ये इंद्र लोग भक्ति से पंचकल्याणकों के निमित्त ढाई द्वीप में एवं जिनेंद्र भगवान की पूजन के निमित्त नंदीश्वर द्वीप आदि पवित्र स्थानों में जाते हैं शीलादि से संयुक्त किन्हीं मुनिवर आदि की पूजन या परीक्षा के निमित्त एवं क्रीड़ा के लिए यथेच्छ स्थान पर आते-जाते हैं।
ये असुरकुमार आदि देव स्वयं अन्य किसी की सहायता से रहित ईशान स्वर्ग तक जा सकते हैं तथा अन्य देवों की सहायता से अच्युत स्वर्ग तक भी जाते हैं। इन देवों के शरीर निर्मल कांति के धारक सुगंधित उच्छ्वास से सहित, अनुपम रूप वाले तथा समचतुरस्र संस्थान से युक्त हैंं। देवों के समान इनकी देवियाँ भी वैसे ही गुणों से युक्त होती हैं।
इन देव-देवियों के रोग, वृद्धावस्था आदि नहीं हैं, अनुपम बल-वीर्य है। इनका अकाल मरण भी नहीं होता है। इनके शरीर में मल-मूत्र हड्डी, माँस, मेदा, खून, मज्जा, वसा, शुक्र आदि धातुएँ नहीं हैं। ये देवगण काय प्रवीचार से युक्त हैं अर्थात् वेद की उदीरणा होने पर मनुष्यों के समान काम सुख का अनुभव करते हैं ये इंद्र-प्रतीन्द्र विविध प्रकार की छत्रादि विभूतियों को धारण करते हैं।
प्रतीन्द्र आदि देवों के सिंहासन, छत्र, चमर अपने-अपने इंद्रोें की अपेक्षा छोटे रहते हैं। सामानिक और त्रायिंस्त्रश नामक देवों में विक्रिया, परिवार, ऋद्धि और आयु अपने-अपने इंद्रों के समान हैं। इंद्र उन सामानिक देवों की अपेक्षा केवल आज्ञा, छत्र, सिंहासन और चामरों से अधिक वैभव युक्त होते हैं।
इन असुरकुमार आदि दस प्रकार के भवनवासी देवों के भवनों में ओलग शालाओं के आगे विविध प्रकार के रत्नों से निर्मित चैत्यवृक्ष होते हैं। पीपल, सप्तपर्ण, शाल्मलि, जामुन, वेतस, कदंब, प्रियंगु, शिरीष, पलाश और राजद्रुम ये १० चैत्यवृक्ष क्रम से उन असुरादिक कुलों के चिन्ह रूप हैं। प्रत्येक चैत्यवृक्ष के मूलभाग के चारों ओर पल्यंकासन से स्थित परम रमणीय पाँच-पाँच जिन प्रतिमायें विराजमान हैं। उन सभी प्रतिमाओं के आगे रत्नमय २० मा्नास्तंभ हैं। एक-एक मानस्तंभ के ऊपर चारों दिशाओं में सिंहासन की शोभा से युक्त २८ जिन प्रतिमाएँ हैं। इन प्रतिमाओं के निकट छत्र, चामर आदि विभूतियाँ शोभायमान होती हैं।चमरइंद्र सौधर्म इंद्र से ईर्ष्या करता हैै। वैरोचन ईशान से, वेणु भूतानंद से और वेणुधारी धरणानंद से ईर्ष्या करते हैं। नाना प्रकार की विभूतियों को देखकर मात्सर्य से या स्वभाव से ही जलते रहते हैं।