्यम से सिद्धान्त को एवं उभयनय के समन्वय को प्रदर्शित कर ग्रंथ को वास्तव में सर्वांगीण बना दिया है। समारोह में उपस्थित विद्वानों को भी यह ग्रंथ भेंट में दिया गया।
प्र्गणिनी आर्यिका ज्ञानमती पुरस्कार डॉ. अनुपम जैन को-
दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा घोषित तथा श्री अनिल कुमार जैन, कमल मंदिर-दिल्ली द्वारा अपने सुपुत्र चिरंजीव अतिशय जैन के जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में स्थापित ‘‘गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती पुरस्कार’’ द्वारा प्रथम बार डॉ. अनुपम जैन-इंदौर को सम्मानित किया गया। इस सम्मान में संस्थान ने डॉ. अनुपम जी को एक लाख रुपये की नगद राशि, रजत प्रशस्ति पत्र भेंट किया तथा शॉल, माल्यार्पण एवं श्रीफल समर्पित कर स्वागत किया। यह सम्मान कार्यक्रम के मुख्य अतिथि केन्द्रीय खाद्य मंत्री श्री अजित सिंह के करकमलों से सम्पन्न हुआ।
महोत्सव समिति के अध्यक्ष ब्र. रवीन्द्र कुमार जी ने सम्मान के इस प्रसंग में बताया कि जैन समाज के द्वारा प्रथम बार इतनी बड़ी राशि वाले पुरस्कार से किसी जैन विद्वान को सम्मानित किया गया है। इससे पूर्व हमारी कतिपय संस्थाओं ने अन्य विद्वानों को ही ऐसे बड़े सम्मान प्रदान किए हैं किन्तु यहाँ पर चयन समिति ने डॉ. जैन को सम्मानित करने का निर्णय लिया। इस पुरस्कार के संस्थापक श्री अनिल जैन के प्रति भी महोत्सव समिति एवं संंस्थान ने आभार प्रगट किया।
प्र्डॉ. अनुपम जैन का सामयिक वक्तव्य-
जैन समाज के नवोदित युवक डॉ. अनुपम जैन ने इस सम्मान को प्राप्त कर पूज्य गणिनी आर्यिका श्री तथा समस्त संघ के चरणों में नमन किया पुन: अपने संक्षिप्त वक्तव्य में उन्होंने कहा कि धर्म और समाज के प्रति मैंने आज तक जो कुछ भी अपना योगदान दिया है, वह सब पूज्य माताजी की ही देन है। आज से लगभग १५ वर्ष पूर्व मैंने इनके दर्शन किए, तब से ही मैं अत्यन्त प्रभावित हुआ और इनकी प्रेरणा से अपने मुख्य विषय गणित के साथ थोड़ा-थोड़ा धार्मिक अध्ययन करने का भी लक्ष्य बनाया।
संस्थान के पदाधिकारियों ने मु
झमें कुछ योग्यता देखकर यहाँ की अकादमिक एवं शैक्षणिक गतिविधियों के साथ मुझे जोड़ा, जिससे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों के आयोजनों में मुझे सक्रिय रूप से भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ। मेरी हार्दिक भावना है कि पूज्य माताजी द्वारा निर्देशित साहित्यिक कार्यों तथा संस्थान की अकादमिक योजनाओं को खूब प्रगतिपथ पर अग्रसर कर अपने दायित्व का निर्वाह कर सवूँâ।
आज के इस सम्मान के मंगल अवसर पर मैं त्रिलोक शोध संस्थान के प्रति आभार प्रगट करता हूँ तथा साधुजनों से इसी आशीर्वाद की आशा करता हूँ कि जीवन में आत्मविद्या को प्राप्त कर सच्चे ज्ञान का सार ग्रहण करूँ।
प्र्श्री णमोकार महामंत्र बैंक का उद्घाटन (एक अप्रत्याशित नूतन योजना)-
पैसों के लेन-देन वाले बैंक तो दुनिया में लाखों हैं किन्तु जिनेन्द्र भगवान के नाम का लेन-देन करने वाले बैंक आज तक कहीं भी नहीं थे सो पूज्य माताजी की प्रेरणा से जम्बूद्वीप स्थल पर एक ‘‘णमोकार महामंत्र बैंक’’ की स्थापना ८ अक्टूबर १९९५ शरदपूर्णिमा को हुई, जिसका उद्घाटन केन्द्रीय खाद्यमंत्री श्री अजित सिंह ने किया।
प्र्बैंक की योजना-
इस बैंक में श्रद्धालुभक्तों को णमोकार महामंत्र लेखन पुस्तिकाओं में लिखकर जमा करना होगा। इसके लिए विशेष प्रकार की कापियाँ श्री अमरचंद होमब्रेड-मेरठ के सौजन्य से प्रकाशित हुईं। ८ अक्टूबर को लेखन पुस्तिका का विमोचन श्री आनंद प्रकाश जैन (सौरम वाले)-दिल्ली ने किया। पुन: तत्काल ही बैंक कार्यालय से कापियों का वितरण प्रारंभ हो गया। महामंत्र लिखने के इच्छुक नर-नारियों ने दो घंटे में ही १ हजार कापियाँ लेकर लेखन कार्य का शुभारंभ तीर्थक्षेत्र से ही कर दिया।
इन कापियों में बैंक के साथ मंत्र लेखन के समस्त नियम और उद्देश्य लिखे हैं तथा लेखकों को हीरक पदक, स्वर्ण पदक और रजत पदक से सम्मानित करने की योजना भी है। इन योजनाओं का लाभ प्रत्येक प्रान्त के नर-नारी आबाल-वृद्ध उठा रहे हैं। अन्य इच्छुकजन जम्बूद्वीप स्थल पर बने स्थाई बैंक से सम्पर्क करें।
प्र्नेताजी का दो महामहोत्सव में आने का सुखद संयोग-
सभा के मध्य स्वस्ति श्री पीठाधीश क्षुल्लक मोतीसागर महाराज ने आज के संदर्भ में जम्बूद्वीप महामहोत्सव का वैशिष्ट्य बताते हुए कहा कि ‘‘चौधरी अजित सिंह जी का यह परम सौभाग्य ही है, जो वे दुबारा आज पूज्य माताजी का आशीर्वाद प्राप्त करने पधारे हैं। आज से पाँच वर्ष पूर्व सन् १९९० में भी जम्बूद्वीप के प्रथम महामहोत्सव में आप केन्द्रीय उद्योगमंत्री के रूप में पधारे थे और आज पुन: उसी महामहोत्सव में आना एक सुखद संयोग ही मानना पड़ेगा। भविष्य में भी वे जम्बूद्वीप स्थल पर पधारकर पूज्य माताजी का आशीर्वाद ग्रहण करें, यही उनके उज्ज्वल भविष्य के लिए मेरा शुभाशीर्वाद है।’’
प्र्मुख्य अतिथि श्री अजित सिंह का भाषण-
पूज्यनीया माता ज्ञानमती जी, इस जम्बूद्वीप महोत्सव के लिए देश के कोने-कोने से आये हुए श्रद्धालुजन!
यह मेरे लिए अपार हर्ष का विषय है कि मैं जम्बूद्वीप के इस महामहोत्सव के शुभ अवसर पर आपसे बातचीत कर रहा हूँ। इससे पहले भी वर्ष १९९० में इस महामहोत्सव में मैं आप लोगों के बीच आ चुका हूँ। मैं इस महामहोत्सव समिति के प्रति अपना आभार प्रकट करता हूँ जिन्होंने इतने बड़े पैमाने पर इस समारोह का आयोजन किया और मुझे आपसे दो शब्द कहने का मौका दिया। ऐतिहासिक नगरी हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप के नाम से जो विकास किया गया है, वह मुझे काफी लुभावना लगा। यहाँ के मंदिर, भवन, प्रतिमाएँ और पूरा क्षेत्र बहुत ही सुन्दर रूप से विकसित किया गया है। जम्बूद्वीप की चर्चा हमारे प्राचीन साहित्य में बार-बार मिलती है और इसका मतलब न केवल हमारे देश से बल्कि पूरी पृथ्वी से है। हस्तिनापुर हमारे देश का सर्वप्राचीन नगर है। यह नगर हमारे इतिहास, संस्कृति एवं धर्म से जुड़ा हुआ है।
भारत एक धर्मप्रधान देश रहा है लेकिन हमारे देश में धर्म का अर्थ किसी संकीर्ण विचार से नहीं है बल्कि हमेशा मानव धर्म या मानव कल्याण से रहा है। हमारे शास्त्रों में धर्म की चर्चा समाज को धारण करने वाली शक्ति के रूप में हुई है। ‘‘धारयते इति धर्म:’’ अर्थात् धर्म वह शक्ति है जो समाज को जोड़ती है, संगठित करती है व एक सूत्र में बांधती है। आज जबकि समाज में विघटन की शक्तियाँ सक्रिय हैं, सही अर्थों में धार्मिक भावना का विकास अति आवश्यक है और जैनधर्म जो मानवता व अहिंसा पर विशेष जोर देता है, सामाजिक एकता के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। जैन विचारधारा हमारे देश की बहुत पुरानी विचारधारा है। भगवान महावीर से पहले इसमें २३ तीर्थंकर हो चुके हैं। जैन मत भारतीय समाज में चल रहे जाति-पाति के भेदभाव के विरुद्ध रहा है। इसने महिलाओं को हमेशा से ही सम्मान दिया है। इसके अनुसार आदमी बड़ा व छोटा अपने कर्मों से होता है और छोटे से छोटा आदमी भी अच्छे कर्मों के बल पर अपने जीवन को सुधार सकता है। सम्यक् आचरण को जैनदर्शन में मूल सिद्धान्त के रूप में माना गया है।
जैनमत में मोक्ष को सांसारिक और आध्यात्मिक ऊँचाई हासिल करने के लिए बाहरी दिखावे और कर्मकाण्ड की जगह पर आचरण की सभ्यता पर बल दिया है। भगवान महावीर ने व्यक्तिगत, सामाजिक और आध्यात्मिक उद्धार के लिए अपनी आत्मा को, अपने मन को, शुद्ध, सरल बनाने पर बल दिया है। जैनधर्म में आध्यात्मिक उत्थान या मोक्ष प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन अर्थात् सच्चे विश्वास, सम्यग्ज्ञान यानि सच्चा ज्ञान, सम्यक्चारित्र यानी सही आचरण को कहा है। इसे जैनधर्म में त्रिरत्न कहा जाता है। सम्यक्् आचरण के लिए जैनमत में पाँच बुनियादी सिद्धान्त यानी पाँच महाव्रत हैं। जाहिर है कि इन पाँच महाव्रतों का जहाँ तक हो सके, अधिक से अधिक पालन किया जाये, तो हमारे समाज में पारस्परिक स्नेह व सामंजस्य की भावना पनप सकती है। शांति व अहिंसा का जो संदेश भगवान महावीर ने दिया, उसकी जरूरत आज हमें पहले से अधिक है जबकि हमारे चारों तरफ आज सैलाब दिखाई पड़ते हैं, कहीं मजहब को लेकर ,कहीं जातीय दंगों को लेकर।
जैनमत के अनुसार कण-कण में आत्मा का निवास माना है अर्थात् मनुष्यों के लिए ही नहीं, पेड़-पौधों के लिए भी हमारे दिल में अहिंसा की भावना होनी चाहिए। आज अनेक जंगल व पेड़-पौधे काटे जा रहे हैं, पक्षी व पशुओं की हत्या हो रही हैं, उससे हमारे माहौल में प्रदूषण पैâल गया है, पर्यावरण में असंतुलन आ गया है। ऐसे में मानवता की भावना होना हमारे लिए बहुत जरूरी है और जैन विचार मानने वाले आप लोगों का इसमें सहयोग अच्छी भूमिका अदा कर सकता है। यहाँ हम यह पाते हैं कि प्राचीनकाल से इस देश में बहुत सी विचारधाराओं ने, भ्रम ने जन्म लिया है तथा बहुत से गौण भी हो गये हैं। जैनधर्म हजारों साल बाद भी हमारे बीच में एक जीवित शक्ति है। इस देश के साहित्य, कला, संस्कृति, व्यापार व उद्योग को सुदृढ़ बनाने में जैनों का बड़ा योगदान है। पुराने समय से ही जैनियों में आम लोगों की भाषा है, जिसने कि पहले प्राकृत, अर्धमागधी, शौरसेनी आदि में अपने विचारों को प्रकट किया और आजकल हिन्दी, मराठी, गुजराती आदि सभी भाषाएँ जिस स्वरूप में हैं, उनमें जैन सम्प्रदाय का बड़ा योगदान है। कला के क्षेत्रों में बहुत से स्तूप, मूर्तियाँ खासकर श्रवणबेलगोला में गोम्मटेश्वर की मूर्ति, गुफा स्थापत्य जैनियों की देन है। व्यापार व उद्योग के क्षेत्र में जैनियों के योगदान को कौन नहीं जानता और इसीलिए जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में रेल लाईन बिछाने की बात जो हो रही थी, मेरा मानना है कि अगर उसमें आप जुट जायें तो सरकार की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। मैं फिर से आप लोगों का आभार प्रकट करता हूँ, हस्तिनापुर के विकास के लिए आप लोगों ने जो प्रयास किया है, उसकी सराहना करता हूँ और आशा करता हूँ कि यह जगह बड़े तीर्थ स्थल और पर्यटन स्थल के रूप में उभर कर आए और इसके लिए आप हमारा जो भी सहयोग चाहेंगे, उसके लिए हम तैयार हैं। पूज्य माताजी के चरणों में नमन, आप सबको धन्यवाद!
प्र्भगवान ऋषभदेव और अयोध्या तो इनके अन्तस में व्याप्त है-
मैंने अपने विनयांजलि वक्तव्य में कहा कि आकाश से ऊँचे आदर्श, पर्वत से कठोर तप और नदी सरिताओं से लम्बी कीर्तिपताका से युक्त व्यक्तित्व का नाम है-आर्यिका ज्ञानमती। इनके जीवन का एक-एक क्षण स्वर्णाक्षरों में अंकित होने वाला ऐतिहासिक पन्ना है। एक अंग्रेजी लेखक की ये पंक्तियाँ इनके जीवन पर पूर्णरूप से घटित होती हैं-
Count your night by stars, not shadows.
Count your life with smiles, not tears.
And with joy and every birthday.
Count your age by friends, not years.
अर्थात् इन्होंने अपने जीवन को मात्र वर्षों से नहीं, अलौकिक कार्यों से महान बनाने में एक मिशाल कायम की है।
प्र्मंत्री जी ने चरण प्रक्षालन का सौभाग्य लिया-
पारम्परिक व्यवस्थानुसार पूज्य माताजी के चरण प्रक्षाल-पिच्छिका परिवर्तन आदि की बोलियाँ प्रारंभ हुईं, उस समय माननीय श्री अजित सिंह जी की उत्कण्ठा को देखकर पूज्य माताजी के चरण प्रक्षालन करने का सुअवसर उन्हें प्रदान किया गया। माननीय मंत्री जी दूध और जल से पूज्य माताजी के पावन चरण धोकर हर्षित हुए एवं उस चरणोदक को मस्तक पर लगाया।
इसी क्रम में पिच्छिका प्रदान करने का सौभाग्य श्री कमल कुमार जैन-मौसम विहार-दिल्ली को प्राप्त हुआ। उन्होंने सपरिवार मंच पर आकर पूज्य माताजी के करकमलों में नवीन पिच्छी प्रदान कर उनकी पुरानी पिच्छी प्राप्त की। जैन साधु के संयम का उपकरण पिच्छी है, यह जिन्हें प्राप्त होती है, उनके घर में सदैव धन-धान्य की वृद्धि होती है।
इसी संदर्भ में एक प्रत्यक्ष घटित अतिशय याद आ रहा है कि १०-१२ वर्ष पूर्व एक सज्जन ने स्वप्न देखा कि ज्ञानमती माताजी की पिच्छी में से कीमती रत्न झड़ रहे हैं फिर उन्होंने स्वप्न के अनुसार एक दिन हस्तिनापुर आकर माताजी से उनके हाथ की पुरानी पिच्छी लेकर नई प्रदान कर गए पुन: उनके साथ वास्तव में चमत्कार हो गया कि पिच्छी घर में पहुँचते ही एक नये पेट्रोलपम्प को खरीदा और कुछ ही दिनों में वे कई पेट्रोल पम्प के मालिक बन गए। इस घटना के पश्चात् वे आज भी कहते हैं कि माताजी की पिच्छी से तो सचमुच रतन ही बरसते हैं। दरअसल जिस पिच्छिका से साधुजन सदा समस्त जीवों की रक्षा करते हैं, उसे हाथ में लेकर सामायिक-प्रतिक्रमण तथा न जाने कितने मंत्रों का जाप्य आदि करते हैं, उसमें ऐसे चमत्कार प्रगट हो जाना कोई अतिशयोक्ति की बात नहीं है।
जन्मजयंती के इस पावन प्रसंग पर शौच का उपकरण ‘कमण्डलु’ प्रदान किया श्री कमलचंद जैन, खारीबावली-दिल्ली ने। ज्ञान का उपकरण ‘शास्त्र’ भेंट करने के लिए श्री राजकुमार जैन ‘वीरा बिल्डर्स’-दिल्ली वाले पधारे और कमलाकार आरती में सजे ६२ दीपकों से आरती उतारी-श्री मनोज कुमार जैन (मेरठ) सपरिवार ने, तब पूज्य ज्ञानमती माताजी की जयजयकारों से वातावरण गूंज उठा।
प्र्सम्पूर्ण समारोह की आधारशिला गणिनी आर्यिका श्री का देशवासियों के लिए पावन संदेश-
‘‘ॐ नम: सिद्धेभ्य:’’ हमारे विद्वान् और भक्तगण शायद यह भूल जाते हैं कि आज मेरा ६२वाँ जन्मदिन नहीं, बल्कि ४३वाँ संयमदिवस है। ६२ वर्ष पूर्व तो शरदपूर्णिमा को मेरे इस नश्वर शरीर का जन्म हुआ था। खैर! संयम धारण करने वाले संयमियों का सम्मान करना हमारे देश की परम्परा रही है और इसके लिए आचार्यों ने कहा भी है-‘‘देवा वि तस्स पणमंति, जस्स धम्मे सया मणो’’ अर्थात् जिसके हृदय में धर्म विद्यमान है, देवता भी उसको नमस्कार करते हैं। अत: आप लोग आज मेरी नहीं, धर्म की जयंती मना रहे हैं।
जैन रामायण में एक बहुत सुन्दर बात आई कि ‘‘जिस देश का आश्रय लेकर साधु तपस्या करते हैं, उस देश के राजा को साधु की तपस्या का छठा भाग पुण्य स्वयं प्राप्त हो जाता है।’’ इस आधार से हम लोगों की तपस्या का पुण्य हमारे राजनेता भी ले रहे हैं, इससे पुण्य का खजाना कम न होकर बढ़ता ही रहता है। अभी मंत्री अजित सिंह जी रत्नत्रय की सुन्दर व्याख्या कर रहे थे, सो इसी रत्नत्रय को धारण करके वे अपनी आत्मा को अजित पद की प्राप्ति करावें, यही उनके लिए मेरा मंगल आशीर्वाद है।
प्र्जाति संंगठन पर बल-
आज के इस प्रसंग में मुझे एक बात और कहनी है कि अभी कुछ दिनों से चर्चा सामने आई है कि सरकार ने जैनियों को अल्पसंख्यक की श्रेणी से अलग कर दिया है। यह एक विषय बन गया है कि सरकार में जैनियों की इतनी उपेक्षा क्यों है? इन सबका मूल कारण है हमारी संगठन शक्ति की कमी। हम सबको संगठित होकर कदम उठाना चाहिए क्योंकि जब अखिल भारतीय स्तर की संस्थाएँ इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठा रही हैं, तब जनता की आवाज ही सरकार तक जानी चाहिए और अजित सिंह जैसे नेताओं के माध्यम से अपनी बात सरकार को पहुँचाएं तथा यदि इसमें भी सफलता न मिले तो आन्दोलन करें, क्योंकि जैनी अहिंसक हैं किन्तु कायर नहीं हैं।
इसके साथ एक उपाय मेरी समझ में और आया है जिसे मैं कई सभाओं में कह चुकी हूँ कि जैनधर्म एक प्राकृतिक धर्म है न कि जाति विशेष है। जैनधर्म पालन करने वालों की ८४ जातियाँ पुरानी फूलमाल पच्चीसी में पढ़ी जाती थीं। अग्रवाल, खण्डेलवाल, पल्लीवाल, बघेरवाल, पोरवाड, लमेचू, परवार, गोलालारे आदि सभी जातियों का अपना अस्तित्व है, ये सभी किसी न किसी रूप में अनादि हैं। काल के अनुसार केवल उनके नामों में कुछ परिवर्तन हो जाता है। जैसे आम, गुलाब, गेहूँ, चावल आदि में अनेक जातियाँ होती हैं, वैसे ही ८४ जातियाँ जैनियों की मानी गई हैं। इनमें से कई जातियों के सशक्त संगठन बने हुए हैं किन्तु अभी कई जातियाँ अपने संगठन में पीछे हैं सो प्रत्येक जाति को अपने-अपने संयोजक आदि बनाकर जातीय संगठन मजबूत करना चाहिए तथा राष्ट्रीय जनगणना में सभी को जैन अवश्य लिखना चाहिए किन्तु लोग अपने गोत्र कासलीवाल, सेठी, छाबड़ा, पाण्ड्या आदि को ही प्रधान कर देते हैं, इससे उनके नाम में जैनत्व नहीं झलकता है अत: यदि गोत्र प्रमुख करें तो उसके बाद जैन शब्द जरूर लिखें और अपना संगठित स्वरूप सरकार के समक्ष रखकर अल्पसंख्यक की श्रेणी प्राप्त करें।
जम्बूद्वीप महामहोत्सव में यहाँ पर अनेक धार्मिक और शैक्षणिक कार्यक्रम सम्पन्न हुए हैं। उन सबकी पुण्यवर्गणाएँ सारे विश्व में पैâलकर सुख-शांति-समृद्धि और क्षेम को स्थापित करेंगी। इसके साथ ही समारोह को सम्पन्न करने वाले, उसमें भाग लेने वाले, अनुमोदना देने वाले सभी लोग असीम पुण्य के भागी बनें, सबका कल्याण हो, यही मेरा आप सबके लिए मंगल आशीर्वाद है।
इस प्रकार शरद पूर्णिमा की अमृतमयी बेला में देश की जनता ने पूनों के चाँदस्वरूप पूज्य चारित्रचन्द्रिका गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के दीर्घ एवं स्वस्थ जीवन की मंगल कामना की तथा पूज्यश्री का अमृतमयी आशीर्वाद ग्रहण किया पुन: देर रात तक आरती-भजन-नृत्य-संगीत का कार्यक्रम चलता रहा, भक्तगण अपनी भक्ति प्रदर्शित करते रहे और माताजी नभ के चन्द्रमा की साक्षी में अपना ज्ञान परिमार्जित करती रहीं। देखते ही देखते घड़ी में ज्यों ही ९ बजकर १५ मिनट हुए, तुरंत असली जन्म की सूचना देते हुए अवध से आए नर-नारियों ने घंटे, थाल और ढोल-मंजीरे बजाने शुरू कर दिए। महिलाओं ने बधाई गीत गाए, बालिकाओं ने मंगल गान गाए और पुरुषों ने अपने विनयभाव प्रस्तुत किए। इस प्रकार पूर्ण चाँदनी को पैâलाकर पूनों के चाँद ने अपनी सुनहरी आयु का नया अध्याय खोल दिया।
इस प्रकार विभिन्न कार्यक्रमों के मध्य वर्षायोग के ४ महीने कब व्यतीत हो गए, पता ही नहींr चला। आखिरकार कार्तिक कृ. अमावस्या को दीपावली पर्व के साथ ही चातुर्मास समापन की घड़ी भी आ गई। कमल मंदिर में भगवान महावीर निर्वाणोत्सव के अवसर पर आयोजित निर्वाणलाडू कार्यक्रम के साथ ही पूज्य माताजी ने शास्त्रोक्त विधि द्वारा चातुर्मास समापन की घोषणा कर दी।
-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी
तीर्थ अयोध्या की अब नई पहचान बनेगी।
रत्नमूर्तियों से जग में अमर नई क्रांति बढ़ेगी।।टेक.।।
जरा कल्पना करो तृतीय काल वैâसा था।
इन्द्र रचित ऋषभदेव प्रभु का महल वैâसा था।
उसी महल के निर्माण से नव क्रांति बढ़ेगी।।
तीर्थ अयोध्या…..।।१।।
प्रथम चक्रवर्ति भरत जी का युग महान है,
इनके नाम से ही देश का भारत ये नाम है।
भरत प्रभु की मूर्ति से भी बहुत शान बढ़ेगी।।
तीर्थ अयोध्या…..।।२।।
तीनलोक की रचना में स्वर्ग-नरक दिखेंगे,
पुण्यपाप से ये मिलते भक्त सबक सीखेंगे।
विश्वशांति जिनालय से जग में शांति बढ़ेगी।।
तीर्थ अयोध्या…..।।३।।
इक सौ एक पुत्र ब्राह्मी-सुन्दरी यहीं जन्मीं,
गणिनी ज्ञानमती प्रेरणा से मूर्तियाँ बनीं।
‘‘चन्दनामती’’ जिनधर्म की अब शान बढ़ेगी।।
तीर्थ अयोध्या…..।।४।।