रत्नप्रभा पृथ्वी के खरभाग में ७ प्रकार के व्यंतर देवों के निवास स्थान हैं एवं पंकप्रभा में राक्षस जाति के व्यंतरों का निवास स्थान है। इन व्यंतर देवों के भवन, भवनपुर और आवास ऐसे ३ प्रकार के भवन माने गये हैं।
इनमें से रत्नप्रभा पृथ्वी में भवन, द्वीपसमुद्रों में भवनपुर और पर्वत, सरोवर आदि के ऊपर आवास होते हैं। उत्कृष्ट भवनों में से प्रत्येक का विस्तार १२००० योजन और मोटाई ३०० योजन प्रमाण है। जघन्य भवनों में से प्रत्येक के विस्तार का प्रमाण २५ योजन और मोटाई ३/४ योजन है।
इन भवनों के बिल्कुल मध्य भाग में वेदी, ४ वन और तोरण द्वारों से रमणीय एवं अपने भवनों की मोटाई के तीसरे भाग प्रमाण कूट होते हैं। इन कूटों के उपरिम भाग पर विविध प्रकार की रचना से संयुक्त सुवर्ण-चाँदी और रत्नमयी जिनेन्द्र प्रासाद हैं। ये प्रत्येक जिनेन्द्र भवन, झारी, कलश, दर्पण, ध्वजा, चंवर, वींजना, छत्र और ठोना इन एक सौ आठ एक सौ आठ मंगल द्रव्यों से सहित हैं। इन भवनों में सिंहासन आदि प्रातिहार्यों से सहित और हाथ में चामरों को लिए हुए नागयक्ष देव युगलों से संयुक्त अकृत्रिम जिन प्रतिमायें विराजमान हैं। एवं वहाँ पर नित्य ही दुंदुभि, मृदंग, मर्दल, जयघण्टा, भेरी, शंख, झांझ, वीणा आदि वादित्रों के सुंदर शब्द होते रहते हैं।
सम्यग्दृष्टि देव कर्म क्षय के निमित्त गाढ़ भक्ति से विविध द्रव्यों के द्वारा उन जिनेन्द्र प्रतिमाओं की पूजा करते हैं। अन्य देवों के उपदेश वश मिथ्यादृष्टि देव भी ‘‘ये कुल देवता हैंं’’ ऐसा समझ कर उन जिनेन्द्र प्रतिमाओं की पूजा करते हैं। इन कूटों के चारों तरफ ७-८ आदि तलों से युक्त विचित्र आकृतियों से सहित व्यंतर देवों के प्रासाद हैं। ये प्रासाद लटकती हुई रत्नमालाओं से युक्त, उत्तम तोरणों से युक्त द्वारों वाले, निर्मल, विचित्र, मणिमय शयनों एवं आसनों के समूह से परिपूर्ण हैं। इस प्रकार ये प्रासाद ३०,००० प्रमाण हैं। इसका सम्पूर्ण वर्णन भवनवासी देवों के भवनों के समान है।