-गणिनी ज्ञानमती
-शंभु छंद-
पृथ्वी से सात शतक नब्बे, योजन ऊपर ज्योतिष सुर हैं।
रवि शशि ग्रह नखत और तारे, ये पाँच भेद ज्योतिष सुर हैं।।
सबके विमान में जिनमंदिर, मणिमय शाश्वत जिनप्रतिमायें।
उनको मैं भक्ती से वंदूँ, ये मोक्षमार्ग को दिखलायें।।१।।
–गीता छंद–
जय जय जिनेश्वर धाम जग में, इंद्र सौ से वंद्य हैं।
जय जय जिनेश्वर मूर्तियां, चिंतामणी शुभ रत्न हैं।।
जय जय गणाधिप साधुगण, नित ध्यावते हैं चित्त में।
जय भव्य पंकज बोध भास्कर, मूर्तियां रवि बिंब में।।२।।
इस भू से इकतिस लाख साठ हजार मील सुगगन में।
तारा विमान सुशोभते नित, घूमते हैं अधर में।।
बत्तीस लाख सुमील ऊपर, रवि विमान सदा रहें।
पैंतीस लाख सुबीस सहस, सुमील पे चंदा रहें।।३।।
नक्षत्र पैंतीस लाख छत्तिस, सहस मीलों पे रहें।।
बुध लाख पैंतिस सहस बावन, मील पे भ्रमते कहें।।
फिर लाख पैंतिस सहस चौंसठ, मील पे ग्रह शुक्र हैं।
पैंतीस लाख सहस छियत्तर, मील पर गुरु बिंब हैं।।४।।
मंगल सुपैंतिस लाख अट्ठासी सहस ही मील पे।
शनि ग्रह सुछत्तीस लाख मीलों के उपरि अति उच्च पे।।
चित्रा धरा से सात सौ, नब्बे से नौ सौ योजनों।
तक एक सौ दस योजनों में, ज्योतिषी जग है भणों।।५।।
शशि सूर्य ग्रह नक्षत्र तारा, के विमानहिं चमकते।
ये अर्ध गोलक सम इन्हीं में, सुर नगर में सुर बसें।।
सबसे बड़े शशि बिंब तारा, के विमान लघू रहें।
त्रय सहस इक सौ सयेंतालिस, मील कुछ अधिकहिं कहें।।६।।
ये बड़े हैं तारा लघु, दो सौ पचासहिं मील के।
इनमें बने हैं महल उनमें, देवगण रहते सबे।
ये देव देवी मनुज सम, अति रूपवान् वहां रहें।
इनके विमानहिं चमकते, दिन रात इनसे बन रहें।।७।।
बस पाँच सौ दस सही, अड़तालिस बटे इकसठ कहे।
योजन महा यह जानिये, इनका गमन का क्षेत्र है।।
इसमें गली इकसौ तिरासी, सूर्य की मानी गर्ईं।
पंद्रह गली हैं चंद्र की, दो पक्ष में विचरें यहीं।।८।।
इन सब विमानहिं मध्य में, उत्तुंग स्वर्णिम कूट हैं।
उन पर जिनेश्वर भवन शाश्वत, शोभते अति पूत हैं।।
सब में जिनेश्वर बिंब इकसौ—आठ इक सौ आठ हैं।
जो देवगण इनको जजें नित, भजें मंगल ठाठ हैं।।९।।
जो नर बहुत विध तप तपें, बहु पुण्य संचय भी करें।
सम्यक्त्वनिधि नहिं पा सकें, वे ही यहां पर अवतरें।।
जिनदर्श करके तृप्त हों, जातिस्मृती वृष श्रवण से।
जिन पंचकल्याणक महोत्सव, देखते अन विभव से।।१०।।
सम्यक्त्वलब्धी प्राप्त कर, निज में मगन जिन भक्त हों।
भव पंच परिवर्तन मिटा, कुछ ही भवों में मुक्त हों।।
सम्यक्त्वनिधि अनुपम निधी, जिन भक्त ही करते सुलभ।
सुख भोग कर नर तन धरें फिर, आत्म निधि उनको सुलभ।।११।।
धन धन्य है यह शुभ घड़ी, धन धन्य जीवन सार्थ है।
जिन वंदना का शुभ समय, आया उदय में आज है।।
जिन वंदना से आज मेरे, चित्त की कलियां खिलीं।
मैं ‘ज्ञानमति’ विकसित करूँ, अब रत्नत्रय निधियां मिलीं।।१२।
-दोहा-
ज्योतिर्वासि विमान हैं, पाँच भेद श्रुत सिद्ध।
सबके जिनमंदिर नमूॅँ, मिले स्वात्मसुख नित्त।।१३।।