प्रथम नरक में अवधिज्ञान का विषय एक योजन है। आगे-आगे आधे-आधे कोस की हानि होकर सातवें नरक में वह एक कोस मात्र रह जाता है। यथा—
प्रथम नरक में – ४ कोस (१ योजन)
द्वितीय नरक में – ३-१/२ कोस
तृतीय नरक में – ३ कोस
चतुर्थ नरक में – २-१/२ कोस
पाँचवें नरक में – २ कोस
छठे नरक में – १-१/२ कोस
सातवें नरक में – १ कोस
इस अवधिज्ञान के प्रगट होते ही वे नारकी पूर्व भव के पापों को, बैर- विरोध को एवं शत्रुओं को जान लेते हैं। जो सम्यग्दृष्टी हैं वे अपने पापों का पश्चात्ताप करते रहते हैं, किन्तु जो मिथ्यादृष्टि हैं वे पूर्व भव में किसी के द्वारा किये गये उपकार को भी अपकार रूप समझकर यद्वा-तद्वा आरोप लगाते हुए मार-काट करते रहते हैं। कोई भद्रमिथ्यादृष्टि जीव पाप के फल को भोगते हुए अत्यन्त दु:ख से घबड़ा कर पापों का पश्चात्ताप करके ‘वेदना अनुभव’ नामक निमित्त से सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेते हैं। तात्पर्य यह है कि यदि कोई नारकी पाप के फल को भोगते हुए यह सोचते हैं कि हाय! मैंने परस्त्री सेवन किया था जिसके फलस्वरूप मुझे यहाँ पर गरम-गरम लोह पुतली से आलिंगन कराया जाता है। मैंने मद्यपान किया था जिसके फलस्वरूप मुझे यहाँ तांबा गला-गला कर पिलाया जाता है। हाय! हाय! मैंने पूर्व जन्म में गुरुओं की शिक्षा नहीं मानी, भगवान की वाणी पर विश्वास नहीं किया, नियम लेकर भंग किया, इत्यादि के फलस्वरूप मुझे ये नरक यातनायें भोगने को मिली हैं। अब इनसे हमें छुटकारा वैâसे मिले, कहाँ जायें, क्या करें, इत्यादि विलाप करते-करते जिन धर्म पर प्रेम करते हुए श्रद्धा से सम्यक्त्वरूपी अमूल्य निधि को प्राप्त कर लेते हैं।