जन्म-इसी कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में ऋषभदेव के द्वारा राजाधिराज पद पर स्थापित राजा सोमप्रभ राज्य करते थे, उनकी लक्ष्मीमती नाम की रानी थी। इन दोनों के ‘जयकुमार’ नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ तथा विजय कुमार आदि को लेकर चौदह पुत्र और भी उत्पन्न हुए। ये जयकुमार भरत चक्रवर्ती के सेनापति हुए थे। किसी समय राजा सोमप्रभ संसार-शरीर और भोगों से विरक्त होकर बड़े पुत्र जयकुमार को राज्य सौंपकर छोटे भाई श्रेयांस के साथ भगवान ऋषभदेव के समवसरण में दीक्षित हो गये। इधर जयकुमार पिता के पद पर आसीन होकर पृथ्वी का पालन करने लगे।
एक दिन राजा जयकुमार क्रीड़ा के लिए बाहर उद्यान में गये और वहाँ विराजमान शीलगुप्त नाम के महामुनि के दर्शन, पूजन आदि करके उपदेश श्रवण करके लौट रहे थे। उसी वन में साँपों का एक जोड़ा रहता था उसने भी राजा के साथ-साथ धर्म श्रवण कर दया धर्म का पान किया था। किसी समय प्रचंड वङ्का के पड़ने से उस जोड़े का सर्प शान्ति से मरा और नागकुमार जाति का देव हो गया। पुन: किसी समय वही राजा जयकुमार हाथी पर सवार होकर फिर उसी वन में गया और वहाँ अपने साथ-साथ धर्मश्रवण करने वाली ‘सर्पिणी’ को काकोदर नाम के किसी विजातीय सर्प के साथ देखकर बहुत ही कुपित हुआ तथा उन दोनों सर्प-सर्पिणी को धिक्कार देकर क्रीड़ा के कमल से ताड़ित किया। वे दोनों वहाँ से भागे किन्तु सैनिक लोगों ने लकड़ी तथा ढेलों से उसे बहुत मारा। दु:ख से व्याकुल हो पापी सर्प उसी समय मरकर गंगा नदी में ‘काली’ नाम का जल देवता हुआ। जिसे भारी पश्चाताप हो रहा है, ऐसी वह सर्पिणी हृदय में निश्चल धर्म को धारण कर मरी और अपने पहले के पति नागकुमार देव की स्त्री हो गई। वहाँ उसने अपने पति को जयकुमार द्वारा अपने मारने की सूचना दी। उसी समय नागकुमार देव पत्नी के अपमान का बदला चुकाने के लिए जयकुमार को सर्प बनकर काटने की इच्छा से जयकुमार के पास आया।
जयकुमार रात्रि के समय शयनागार में अपनी श्रीमती रानी से इस सर्पिणी के व्यभिचार की घटना सुना रहे थे। उसे सुनकर जयकुमार को मारने की इच्छा करने वाला वह नागकुमार अपने मन में कहने लगा-देखो! उस स्त्री ने मुझसे अपने पाप को छिपा लिया इसीलिए मैं पत्नी के मोह में आकर इसे मारने आया था अब इसके द्वारा धर्म शिक्षा प्राप्तकर मैं उसी सच्चे धर्म को धारण करूँगा, ऐसा सोचकर उस नागकुमार देव ने क्रोध रहित हो प्रगट होकर जयकुमार की अमूल्य रत्नों से पूजा करके स्तृति की और सारी घटना सुना दी। तत्पश्चात् अपने कार्य में मुझे स्मरण करना, ऐसा कहकर अपने स्थान को वापस चला गया।
स्वयंवर प्रथा-काशी देश की वाराणसी नगरी में राजा अकंपन राज्य करते थे उनके सुप्रभा नाम की रानी थी। इन दोनों के सुलोचना और लक्ष्मीमती नाम की दो कन्याएँ थीं। उस सुलोचना ने युवावस्था में श्री जिनेन्द्र देव की अनेक प्रकार की रत्नमयी प्रतिमाएँ बनवाई थीं और उनके सब उपकरण भी सुवर्ण के ही बनवाये। प्रतिष्ठा तथा तत्संबंधी अभिषेक हो जाने के बाद वह उन प्रतिमाओं की महापूजा करती थी। वह अरहंत स्तुति, मुनि भक्ति, पात्रदान आदि करती हुई विशुद्ध सम्यग्दर्शन को प्राप्त हो गई। किसी समय फाल्गुन महीने की अष्टान्हिका में विधिपूर्वक प्रतिमाओं की पूजा की, उपवास किया और फिर वह कृशांगी पूजा के शेषाक्षत देने के लिए सिंहासन पर बैठे हुए राजा अकंपन के पास गई। राजा ने भी उठकर हाथ जोड़कर विनयपूर्वक शेषाक्षत लेकर मस्तक पर रखे और कन्या को पारणा के लिए विदा दिया।राजा ने एक बार कन्या सुलोचना को यौवन अवस्था में देख मंत्रियों को बुलाकर विचार-विमर्श करके अनादि प्रसिद्ध स्वयंवर प्रथा का निर्णय किया और राजाओं को बुलाने के लिए चारों तरफ अपने दूत भेजे। यह सब समाचार अवधिज्ञान से जानकर विचित्रांगद नाम का देव जो कि पूर्वभव में राजा अकंपन का भाई था, सौधर्म स्वर्ग से आया और अकंपन महाराज से बोला-‘‘मैं पुण्यवती सुलोचना का स्वयंवर देखने के लिए आया हूँ।’’ पुन: राजा की आज्ञा लेकर उस देव ने सर्वतोभद्र नाम का बहुत सुन्दर स्वयंवर भवन बनाया और रत्न तोरणों से उसे सुसज्जित किया। उस स्वयंवर के समय से ही इस संसार में कन्यारत्न के सिवाय और कोई उत्तम रत्न नहीं है, यह बात प्रसिद्ध हो गई है। राजा अकंपन ने आगत अर्ककीर्ति आदि राजाओं को स्वयंवर शाला में ठहराया।
इधर रानी सुप्रभा ने कन्या को मंगल स्नान कराकर अरहन्त देव की पूजा कराई अनन्तर विवाहोचित वस्त्रालंकार से सजाकर स्वयंवर मंडप में भेज दिया। वहाँ स्वयंवर में अनेकों राजाओं को देखते हुए सुलोचना ने मेघस्वर जयकुमार के गले में वरमाला डाल दी। उसी समय उत्कृष्ट बाजों की ध्वनि होने लगी। नाथवंश के शिरोमणि राजा अकंपन ने कुरुवंश के तिलक जयकुमार को आगे करके नगर में प्रवेश किया।
उसी समय दुर्मर्षण नाम के दुष्ट पुरुष ने भरत के बड़े सुपुत्र अर्ककीर्ति को युद्ध के लिए उत्तेजित कर दिया, जिससे वहाँ बहुत ही भयंकर युद्ध शुरू हो गया, युद्धकुशल जयकुमार ने भी अनीति प्रिय अर्ककीर्ति को पकड़ लिया। यद्यपि अर्ककीर्ति का लोकोत्तर वंश था, चक्रवर्ती पिता थे, युवराज पद था, बहुत बड़ी सेना थी फिर भी उसे अन्याय के निमित्त से पराभव का दु:ख सहना पड़ा। अनंतर राजा अकम्पन ने सुलोचना का ब्याह करके अर्ककीर्ति को अनेक प्रकार से प्रसन्न करके अपनी ‘अक्षमाला’ नाम की कन्या ब्याह दी और जयकुमार के साथ भी संधि करा दी। इस युग में यह स्वयंवर विधि राजा अकम्पन से ही प्रसिद्ध हुई है। जयकुमार भी सुलोचना सहित विजयार्ध नामक हाथी पर सवार होकर अपने भाइयों के साथ हस्तिनापुर आने को उद्यत हुए, तब मार्ग में अयोध्या नगर जाकर भरत महाराज को प्रणाम करके उसकी प्रसन्नता को प्राप्त कर वापस हाथी
पर बैठकर गंगा नदी से आ रहे थे। वह हाथी पानी में चलने लगा उसी समय, दूसरे सर्प के साथ समागम करती हुई सर्पिणी को देखकर उन दोनों को जयकुमार के सेवकों ने मारा था, वह सर्प मरकर काली देवी हुआ था, उसने मगर का रूप धरकर उस हाथी को पकड़ लिया। हाथी को डूबते हुए देखकर सुलोचना ने पंच नमस्कार मंत्र का स्मरण किया और उपसर्ग की समाप्ति तक आहार तथा शरीर से ममत्व का त्याग कर दिया।१
इतने में गंगा देवी ने अपना आसन कंपित होने से सब समाचार जान लिये और किये हुए उपकार को मानने वाली वह देवी बहुत शीघ्र आकर कालिका देवी को डांटकर उन सबको किनारे पर ले आई और विक्रिया से गंगा तट पर एक सुन्दर भवन बनवाया, उसमें मणिमय सिंहासन पर सुलोचना को बैठाकर उसकी पूजा की और कहा कि तुम्हारे दिए हुए नमस्कार मंत्र से ही मैं गंगा की अधिष्ठात्री देवी हुई हूँ और सौधर्मेन्द्र की नियोगिनी भी हूँ, यह सब तेरे ही प्रसाद से हुआ है। यह सुनकर जयकुमार ने सुलोचना से पूर्व वृत्तांत पूछा, तब सुलोचना ने कहा कि विंध्याचल पर्वत के समीप विंध्यपुरी नगरी में विंध्यकेतु नाम का राजा रहता था, उसकी प्रियंगुश्री स्त्री थी, उन दोनों के विंध्यश्री नाम की पुत्री हुई। उसके पिता ने मुझ पर प्रेम होने से मेरे साथ सब गुण सीखने के लिए उसे मेरे पिता महाराज अकंपन को दे दी।
किसी एक दिन उपवन क्रीड़ा करते समय उसे सर्प ने काट लिया तब मैंने उसे पंच नमस्कार मंत्र सुनाया, वह मंत्र के प्रभाव से मरकर गंगा देवी हुई है और मेरे स्नेह के कारण यहाँ रक्षा की है। उस उपसर्ग के दूर होने के बाद वे सब सुखपूर्वक हस्तिनापुर आ गये। जयकुमार ने रानी सुलोचना को पट्टरानी पद प्रदान किया। जयकुमार और सुलोचना पूर्व जन्म के पुण्य विशेष से उत्तम-उत्तम भोगों का अनुभव कर रहे थे। पहले भरत ने दिग्विजय के मध्य जयकुमार सेनापति को अपने हाथ से वीरपट्ट बांधा था अत: चक्रवर्ती द्वारा महान कीर्ति को प्राप्त जयकुमार उस समय विश्व में एक महान पुरुष कहलाते थे।
किसी समय जयकुमार वैâलाशपर्वत के वन में विहार कर रहे थे, उस समय इन्द्र अपनी सभा में जयकुमार और सुलोचना के शील की प्रशंसा कर रहे थे उसे सुनकर सौधर्म स्वर्ग के रविप्रभ देव ने उनके शील की परीक्षा के लिए कांचना नाम की देवी भेजी। वह विद्याधरी का रूप लेकर जयकुमार में अपना अनुराग प्रगट करने लगी, अनेकों चेष्टाएँ और उपाय करने पर भी जयकुमार अपने शील से चलायमान नहीं हुए और परस्त्री को विषवत् समझा, वह राक्षसी का वेष बनाकर जयकुमार को उठाकर ले जाने लगी, तब सुलोचना ने दूर से यह दृश्य देखकर उसे ललकारा, तब वह डरकर भाग गई और रविप्रभ देव के पास गई। अनन्तर उन दोनों ने आकर जयकुमार से क्षमा मांगी और रत्नों से पूजा करके यथास्थान चले गये।
जयकुमार-सुलोचना का वैराग्य-किसी दिन जयकुमार भगवान ऋषभदेव के समवसरण में धर्मोपदेश को सुनकर भोगों से विरक्त हो गये और शिवंकरा महादेवी के पुत्र अनन्तवीर्य का राज्याभिषेक करके विजय, जयन्त, संजयन्त आदि छोटे भाई और रविकीर्ति, रविंजय आदि राजपुत्रों के साथ दीक्षित हो गये। तत्काल ही सात ऋद्धि और मन:पर्यय ज्ञान से सहित होकर भगवान ऋषभदेव के ‘इकहत्तरवें’ गणधर हो गये। इधर सुलोचना ने भी ब्राह्मी आर्यिका के पास आर्यिका दीक्षा ले ली और घोर तपश्चरण करते हुए ज्ञान के अभ्यास में सतत तत्पर हो गयी, तब ग्यारह अंगपर्यन्त ज्ञान को प्राप्त कर लिया। अनन्तर स्त्रीपर्याय का नाशकर अच्युत स्वर्ग में देव हो गई। कालांतर में महामुनि जयकुमार गणधर ने भी घातिया कर्मों का नाशकर केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया और पृथ्वी तल पर विहार कर भव्यजीवों को धर्मोपदेश देते रहे। अन्त में चार अघातिया कर्मों का भी अभावकर सिद्धपद को प्राप्त हो गये। ऐसे गणधर महामुनि जयकुमार को मेरा नमस्कार होवे।