प्रत्येक जीव में अनंत गुण माने गये हैं। उन सभी गुणों में यदि ज्ञानगुण को पृथक् कर दिया जाये तो सभी गुण निर्जीव हो जावेंगे, क्योंकि ‘ज्ञान’ यह जीव का लक्षण है—स्वभाव है, जैसे कि अग्नि का स्वभाव ऊष्णता। यह ज्ञान गुण सभी संसारी जीवों में कुछ न कुछ तरतमता को लिए हुए है फिर भी कहीं न कहीं इसकी पूर्णता अवश्य है। इसी बात को श्री समंतभद्र स्वामी ने कहा —
सूक्ष्म, अंतरित और दूरवर्ती पदार्थ किसी न किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं क्योंकि वे अनुमेय हैं, जैसे कि अग्नि आदि पदार्थ। इस अनुमान वाक्य से ‘सर्वज्ञ देव’ का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। यहाँ पर सूक्ष्म से-परमाणु आदि, अंतरित से-राम-रावण आदि और दूरवर्ती से-सुमेरू पर्वत आदि लिये जाते हैं। इन सूक्ष्मादि पदार्थों को इन्द्रियज्ञान से जानना शक्य नहीं है क्योंकि हम और आपका इन्द्रिय ज्ञान सीमित पदार्थों को तथा वर्तमान को ही विषय करता है। भूत-भविष्यत् को तथा सम्पूर्ण पदार्थों को पूर्णरूपेण जानना अतीन्द्रिय ज्ञान के द्वारा ही सम्भव है। वे अतीन्द्रिय ज्ञानदर्शी सर्वज्ञ ही हैं। उनके द्वारा कथित वाणी जिनागम कहलाती है। आज के वैज्ञानिक युग में कितने ही कुशल अनुसंधानकर्ता क्यों न हों, फिर भी वे आत्मा, परमात्मा, परलोक, स्वर्ग, नरक, और तो क्या स्वयं व अन्य के जन्म मरण को भी नहीं देख पाते हैं। हर किसी को प्रत्यक्ष तथा अनुमान के सिवाय बहुत कुछ ऐसा विषय है कि जिसको जानने के लिये आगम की शरण लेनी ही पड़ती है। हमारे पितामह के पितामह तथा उनके भी पितामह आदि की हजारों पीढ़ियों तक के पिता-पितामह का अस्तित्व तो स्वीकार करना ही पड़ेगा किन्तु उनको प्रत्यक्ष से नहीं देखा जा सकता है। उस पर विश्वास करने के लिये ‘परम्परा’ की ही शरण लेनी पड़ती है। उसी प्रकार से परम्परागत आगम से तीन लोक, मध्य लोक, असंख्यात द्वीप-समुद्र और जम्बूद्वीप तथा नंदीश्वर द्वीप आदि को स्वीकार करना ही चाहिये। जम्बूद्वीप के अन्तर्गत सुमेरु, विदेह, हिमवान्, विजयार्ध, भरत क्षेत्र, आर्यखण्ड आदि को जाने बिना और उन पर विश्वास किये बिना जीवों के आधारभूत स्थानों का निर्णय नहीं किया जा सकेगा पुन: आस्तिक्य भावना का ही अभाव हो जावेगा। अत: भगवान महावीर की वाणी से जिनका सम्बन्ध है ऐसे षट्खण्डागम, कषायपाहुड़, तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार, तत्त्वार्थसूत्र, श्लोकवार्तिक आदि ग्रन्थों को मानकर उन पर श्रद्धान करना अपना परम कत्र्तव्य हो जाता है। यहाँ पर इन्हीं ग्रन्थों के आधार से जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र का यिंत्कचित् वर्णन किया जा रहा है। मध्यलोक के सर्वप्रथम द्वीप का नाम जम्बूद्वीप है। यह एक लाख योजन विस्तृत और थाली के समान गोल है। इसके एक सौ नब्बे वें भाग अर्थात् ५२६-६/१९ योजन प्रमाण भरत क्षेत्र है। इस भरत क्षेत्र के छह खण्ड हैं।
गंगा नदी
भरत क्षेत्र से आगे हिमवान् पर्वत है जो कि इस क्षेत्र से दूने विस्तार वाला अर्थात् १०५२-१२/१९ योजन है। इसके मध्य में १००० योजन लम्बा और ५०० योजन चौड़ा ऐसा एक पद्म सरोवर है। इसके मध्य में कमल पर श्रीदेवी का भवन है। इस सरोवर के पूर्व-पश्चिम तोरण द्वार से गंगा-सिन्धु नदी निकलती हैं जो हिमवान् पर्वत की तलहटी में बने हुए गंगा-सिन्धु कूट पर गिरती हैं।
गंगाकूट
हिमवान् पर्वत के नीचे भूमि पर ६० योजन विस्तृत समवृत्त गंगा कुण्ड है। इसके बीचों-बीच में एक द्वीप है। यह द्वीप जल के मध्य में १० योजन ऊँचा, ८ योजन विस्तृत तथा जल के ऊपर २ कोश ऊँचा है। इसके बीच में एक वङ्कामय पर्वत है। इसका मूल में विस्तार ४ योजन, मध्य में २ योजन और ऊपर एक योजन है। यह पर्वत १० योजन ऊँचा है, तोरण एवं वेदिका से सुशोभित है। इस पर्वत के ऊपर बहुमध्य भाग में उत्तम रत्न एवं सुवर्ण से निर्मित, ‘गंगाकूट’ इस नाम से प्रसिद्ध एक दिव्य प्रासाद है। यह प्रासाद चार तोरणों से युक्त, उत्तम वेदी से वेष्टित, अतिविचित्र बहुत प्रकार के हजारों यंत्रों से सहित अनुपम है। यह प्रासाद (भवन) मूल में ३०००, मध्य में २००० तथा ऊपर में १००० धनुष प्रमाण है तथा २००० धनुष ऊँचा है अत: कूट के सदृश दिखता है। यह प्रासाद उत्तम वेदी से वेष्टित, चार गोपुर द्वार एवं मंदिर से सुशोभित और रमणीय उद्यान से युक्त है। इस भवन में स्वयं गंगा देवी रहती हैं। यह गंगा नदी पद्मद्रह से ५०० योजन आगे जाकर अर्थात् पूर्व दिशा में चलकर पश्चात् दक्षिण की ओर मुड़ जाती है। यह दक्षिण में ५२३-२९/१२५ योजन आकर पर्वत के तट पर स्थित जिह्विका को प्राप्त होती है। हिमवान् पर्वत के अन्त में वृषभाकार मणिमय उत्तम कूट के मुख में प्रवेश कर चंद्रमा के समान धवल और दश योजन विस्तार वाली गंगा की धारा नीचे गिरती है। वह कूटमुख सींग, मुख, कान, जिह्वा, लोचन और भृकुटी आदिक से गौ के सदृश है, इसीलिये उस रत्नमय जिह्विका को ‘वृषभ’ कहते हैं।’’ वहाँ पर गंगा नदी पच्चीस योजन हिमवान् पर्वत को छोड़कर १० योजन विस्तार वाले गंगा कुण्ड में गिरती है। इस गंगा देवी के भवन के ऊपर कूट पर किरण समूह से संपूर्ण दिशाओं को प्रकाशित करने वाली और शाश्वत ऋद्धि को प्राप्त, ऐसी जिनेन्द्र प्रतिमाएँ स्थित हैं। वे जिनेन्द्र की प्रतिमाएँ जटामुकुट रूप शेखर से सहित हैं। इन प्रतिमाओं के ऊपर वह गंगा नदी मानों मन में अभिषेक भावना को रखकर ही गिरती है। वे जिनेन्द्र की प्रतिमायें फूले हुए कमलासन पर विराजमान और कमल के उदर अर्थात् मध्यभाग सदृश वर्ण वाले उत्तम शरीर से युक्त हैं। जो भव्य जीव इन्हें स्मरण करते हैं उन्हें ये निर्वाण प्रदान करती हैं।२ गंगा नदी इस कुण्ड के दक्षिण तोरण द्वार से निकलकर भूमि प्रदेश में मुड़ती हुई विजयार्ध पर्वत की गुफा में प्रवेश कर जाती है।
विजयार्ध पर्वत
भरत क्षेत्र के बहुमध्य भाग में रजतमय और नाना प्रकार के उत्तम रत्नों से रमणीय विजयार्ध नामक पर्वत है। यह २५ योजन ऊँचा और ५० योजन चौड़ा है। यह पूर्व-पश्चिम में लवण समुद्र को स्पर्श कर रहा है अर्थात् ९७४८-१२/१९ योजन लम्बा है। १० योजन ऊपर जाकर इस पर्वत के दोनों पाश्र्व भागों में १० योजन विस्तृत विद्याधरों की एक-एक श्रेणी हैं। इनमें दक्षिण दिशा की श्रेणी में ५० और उत्तर दिशा की श्रेणी में ६० नगर स्थित हैं। जिनमें विद्याधर मनुष्य रहते हैं। विद्याधर श्रेणी से १० योजन ऊपर जाकर विजयार्ध के दोनों पाश्र्व भागों में १० योजन विस्तार वाली आभियोग्य देवों की श्रेणी हैं। इन श्रेणियों में सौधर्म इन्द्र के वाहन जाति के व्यंतर देव निवास करते हैं। इस श्रेणी से ५ योजन ऊपर जाकर १० योजन विस्तार वाला विजयार्ध पर्वत का शिखर है। इस पर नौ कूट बने हुए हैं। पूर्व दिशा के कूट पर जिनमंदिर है और शेष आठ कूट पर देव और देवियों के भवन बने हुए हैं। इस पर्वत के भूमितल पर दोनों पाश्र्व भागों में दो गव्यूति विस्तीर्ण और पर्वत के बराबर लम्बे वनखण्ड हैं। दो कोश ऊँची, ५०० धनुष चौड़ी, तोरण द्वारों से युक्त ऐसी वन वेदिका है। इस विजयार्ध पर्वत में ५० योजन लम्बी, ८ योजन ऊँची और १२ योजन चौड़ी ऐसी दो गुफायें हैं। पूर्व में तिमिस्र गुफा और पश्चिम में खण्डप्रपात गुफा है। ये दोनों गुफायें वङ्कामय कपाटों से युक्त अनादिनिधन हैं। ऊपर कही हुई गंगा नदी इस विजयार्ध की तिमिस्र गुफा में प्रवेश करके ५० योजन लम्बी गुफा में बहती हुई गुफा के दक्षिण द्वार से बाहर निकलती है। यह गंगा नदी ११९ ३/९१ योजन तक दक्षिण भरत में बहकर पुन: पूर्व की ओर मुड़कर १४००० प्रमाण परिवार नदियों से युक्त होती हुई अन्तत: मागध तीर्थ पर लवणसमुद्र में प्रवेश कर जाती है। ‘‘गंगा महानदी की ये कुण्डों से उत्पन्न हुई परिवार नदियाँ ढाई म्लेच्छ खण्डों में ही हैं आर्यखण्ड में नहीं हैं।’’ यह गंगा महानदी अपने उद्गम स्थान में ६ १/४ योजन है और समुद्र के प्रवेश स्थान पर ६२ १/२ योजन हो गई है। जैसा यह गंगा नदी का वर्णन हुआ है, वैसा ही सिन्धु नदी का वर्णन समझ लेना चाहिये। अन्तर इतना ही है कि सिन्धु नदी पद्मद्रह के पश्चिम तोरण द्वार से निकलकर सिन्धुकूटर गिरकर नीचे बहकर खण्डप्रपात गुफा में प्रवेश करती है पुन: बाहर निकलकर पश्चिम प्रभास तीर्थ पर लवण समुद्र में प्रवेश कर जाती है।
छहखण्ड व्यवस्था
गंगा-सिन्धु नदी और विजयार्ध पर्वत के निमित्त से भरत क्षेत्र के छह खण्ड हो जाते हैं। उत्तर और दक्षिण भरत के तीन-तीन खण्ड हैं। इनमें से दक्षिण भरत के मध्य का आर्यखण्ड है, शेष पाँच म्लेच्छ खण्ड नाम से प्रसिद्ध हैं।
वृषभाचल
उत्तर भरत के मध्य में जो म्लेच्छखण्ड है उसके बहुमध्य भाग में रत्नों से निर्मित वृषभगिरि है। यह चक्रवर्तियों के मान का मर्दन करने वाला है और नाना चक्रवर्तियों के नामों से व्याप्त है। यह पर्वत १०० योजन ऊँचा है, मूल में १०० योजन, मध्य में ७५ योजन और शिखर पर ५० योजन विस्तृत है। इस पर्वत पर ‘वृषभ’ नाम का देव अपने परिवार सहित रहता है जिसके भवन में अनादिनिधन जिनमंदिर है। इस प्रकार से भरत क्षेत्र में छह खण्ड विभाग हैं जिनको पूर्णतया जीतकर चक्रवर्ती इस भरत क्षेत्र पर एकछत्र शासन करते हुए सार्वभौम सम्राट् कहलाते हैं। नारायण, बलभद्र और प्रतिनारायण विजयार्ध पर्वत तक तीन खण्ड का विजय कर अर्धचक्री माने जाते हैं।
षट्काल परिवर्तन
भरत और ऐरावत क्षेत्र में रहट घटिका न्याय से अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल अनन्तानन्त होते हैं। अवसर्पिणी काल में मनुष्य एवं तिर्यंचों की आयु, शरीर की ऊँचाई और विभूति आदि सब ही घटते तथा उत्सर्पिणी काल में बढ़ते रहते हैं। इन दोनों में से प्रत्येक के छह-छह भेद हैं—सुषम-सुषमा, सुषमा, सुषम-दुषमा, दुषमा-सुषमा, दुषमा और अतिदुषमा। उत्सर्पिणी में इससे उल्टे अतिदुषमा से प्रारम्भ होकर सुषमसुषमा तक होते हैं। असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी की शलाकाओं के बीत जाने पर प्रसिद्ध एक हुंडावसर्पिणी आती है। उसके चिह्न ये हैं— ‘‘इसके भीतर तृतीय काल की स्थिति में से कुछ काल के अवशेष रहने पर ही वर्षा आदि पड़ने लगती है और विकलत्रय जीवों की उत्पत्ति होने लगती है। इसी काल में कल्पवृक्षों का अन्त और कर्मभूमि का व्यापार प्रारम्भ हो जाता है। उसी काल में प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती भी उत्पन्न हो जाते हैं। चक्रवर्ती का विजयभंग और थोड़े जीवों का मोक्षगमन भी हो जाता है। इसके अतिरिक्त चक्रवर्ती द्वारा की गई द्विजों के वंश की उत्पत्ति भी हो जाती है। दुषमासुषमा नामक चतुर्थकाल में अट्ठावन ही शलाका पुरुष होते हैं। नौवें से सोलहवें तीर्थंकर तक सात तीर्थों में धर्म की व्युच्छित्ति भी हो जाती है। ग्यारह रुद्र और कलहप्रिय नव नारद भी होते हैं। इसके अतिरिक्त सातवें, तेईसवें और अंतिम तीर्थंकर पर उपसर्ग भी होता है। तृतीय, चतुर्थ व पंचम काल में उत्तम धर्म को नष्ट करने वाले विविध प्रकार के कुदेव और कुिंलगी भी दिखने लगते हैं तथा चाण्डाल, शबर, श्वपच, पुिंलद, लाहल और किरात इत्यादि जातियाँ उत्पन्न हो जाती हैं तथा दुषमकाल में ४२ कल्की और उपकल्की होते हैं। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकंप और वङ्कााग्नि आदि का गिरना इत्यादि विचित्र भेदों को लिए हुए नाना प्रकार के दोष इस हुंडावसर्पिणी में हुआ करते हैं।’’ इस भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में आजकल हुंडावसर्पिणी का पंचम काल चल रहा है।
आर्यखण्ड से अतिरिक्त अन्यत्र षट्काल परिवर्तन नहीं है
‘‘पाँच म्लेच्छ खण्ड और विद्याधर की श्रेणियों में (विजयार्ध पर्वत पर) अवसर्पिणी काल में से चतुर्थ काल के प्रारम्भ से अन्त तक हानिरूप परिवर्तन होता रहता है। उत्सर्पिणी काल में से तृतीय काल के आदि से अन्त तक वृद्धिरूप परिवर्तन होता है। यहाँ अन्य कालों की प्रवृत्ति नहीं है।‘‘२ जिस प्रकार जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र है, उसी प्रकार ऐरावत क्षेत्र कहा गया है। ऐरावत क्षेत्र की सारी व्यवस्था भरतक्षेत्रवत् है। ‘‘ऐसे ही धातकीखण्ड में दो भरत और दो ऐरावत क्षेत्र हैं तथा पुष्करार्ध द्वीप में दो भरत एवं दो ऐरावत क्षेत्र हैं। यहाँ पर भी आर्यखण्ड में षट्काल परिवर्तन होता है।’’३ इस प्रकार से ४५ लाख योजन प्रमाण इस मत्र्यलोक में मात्र पाँच भरत और पाँच ऐरावत क्षेत्रों के आर्यखण्डों में ही षट्काल परिवर्तन के द्वारा मनुष्यों के शरीर की अवगाहना, आयु, सुख आदि का वृद्धि-ह्रास होता रहता है। इनसे अतिरिक्त सभी क्षेत्रों में जहाँ जैसी व्यवस्था है वैसी ही रहती है। इतने प्रमाण मत्र्यलोक में जहाँ-जहाँ भोगभूमि है वे भी वहीं पर अवस्थित हैं और जहाँ-जहाँ पर कर्मभूमि है वे भी वहीं पर स्थित हैं। ‘‘ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिता:’’ महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र के इस सूत्र से यह बात स्पष्ट ही है। सार—
१. जम्बूद्वीप ४० करोड़ मील प्रमाण है। इसके १९०वें भाग में एक छोटा-सा भरत क्षेत्र है।
२. उसमें विजयार्ध पर्वत और गंगा-सिन्धु नदी के निमित्त से छह खण्ड हो जाते हैं।
३. हिमवान पर्वत पर गंगा-सिन्धु नदियों के गिरने के स्थान पर गोमुख आकार की जिह्विका है। नीचे गंगावूकूट गंगा देवी के भवन की छत पर कमलासन पर जिनप्रतिमा विराजमान हैं, जिनका अभिषेक करते हुए के समान ही गंगा नदी की धारा गिरती है।
४. म्लेच्छ खण्ड में ‘वृषभ’ नाम का पर्वत है जिस पर चक्रवर्ती अपनी प्रशस्ति लिखते हैं।
५. आर्यखण्ड के बिल्कुल मध्य में अयोध्या नगरी है। आज का उपलब्ध सारा विश्व इस आर्यखण्ड में ही है।
६. म्लेच्छ खण्ड में मनुष्य जाति से म्लेच्छ न होकर क्षेत्र से म्लेच्छ हैं। अत: उनका खान-पान निद्य हो सर्वथा ऐसी बात नहीं है।
७. आजकल यहाँ आर्यखण्ड में हुंडावसर्पिणी के निमित्त से अनेक अघटित बातें हो जाती हैं।
८. प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव तृतील काल के अन्त में ही जन्म लेकर तीन वर्ष, साढ़े आठ माह काल शेष रहने पर मोक्ष चले गये हैं।
प्रथम चक्रवर्ती भरत भी तृतीय काल में हुए हैं। उनके भाई बाहुबलि द्वारा उनका विजयभंग भी काल दोष से हुआ था।
सातवें, तेईसवें और अन्तिम तीर्थंकर पर उपसर्ग भी हुआ है। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकंप आदि प्राकृतिक प्रकोप प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रहे हैं।