सत्येन्द्र कुमार जैन , व्यावहारिक भू-विज्ञान विभाग,
डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (म.प्र)
निवास: विद्या-विला, १८, नेमीनगर, कॉलोनी, दमोह (म.प्र.) ४७०६६१
सारांश
जैन संस्कृत वांग्मय में भू-विज्ञान विषयक कतिपय शाखाओं जैसे भौतिक भू-विज्ञान, भू-आकृति-विज्ञान, शैल विज्ञान, खनिज-विज्ञान, भू-जल विज्ञान आदि का विभिन्न रूपों में वर्णन मिलता है। जैनागम के अनुसार ‘‘लोक’’ अनादि और अकृत्रिम है। यह किसी वाह्य शक्ति के द्वारा विनिर्मित एवं संचालित नहीं है। लोक, जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल इन छ: द्रव्यों से व्याप्त है। इसके बाह्य क्षेत्र को अलोक कहते हैं। नेमिचन्द्र सिद्धांतिकदेव ने लोक का आधार पैर फैलाए कमर पर हाथ रखे खड़े हुए व्यक्ति के समान बतलाया है। आचार्य माघनंदी ने मध्यलोक में जम्बूद्वीप, लवण-समुद्र आदि असंख्य द्वीपों एवं समुद्रों का वर्णन किया है। मध्यलोक में ढाई द्वीप और दो समुद्रों तक मनुष्य क्षेत्र है। आचार्य उमास्वामी एवं यतिवृषभाचार्य ने भी मध्यलोक तथा विशेषकर उसके मध्य स्थित जम्बूद्वीप तथा उसमें स्थित क्षेत्र, नदी, पर्वत आदि का विस्तृत वर्णन किया है। आचार्य नेमीचन्द्र सिद्धान्तिकदेव ने मध्यलोक के जम्बूद्वीप स्थित भरत क्षेत्र के पर्वत आदि का सविस्तार वर्णन किया है। मूलाचार ग्रन्थ में प्रथ्वी के छत्तीस भेद बतलाते हुए कई प्रकार के खनिजों और शैलों का वर्णन किया गया है। तिलोयपण्णत्ती ग्रन्थों में पृथ्वी के खर भाग में अनेक प्रकार की धातुओं तथा मणियों के उत्पत्ति-स्थानों का वर्णन मिलता है। जैन वांगमय में जल को जलाकायिक जीव के रूप में परिभाषित करते हुए जल और जल-जीवों की रक्षा करके को कहा गया है। मूलाचारादि ग्रन्थों में ओस, हिम, कुहरा, छोटी एवं मोटी बूँदें, शुद्ध जल और घन-जल के रूप में जल के भेद किए गए हैं। पृथ्वी से संबंधित समस्त ज्ञान ही ‘भू-विज्ञान’ या भू-गर्भ शास्त्र’ कहलाता है। उपलब्ध समस्त ज्ञान की सहायता से पृथ्वी के रहस्यों को जानने का निरंतर प्रयास ही भू-विज्ञान का आधार है। भू-विज्ञान में न केवल पृथ्वी के मूल तथ्यों का वर्णन है। वरन उन सभी तथ्यों को सिद्धान्तों के आधार पर प्रमाणित करने का प्रयास भी निहित है। अति प्राचीन काल से ही मनुष्य ने अपने सुख, ऐश्वर्य तथा सुरक्षा के लिए कई खनिज और शैलों का उपयोग किया है। अत: अति प्राचीनकाल से ही भू-विज्ञान की उत्पत्ति मानी जा सकती है। प्रारंभिक अवस्था में भूपर्पटी की ऊपरी सतह पर ही मानवोपयोगी खनिज एवं शैल सरलता से उपलब्ध होते रहे परन्तु धीरे-धीरे सहज ही उपलब्ध इन उपयोगी खनिज एवं शैलो का भंडार घटने से मनुष्य को इनके विशिष्ट गुणधर्मों के विषय में सोचने की आवश्यकता प्रतीत हुई और इसी समय यथार्थ रूप में ‘भू-विज्ञान’ की नींव पडी। मनुष्य के द्वारा क्रमश: इन उपयोगी खनिज एवं शैलों के विषय में अधिकाधिक ज्ञानर्जन के प्रयास के फलस्वरूप नए-नए तथ्य तथा पृथ्वी के रहस्य भी क्रमश: उद् घाटित होते गए और भू-विज्ञान धीर-धीरे विकसित एवं पल्लवित होता गया। जैन धर्म में ऐसे किसी ईश्वर की मान्यता नहीं है, जो जगत-कर्ता, जगत-पालक और जगत-संहारक हो। वस्तुत: मनुष्य अनंत क्षमताओं का कोश है, उसमें ईश्वरत्व का वास है। मनुष्य अपनी आत्मशक्ति को पहचानकर अपने ऊपर पड़े सांसारिक वासनाओं, मोह-माया और कर्मों के सधन आवरणों और बाधाओं कर्मों को दूर कर मनुष्यत्व के चरमशिखर पर पहूँच जाता है। सर्वथा निर्दोष, निर्विकार और शुद्धता की स्थिति प्राप्त कर मनुष्य ही सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, ईश्वर, परमात्मा, शुद्ध और बुद्ध बन जाता है। जैनागम मूलत: द्वादशांगात्मक है। यह सर्वज्ञ वाणी पर आधारित है। सम्पूर्ण जैनागम चार अनुयोगों-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग में विभक्त है। प्राचीन जैनग्रन्थों की रचना मूलरूप से प्राकृत भाषा में हुई थी जिनकी प्राकृत एवं संस्कृत टीकायें विभिन्न जैनचार्यों ने की है। इनमें दिगम्बर जैनचार्यों उमास्वामी, समन्तभद्र, नेमिचन्द्र, माघनंदि, पूज्यपाद, यतिवृषभ एवं श्वेताम्बर जैनाचार्यों के नाम परिगणित किए जा सकते है। जैनागम के ‘‘करणानुयोग’‘ में तीन लोक-अधोलोक, मध्यलोक और ऊध्र्वलोक का विस्तृत वर्णन किया गया है। नरक, द्वीप, समुद्र, कुलाचल, सुमेरूपर्वत, देवलोक आदि इसके प्रतिपाद्य हैं। इस अनुयोग में प्रतिपादित नरक-स्वर्ग और भूगोल-खगोल संबंधी समस्त विवरण आस्था के विषय हैं, क्योंकि नरक और स्वर्ग परोक्ष है। वे हमारे इंद्रिय-ज्ञान के गम्य नहीं हैं। इसी प्रकार द्वीपों, समुद्रों, सूर्य और चन्द्रमा आदि का समस्त भौगोलिक और खगोलीय कथन भी अत्यंत प्राचीन है। प्रत्यक्ष होने से केवल इस पृथ्वीमंडल की रचना तो सर्वसम्मत हैं परन्तु अन्य बातों का विस्तार जानने के लिए अनुमान ही एक मात्र आधार है। यद्यपि आधुनिक यन्त्रों से इसके अतिरिक्त कुछ अन्य भूखंड़ों का भी प्रत्यक्ष करना संभव है पर असीम लोक की अपेक्षा वह किसी गणना में नहीं हैं। यन्त्रों से भी अधिक विश्वस्त योगियों की सूक्ष्मदृष्टि है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखने पर लोकों में गमनागमन के रूप में यह सब कथन व्यक्ति की वैचारिक उन्नति व अवनति का प्रदर्शन मात्र है। एक स्वतंत्र विषय होने के कारण उसका दिग्दर्शन यहाँ कराया जाना संभव नहीं है। आज तक भारत में में भूगोल का आधार वह दृष्टि ही रही है। जैन, वैदिक व बौद्ध आदि सभी दर्शनकारों ने अपने-अपने ढंग से इस विषय का स्पर्श किया है और आज के आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी। सभी की मान्यताएँ भिन्न-भिन्न होते हुए भी कुछ अंशों में मिलती हैं। जैन व वैदिक भूगोल काफी अंशों मिलता हैं। यद्यपि वर्तमान भूगोल के साथ कहीं-कहीं मेल बैठता दिखाई नहीं देता परन्तु यदि विशेषज्ञ चाहें तो इस विषय की गहराइयों में प्रवेश करके आचार्यों के प्रतिपादन की सत्यता सिद्ध कर सकते हैं। वर्तमान मे भू-विज्ञान में एकत्रित वृहत् ज्ञान को सरलता की दृष्टि से कई शाखाओं में विभक्त कर दिया गया है। यथा भौतिक भू-विज्ञान संरचना भू-विज्ञान , खनिज विज्ञान , शैल विज्ञान स्तरित शैल विज्ञान , जीवाश्म विज्ञान , आर्थिक भू-विज्ञान तथा व्यावहारिक भू-विज्ञान , आदि भू-विज्ञान की प्रमुख शाखाएँ हैं। प्रस्तुत आलेख में जैन संस्कृत वांगमय में वर्णित भू-विज्ञान विषय की कुछ शाखाओं पर विचार किया गया है।
जैन संस्कृत वांगमय में वर्णित भौतिक भू -विज्ञान एवं भू- आकृति विज्ञान
यह पृथ्वी से संबंधित मूल समस्याओं जैसे -उत्पत्ति, आयु, आंतरिक रचना आदि से तथा समस्त बाह्य एवं आंतरिक प्राकृतिक शक्तियों द्वारा भू-धरातल पर उत्पन्न परिवर्तनों से संबंधित है।भौतिक भू – विज्ञान में नदी, महासागर, समुद्र, झील, भूमिगत जल, हिमनद, पवन, ज्वालामुखी इत्यादि विभिन्न कारकों द्वारा भू-धरातल पर उत्पन्न परिवर्तनों का विशिष्ट अध्ययन किया जाता है।भू-पटल पर उत्पन्न परिवर्तनों से संबंधित उपभाग को ‘परिवर्तनात्मक भू-विज्ञान’ (Dब्हaस्ग्म्aत् उादत्दुब्), स्थलाकृति से संबंधित उपभाग को भू-आकृति विज्ञान (उादस्दrज्प्दत्दुब्) तथा सौर मण्डल से संबंधित उपभाग को ब्रह्माण्ड विज्ञान (ण्देस्दत्दुब्) कहते हैं।, दृश्यमान जगत या विश्व को लोक कहते हैं। जैनागम के अनुसार यह लोक जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों से व्याप्त है। आकाश द्रव्य के जितने क्षेत्र में उक्त छहों द्रव्य पाए जाते हैं, उसे लोक कहते हैं। उससे बाहर के आकाश को अलोक कहते हैं। लोक न तो किसी के द्वारा विर्नििमत है और न ही संचालित। यह अनादि, अनिधन और अकृत्रिम हैं।२ इस मान्यता के प्रमाण के लिए (ग्यारहवी सदी ईसवी में हुए) दिगम्बर जैनाचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धांतिदेव’ ने ‘वृहद्द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ में ‘लोक’ की स्थिति को स्पष्ट करते हुए लिखा है-‘‘अनंतानंत आकाश के बिल्कुल मध्य के प्रदेशों में घनोदधि, घनवात और तनुवात नाम तीन पवनों से वेष्टित (घिरा) हुआ, अनादि अनंत-अकृत्रिम-निश्चल-असंख्यात प्रदेशी लोक है’’ उसका आकार बतलाते हुए लिखा है कि ‘नीचे मुख किए आधे मृदंग के ऊपर पूरा मृदंग रखने पर जैसा आकार होता है वैसा आकार लोक का है परन्तु मृदंग गोल है और लोक चौकोर है यह अन्तर है अथवा पैर पैâलाए कमर पर हाथ रखे, खड़े हुए मनुष्य का जैसा आकार होता है, वैसा लोक का आकार है’। इस आलेख में तीनों लोेकों की व्याख्या न करके विषयानुरूप मध्य लोक और उसमें पाए जाने वाले क्षेत्र, पर्वत, नदियों, द्वीपों और समुद्रों के बारे मेंं ही चर्चा की जा रही हैं। आचार्य माघनन्दि (१२ वीं शताब्दी ईसवी) ने अपने ग्रंथ ‘शास्त्रसार-समुच्चय’ में ‘मध्यलोक’ का वर्णन करते हुए लिखा है कि ‘मध्यलोक में जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र आदि असंख्यात् द्वीप और समुद्र हैं। उसमें ढाई द्वीप और दो समुद्रों तक मनुष्य क्षेत्र हैं। ढाई द्वीप में पन्द्रह कर्मभूमियाँ है। तीस भोगभूमियाँ हैं। छियानवें कर्मभूमियाँ हैं, ३४ वर्षघर या कुलाचल पर्वत हैं, कुल १३० सरोवर हैं, पाँच मेरू पर्वत है। सत्तर महानदियाँ हैं। यमक गिरि भी बीस है। एक हजार कनकगिरि हैं। चालीस दिग्गजेन्द्र पर्वत हैं। सौ वक्षार पर्वत हैं। साठ विभंग नदियाँ हैं। एक सौ सत्तर विजयार्ध पर्वत हैं। एक सौ सत्तर वृषभगिरि है।’’ ‘तत्वार्थ सूत्र’ के प्रणेता आचार्य उमास्वामी (द्वितीय शताब्दी ईसवी) ने मध्यलोक विशेषकर उसके मध्य स्थित जम्बूद्वीप और उसमें स्थित क्षेत्र, नदी, पर्वत आदि का विस्तार से वर्णन किया है- ‘जम्बूद्वीप आदि शुभ नाम वाले द्वीप और लवणोद आदि शुभ नाम वाले समद्र हैं। वे सभी द्वीप और समुद्र दूने-दूने विस्तारवाले, पूर्व-पूर्व (पहले-पहले) को वेष्ठित करने वाले और वलय चूड़ी जैसे आकृति वाले वलय हैं।, लगभग इसी प्रकार का वर्णन जैन वांगमय के अंतर्गत करणानुयोग के प्राचीन ग्रंथ ‘तिलोयपण्णत्ती’ में श्री यतिवृषभाचार्य (द्वितीय शताब्दी ईसवी) ने किया है-‘‘सब द्वीप, समुद्र असंख्यात् और समवृत है। इनमें से पहला द्वीप, अंतिम समुद्र और मध्य में द्वीप समुद्र हैं। चित्रा पृथ्वी के ऊपर बहुमध्यभाग में एक राजू लम्बे-चौड़े क्षेत्र के भीतर एक एक को चारों ओर से घेरे हुए द्वीप व समुद्र स्थित हैं।सभी समुद्र चित्रा पृथ्वी को खंडित कर वङ्काा पृथ्वी के ऊपर और सब द्वीप चित्रा पृथ्वी के ऊपर स्थित हैं।’’ इन सब द्वीप-समुद्रों के बीच में जम्बूद्वीप है, जिसके बीच में मेरूपर्वत है, जो गोल है और एक लाख योजन विष्कम्भ वाला (ऊँचा) है इस जम्बूद्वीप में भरत, हैमवत् हरि, विदेह, रम्यक् हैरण्यवत् और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं। इन क्षेत्रों को अलग करने वाले और पूर्व-पश्चिम लम्बे ऐसे हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रूक्मी और शिखरी ये छह वर्षधर पर्वत हैं। ये छहों पर्वत क्रम से सोना, चाँदी, तपाया हुआ सोना, वैडूर्यमणि, चाँदी और सोना इनके रंग वाले हैं। ये मणियों से विचित्र पाश् र्ववाले तथा ऊपर और मूल में समान विस्तार वाले हैं। इनके ऊपर क्रम से पद्म, महापद्म, तिगिच्छ, केशरी , महापुण्डरीक ओर, पुण्डरीक-ये छह हृद (सरोवर) हैं। सात क्षेत्रों के मध्य में से गंगा-सिन्धु, रोहित-रोहितास्या, हरित्-हरिकान्ता, सीता-सीतोदा, नारी-नरकान्ता, सुवर्णकूला- रुपयकूला और रक्ता-रक्तोदा, ये सरितायें (नदियाँ बहती हैं। उपर्युक्त दो-दो नदियों में पहली-पहली नदी पूर्व समुद्र को गई हैं। शेष नदियाँ पश्चिम समुद्र को गई हैं। गंगा-सिन्धु आदि नदियाँ चौदह-चौदह हजार नदियों से वेष्ठित हैं। हिमवत् (हिमवान्) पर्वत पर स्थित पद्म नामक महाहृद (सरोवर) के पूर्व तोरण द्वार से, अर्धकोस प्रमाण गहरी और एक कोस अधिक छह योजन प्रमाण चौंडी गंगा नदी निकलकर उसी हितवत् पर्वत के ऊपर पूर्व दिशा में पाँच योजन तक जाती है; फिर वहाँ से गंगावूâट के पास दक्षिण दिशा को मुड़कर, भूमि पर स्थित कुण्ड में गिरती है। वहाँ से दक्षिण द्वार से निकलकर भरत क्षेत्र के मध्य भाग में स्थित तथा अपनी लंबाई से पूर्व पश् िचम समुद्र को छूने वाले विजयार्ध पर्वत की गुफा (खण्डप्रपात गुफा) से निकलकर, आर्यखण्ड के अर्धभाग में पूर्व को धूमकर पहली गहराई की अपेक्षा दसगुणी अर्थात् पाँच कोस गहरी और पहली चौड़ाई की अपेक्षा दसगुणी अर्थात् साढे बासठ् योजन चौड़ी गंगा नदी पूर्व समुद्र में प्रवेश करती है। इस गंगा की भाँति सिन्धु नामक महानदी भी उसी हिमवत् पर्वत पर पर विद्यमान पद्म हृद (सरोवर) के पश्चिम द्वार से निकलकर पर्वत पर ही गमन करके फिर दक्षिण दिशा को आकर विजयार्ध की गुफा (तिमिस्रा गुफा) के द्वार से निकलकर, आर्यखण्ड के अर्धभाग में पश्चिम की ओर मुडकर पश्चिम समुद्र में प्रवेश करती है। इस प्रकार दक्षिण दिशा को आई गंगा और सिन्धु दो नदियों से पूर्व पश् िचम लम्बे विजयार्ध पर्वत से भरत क्षेत्र के छह खण्ड हो जाते हैं।
जैनागम में प्रतिपादित खनिज विज्ञान और शैल विज्ञान
खनिज विज्ञान समस्त खनिजों के भौतिक, रसायनिक तथा प्रकाशीय गुणधर्मों के विवरण से उनकी उत्पत्ति, महत्व, उपस्थिति आदि से संबंधित है। भूपर्पटी के समस्त शैलों के भौतिक गुण, रासायनिक एवं खनिजात्मक संघठन, गठन तथा उनकी उपस्थिति के महत्व, उत्पत्ति इत्यादि से संबंधित ज्ञान को ‘शैल विज्ञान’ कहते हैं। जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रंथों में कई प्रकार के खनिज और शैलों के वर्णन पाये जाते हैं। आचार्य वट्टकेर (दूसरी शताब्दी ईसवी) ने ‘मूलाचार’ ग्रंथ में पृथ्वी के छत्तीस भेद बतलाए है (१) मिट्टी (२) बालू (रेत) (३) शर्वरा (कंकड) (४) उपल (पत्थर) (५) शिला (चट्टान) (६) लवण (नमक) (७) लोहा (८) ताँबा (९) रांगा (जस्ता) (१०) सीसा (११) चाँदी (१२) सोना (१३) हीरा (१४) हरिताल (१५) हिंगुल (१६) मैनसिल (मन:शिला) (१७) सस्यक (१८) अंजन (१९) प्रवाल (मूंगा) (२०) अभ्रक (२१) अभ्रबालू (२२) गोमेदमणि (२३) रूचकमणि (२४) अंकमणि (२५) स्फटिक मणि (२६) पद्मरागमणि (२७) चन्द्रप्रभमणि (२८) वैडूर्यमणि (२९) जलकान्तमणि (३०) वप्पकमणि (मरकतमणि) (३१) वकमणि (पुखरागमणि) (३२) मोचमणि (नीलमणि) (३३) मसार गल्लमणि। इसके अतिरिक्त ‘तिलोयपण्णत्ती’ ग्रन्थ में रत्नप्रभा पृथ्वी के खरभाग में अनेक प्रकार की धातुओं और मणियों के उत्पत्ति स्थानों का वर्णन मिलता है। अधोलोक में सबसे पहली रत्नप्रभा पृथ्वी है। उसके तीन भाग है- खर, पंक और अब्बहुल। इन तीनों भागों की मोटाई क्रमश: १६०००, ८४००० और ८०००० योजन प्रमाण है। इनमें से खरभाग नियम से सोलह भेदों से सहित है। ये सोलह भेद चित्रादिक सोलह पृथ्वीरूप हैं। इनमें से चित्रापृथ्वी अनेक प्रकार की है। यहाँ पर अनेक प्रकार के वर्णों से युक्त महीतल, शिलातल, उपपाद, बालू, शर्वरा, सीसा, चाँदी , स्वर्ण इनके उत्पत्ति स्थान, वङ्का , तथा अयस् (लोहा), ताँबा, त्रपु (रांगा), सस्यक (मणि विशेष), मन: शिला, हिंगुल (सिंगरफ), हरिताल, अंजन, प्रवाल, गोमध्यक, रूचक, अंक, अभ्रपटल, अभ्रबालुका, स्फटिकमणि, जलकान्तमणि, सूर्यकान्तमणि, चन्द्रप्रभमणि, वैडूर्यमणि, गेरू, चंदन, लोहितांक, वप्रक (मरकत), बकमणि, मोचमणि, (नीलमणि) और मसारगल्ल इत्यादि विविध वर्णवाली धातुएँ हैं, इसलिए इस पृथ्वी का ‘चित्रा’ इस नाम से वर्णन किया गया है। चित्रा पृथ्वी की मोटाई १००० योजन है। इसके नीचे क्रम से १४ अन्य प्रथ्वियाँ स्थित है वैडूर्य, लोहितांक, असार गलत, गोभेदक, प्रवाल, ज्यो तिरस अंजन अंजन मूल, अंक, स्फटिक, चन्दन, वर्चमत, बहुल शैल और पाषाण ये प्रथ्वियों के नाम है। इन प्रथ्वियों के नीचे एक पाषाण नाम की (सोलहवी) पृथ्वी है, जो रत्नशैल के समान है। इसकी मोटाई भी १००० योजन प्रमाण है। ये सब पृथ्वियाँ वेत्रासन के समान स्थित है।
जैन वांगमय मे उल्लिखित भू-जल विज्ञान
भूजल-विज्ञान व्यावहारिक भू-विज्ञान के अंतर्गत आता है। व्यावहारिक भू-विज्ञान भूगर्भशास्त्र के व्यावहारिक पक्ष से संबंधित हैं। औद्योगिक विकास के साथ-साथ खनिज एवं शैलों की उपयोगिता एवं महत्व में भी क्रमश: वृद्धि होती जा रही हैं अत: आधुनिक युग में व्यावहारिक भू-विज्ञान का महत्व भी इसी कारण बढ़ गया है। भू-भौतिकी भू-रसायन खनन भू-विज्ञान अभियांत्रिकी भू-विज्ञान समुद्र विज्ञान भौमजल विज्ञान् इत्यादि व्यावहारिक भू-विज्ञान के अंतर्गत आते हैं। जैन वांगमय में जल और जल में रहने वाले जीवों की रक्षा करने को कहा गया है। सामान्यत: जल दो प्रकार का होता है। भौम और अंतरिक्ष। जल को ‘शुद्धोतक’ कहा जाता है। उसके चार प्रकार है। (१) धारा जल (२) करक (ओला) जल (३) हिम जल और (४) तुषार जल। इनके अतिरिक्त ओस भी अंतरिक्ष जल है। भूम्याश्रित या भूमि स्रोतों में बहने वाला भौम जल कहलाता है। इस भौमजल को ‘उदक’ शब्द का प्रयोग किया गया है। उदक अर्थात् नदी, तालाबादि का जल, शिरा (झरनोें) से निकलने वाला जल। जो बादर-पर्याप्त अप्काय के जीव हैं, वे पाँच प्रकार कहे गये हैं – (१) शुद्धोदक (२) ओस (अवश्याय) (३) हरतनु (गीली भूमि से निकला वह जल जो प्रात: काल तृणाग्र पर बिन्दुरूप में दिखाई देता है) (४) महिका-(कुहासा-धुम्मस) और (५) हिम जैन वांगमय में जल को जलकायिक जीव के रूप में परिभाषित करते हुए-ओस, हिम, कुहरा, छोटी बूँदे मोटी बूँदे, शुद्धाजल और घनजल के रूप में भेद किए गए है।इन्हें जीव मानकर उनकी रक्षा करने को कहा गया है। नदी, सागर, सरोवर, कूप, झरना, मेघ से बरसने वाला, आकाश से उत्पन्न हुआ हिम-वर्फ रूप, कुहरा रूप, भूमि से उत्पन्न, चन्द्रकांत मणि से उत्पन्न, घनवात आदि का जल इत्यादि सभी प्रकार के जलकायिक जीवो का उपर्युक्त भेदों में ही अंतर्भाव हो जाता है।१२ इसी प्रकार जैन संस्कृत वांगमय में भू-विज्ञान विषय का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। इसे आधार मानकर विशेषज्ञों द्वारा अधिक अन्वेषण अपेक्षणीय है।
संदर्भ सूची
१. मुनि प्रमाणसागर-जैन तत्वविद्या,भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन,नई दिल्ली, २०००,पृष्ठ-१८
२. मुनि प्रमाणसागर-जैन तत्वविद्या,भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन,नई दिल्ली, २०००, पृष्ठ-५९
३. आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांतिदेव-वृहद् द्रव्यसंग्रह, पृष्ठ १२० अनन्तानंताकाश बहुमध्यप्रदेशे घनोदघिघनवात तनुवाताभिधानवायुत्रयवेस्टितानादिनिधता कृत्रिमनिश्चहासंख्यातप्रदेशो होकोऽस्ति। तस्याकार: कथ्यते-अधोमुखाई मुरजस्योपरि पूर्णे मुरजे स्थापिते या दृशाकारो भवति तादृशाकार:, पर किन्तु मुरजों वृत्तो लोकस्तु चतुस्कोण इति विशेष:। अथवा प्रसारितापादस्य कटितटन्यस्तहस्तस्य चोध्र्वस्थित पुरूषस्य यादृषाकारो भवति तादृश:।