इन १६ इंद्रों में से प्रत्येक के प्रतीन्द्र, सामानिक, आत्मरक्ष, तीनों पारिषद, सात अनीक, प्रकीर्णक और आभियोग्य इस प्रकार से परिवारदेव होते हैं। मतलब देवों के जो इंद्र, सामानिक आदि दस भेद बताये गये हैं उसमें व्यंतरवासियों में त्रायिंस्त्रश और लोकपाल भेद नहीं होते हैं। अत: यहाँ आठ भेद कहे गये हैं। प्रत्येक इंद्र के एक-एक प्रतीन्द्र होते हैं।
प्रत्येक इंद्र के चार-चार हजार सामानिक देव होते हैं।
प्रत्येक इंद्र के आत्मरक्षक १६-१६ हजार हैंं।
प्रत्येक इंद्र के अभ्यंतर पारिषद देव ८०००।
प्रत्येक इंद्र के मध्य पारिषद देव १००००।
प्रत्येक इंद्र के बाह्य पारिषद देव १२०००।
हाथी, घोड़ा, पदाति, गन्धर्व, नर्तक, रथ और बैल इस प्रकार प्रत्येक इंद्रों की ये ७ सेनाएँ होती हैं। हाथी, घोड़े आदि की पृथक्-पृथक् ७ कक्षाएँ स्थित हैं।
इनमें से प्रथम कक्षा का प्रमाण २८००० है। द्वितीयादि कक्षाओं में हाथी आदि दूने-दूने हैं। उनमें से प्रत्येक इंद्र के हाथियों का प्रमाण ३५,५६००० है।
प्रत्येक इंद्र की ७ अनीकों का प्रमाण दो करोड़ ४८ लाख ९२ हजार है।
इन सात अनीकदेवों के महत्तर देवों के नाम क्रमश: सुज्येष्ठ, सुग्रीव, विमल, मरूदेव, श्रीदाम, दामश्री और विशालाक्ष हैं।
इसी प्रकार से इन इंद्रों के प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक जाति के देव भी होते हैं। इस प्रकार के परिवार से संयुक्त सुखों का अनुभव करने वाले व्यंतर देवेन्द्र अपने-अपने पुरों में बहुत प्रकार की क्रीड़ाओं को करते हुए आनंद में मग्न रहते हैं।
अपने-अपने इंद्रों की नगरियों के दोनों पार्श्व भागों में उत्तम वेदी आदि से संयुक्त गणिका महत्तरियों के नगर होते हैं। उन पुरियों में से प्रत्येक का विस्तार चौरासी हजार योजन प्रमाण है और इतनी ही लम्बाई है।]