इनमें से प्रत्येक के मध्य में एक सौ योजन ऊँचे एक-एक कूट स्थित हैं। इन कूटों के ऊपर पद्मराग मणिमय कलशों से सुशोभित तथा चार गोपुर, तीन मणिमय प्राकार, वन ध्वजाओं एवं मालाओं से संयुक्त जिन गृह विराजते हैं। इन जिन मंदिरों के चारों तरफ चैत्य वृक्षों सहित और नाना वृक्षों से युक्त पवित्र अशोक वन, सप्तच्छद वन, चंपक वन और आम्र वन स्थित हैं। प्रत्येक भवनों के चैत्यवृक्ष का अवगाढ़-जड़ एक कोस, स्कंध की ऊँचाई १ योजन और शाखाओं की लम्बाई चार योजन प्रमाण कही गई हैं। ये दिव्य वृक्ष विविध प्रकार के उत्तम रत्नों की शाखाओं से युक्त, विचित्र पुष्पों से अलंकृत और उत्कृष्ट मरकत मणिमय उत्तम पत्रों से व्याप्त होते हुए अतिशय शोभा को प्राप्त हैं एवं विविध प्रकार के अंकुरों से मंडित, अनेक प्रकार के फलों से युक्त, नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित, छत्र के ऊपर से संयुक्त, घंटा, ध्वजा आदि से रमणीय, आदि-अंत से रहित ये चैत्यवृक्ष पृथ्वीकायिक स्वरूप हैं। इन चैत्यवृक्षों के मूल में चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में पद्मासन से स्थित और देवों से पूजनीय पाँच-पाँच जिन प्रतिमायें विराजमान हैं। ये प्रतिमायें चार तोरणों से रमणीय, आठ महामंगल द्रव्यों से सुशोभित और उत्तमोत्तम रत्नों से निर्मित अतिशय शोभायमान होती हैंं।
इन जिनालयों में चार-चार गोपुरों से संयुक्त तीन कोट, प्रत्येक वीथी में एक-एक मानस्तंभ व वन, स्तूप तथा कोटों के अंतराल में क्रम से वनभूमि, ध्वजभूमि और चैत्यभूमि ऐसी तीन भूमियाँ हैं। उन जिनालयों में चारों वनों के मध्य में स्थित तीन मेखलाओं से युक्त नंदादिक वापिकायें, तीनों पीठों से युक्त धर्म विभव तथा चैत्यवृक्ष शोभायमान होते हैं। ध्वज भूमि से सिंह, गज, वृषभ, गरुड़, मयूर, चंद्र, सूर्य, हंस, पद्म और चक्र इन चिन्ह से अंकित प्रत्येक चिन्हों वाली १०८ महाध्वजायें और एक-एक महाध्वजा के आश्रित १०८ क्षुद्र ध्वजायें होती हैं। ये जिनालय वंदन मंडप, अभिषेक मंडप, नर्तन मंडप, संगीत मंडप और प्रेक्षणमंडप, क्रीड़ागृह, गुणनगृह (स्वाध्याय शाला) एवं विशाल चित्रशालाओं से युक्त हैं। इन मंदिरों में देवच्छंद के भीतर श्री देवी, श्रुतदेवी तथा सर्वाण्ह और सनत्कुमार यक्षोें की मूर्तियाँ एवं आठ मंगल द्रव्य होते हैं। झारी, कलश, दर्पण, ध्वजा, चामर, छत्र, व्यजन और सुप्रतिष्ठ इन आठ मंगल द्रव्यों में से वहाँ प्रत्येक १०८ होते हैं। इन भवनों में चमकते हुए रत्नदीपक, ५ वर्ण के रत्नों से निर्मित चौक, गोशीर्ष, मलयचंदन, कालागरू और धूप की गंध तथा भंभा, मृदंग, मर्दल, जयघंटा, कांस्यताल, तिवली, दुुंदुभि एवं पटह आदि के शब्द नित्य गुंजायमान होते हैं। हाथ में चंवर लिए हुए नागकुमार देवों से युक्त उत्तम-उत्तम रत्नों से निर्मित, देवों द्वारा वंद्य ऐसी उत्तम प्रतिमायें सिंहासन पर विराजमान हैंं। प्रत्येक जिन भवनों में ये जिन प्रतिमायें १०८-१०८ प्रमाण हैं। ये अनादि निधन जिन भवन भवनवासी देवों के भवनों की संख्या के प्रमाण सात करोड़ बहत्तर लाख हैं।
जो देव सम्यग्दर्शन से युक्त हैं वे कर्म क्षय के निमित्त नित्य ही जिन भगवान की भक्ति से पूजा करते हैं। इसके अतिरिक्त सम्यग्दृष्टि देवों से संबोधित किये गये अन्य मिथ्यादृष्टि देव भी कुल देवता मानकर उन जिनेन्द्र प्रतिमाओं की नित्य ही बहुत प्रकार से पूजा करते रहते हैं।