(स्थापना)
कुसुमलता छंद
काल अनादी से कर्मों के, ग्रह ने मुझे सताया है।
उनका निग्रह करने का अब, भाव हृदय में आया है।।
इसीलिए ग्रह शान्ती हेतू, पूजा पाठ रचाया है।
तीर्थंकर प्रभु के अर्चन को, मैंने थाल सजाया है।।१।।
दोहा
आह्वानन स्थापना, सन्निधिकरण महान।
अष्टद्रव्य से पूर्व है, यह विधि हुई प्रधान।।२।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रहारिष्टनिवारकाः श्रीनवतीर्थंकर जिनाः! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सर्वग्रहारिष्टनिवारकाः श्रीनवतीर्थंकर जिनाः! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं सर्वग्रहारिष्टनिवारकाः श्रीनवतीर्थंकर जिनाः! अत्र मम सन्निहिताः भव भव वषट् सन्निधीकरणं स्थापनं।
अष्टक
शंभु छंद
मुनिमनसम निर्मल जल लेकर, प्रभु पद में धारा करना है।
जर जन्म मरण को निर्बल कर, अब आत्मचिन्तवन करना है।।
नव तीर्थंकर की पूजन कर, नवग्रह का निग्रह करना है।
व्यवहार सिद्धि के साथ-साथ, परमार्थ सिद्धि भी वरना है।।१।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रहारिष्टनिवारक श्रीनवतीर्थंकरेभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर मिश्रकर केशर की, सुरभी को और बढ़ाना है।
श्रद्धा से उसको जिनवर के, चरणों में आज चढ़ाना है।।
नव तीर्थंकर की पूजन कर, नवग्रह का निग्रह करना है।
व्यवहार सिद्धि के साथ-साथ, परमार्थ सिद्धि भी वरना है।।२।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रहारिष्टनिवारक श्री नवतीर्थंकरेभ्यो चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोती सम श्वेत तंदुलों को, गजमोती समझ चढ़ाना है।
अपने आतम के छिपे गुणों के, मोती अब प्रगटाना है।।
नवतीर्थंकर की पूजन कर, नवग्रह का निग्रह करना है।
व्यवहार सिद्धि के साथ-साथ, परमार्थ सिद्धि भी वरना है।।३।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रहारिष्टनिवारकश्रीनवतीर्थंकरेभ्यो अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरकल्पवृक्ष के पुष्प समझ, यह पुष्प अंजली भरना है।
जिनवर के सम्मुख श्रद्धा से, अब इन्हें समर्पित करना है।।
नवतीर्थंकर की पूजन कर, नवग्रह का निग्रह करना है।
व्यवहारसिद्धि के साथ-साथ, परमार्थसिद्धि भी वरना है।।४।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रहारिष्टनिवारकश्रीनवतीर्थंकरेभ्यो पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
अमृतमय इन पकवानों में, दिव्यामृत अनुभव करना है।
जिनवर चरणों में भेंट चढ़ा, क्षुधरोग निवारण करना है।।
नवतीर्थंकर की पूजन कर, नवग्रह का निग्रह करना है।
व्यवहारसिद्धि के साथ-साथ, परमार्थसिद्धि भी वरना है।।५।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रहारिष्टनिवारकश्रीनवतीर्थंकरेभ्यो नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत के लघु दीपक में रत्नों का, दीप प्रकल्पित करना है।
प्रभु की आरति करके अन्तर का, दीप प्रज्वलित करना है।।
नवतीर्थंकर की पूजन कर, नवग्रह का निग्रह करना है।
व्यवहारसिद्धि के साथ-साथ, परमार्थसिद्धि भी वरना है।।६।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रहारिष्टनिवारकश्रीनवतीर्थंकरेभ्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्दन अगरू की धूप में मलयागिरि का अनुभव करना है।
प्रभु सम्मुख अग्नी में खेकर, अब नष्ट कर्म सब करना है।।
नवतीर्थंकर की पूजन कर, नवग्रह का निग्रह करना है।
व्यवहारसिद्धि के साथ-साथ, परमार्थसिद्धि भी वरना है।।७।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रहारिष्टनिवारकश्रीनवतीर्थंकरेभ्यो धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर सेव बादाम आदि फल से प्रभु अर्चन करना है।
इनमें ही कल्पतरू के सच्चे, फल का अनुभव करना है।।
नवतीर्थंकर की पूजन कर, नवग्रह का निग्रह करना है।
व्यवहारसिद्धि के साथ-साथ, परमार्थसिद्धि भी वरना है।।८।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रहारिष्टनिवारकश्रीनवतीर्थंकरेभ्यो फलं निर्वपामीति स्वाहा।
ले अष्ट द्रव्य का थाल प्रभू को, अर्घ समर्पित करना है।
‘‘चन्दनामती’’ नवग्रह शांती के, लिए अर्चना करना है।।
नवतीर्थंकर की पूजन कर, नवग्रह का निग्रह करना है।
व्यवहारसिद्धि के साथ-साथ, परमार्थसिद्धि भी वरना है।।९।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रहारिष्टनिवारकश्रीनवतीर्थंकरेभ्यो अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
नवग्रहों की तपन से, है संतप्त शरीर।
शांतीधारा करन से, बनूँ शीघ्र अशरीर।।
शांतये शांतिधारा।
आत्मसुरभि के हेतु ले, पुष्पांजलि का थाल।
पुष्प बिखेरूं प्रभु निकट, ग्रह हों मेरे शांत।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
तर्ज-बाबुल की दुआएँ…………….
हे नाथ! आपके चरणों में, जयमाल गूँथकर लाए हम।
ग्रह शांति हेतु पदकमलों में, इक थाल अर्घ का लाए हम।।टेक.।।
कभी तन में व्याधि हुई मेरे, सिर आँख कान में दर्द हुआ।
कभी उदर में शूल उठी मेरे, कभी हाथ पैर में दर्द हुआ।।
उस बेचैनी में भी प्रभुवर, तुमको नहिं कभी भुलाएँ हम।
ग्रह शांति हेतु पदकमलों में, इक थाल अर्घ का लाए हम।।१।।
व्यापार में हानी हुई कभी, कभि चोरों ने धन लूट लिया।
कभी छापा पड़ने के कारण, मन में संताप व शोक हुआ।।
इन हानि-लाभ के क्षण में भी, जिनधर्म में ध्यान लगाएँ हम।
ग्रह शांति हेतु पदकमलों में, इक थाल अर्घ का लाएँ हम।।२।।
कुल पाँच करोड़ व अड़सठ लाख, निन्यानवे सहसरु पाँच शतक।
इक्यासी रोगों की संख्या, हो सकती तन में सर्वाधिक।।
नरकों में प्रगट होते ये सब, उस नर्क में कभी न जाएँ हम।
ग्रह शांति हेतु पदकमलों में, इक थाल अर्घ का लाए हम।।३।।
नभ में रहने वाले नवग्रह, मानव के संग जब लग जाते।
तब कर्म असाता के कारण, वे मानव नाना दुःख पाते।।
तुम पूजन फल से उन सबको, शुभरूप सहज कर पाएँ हम।
ग्रहशांति हेतु पदकमलों में, इक थाल अर्घ का लाए हम।।४।।
रवि, शशि, मंगल, बुध, गुरु एवं, वे शुक्र, शनी कहलाते हैं।
राहू, केतू मिल नवग्रह ये, ज्योतिष का चक्र चलाते हैं।।
इनमें से अशुभ ग्रहों से प्रभु!, नहिं कभी सताए जाएँ हम।
ग्रहशांति हेतु पदकमलों में, इक थाल अर्घ का लाए हम।।५।।
‘‘चन्दनामती’’ बस इसीलिए, यह पूजा पाठ रचाया है।
पूजा के माध्यम से प्रभुवर, भावों को शुद्ध बनाया है।।
हो चरम लक्ष्य की सिद्धि नाथ! पूजन फल ऐसा पाएँ हम।
ग्रहशांति हेतु पदकमलों में, इक थाल अर्घ का लाएँ हम।।६।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रहारिष्टनिवारकश्रीनवतीर्थंकरेभ्यो जयमाला पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, पुष्पांजलिः।
दोहा
नवग्रह पूजन से सभी, ग्रह हो जाते शांत।
करो अर्चना से सभी, भव की व्यथा समाप्त।।
इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिः ।