पीठ के उपरिम भाग पर सोलह कोस प्रमाण ऊँचा, दिव्य व उत्तम तेज को धारण करने वाला ‘सिद्धार्थनाम चैत्य वृक्ष’ है। चैत्य वृक्ष के स्कंध की ऊँचाई चार कोस, बाहल्य एक कोस एवं शाखाओं की लम्बाई व अंतराल बारह कोस प्रमाण है। पीठ के ऊपर इसी प्रमाण को धारण करने वाले ‘‘एक लाख चालीस हजार एक सौ बीस’’ इसके परिवार वृक्ष हैं। ये वृक्ष विविध प्रकार के उत्तम रत्नों से निर्मित शाखाओं, मरकत-मणिपत्तों, पद्मरागमणिमय फलों और सुवर्ण एवं चाँदी से निर्मित पुष्पों से सदैव संयुक्त रहते हैं। ये सब उत्तम दिव्य वृक्ष अनादि निधन और पृथ्वी रूप होते हुये जीवों की उत्पत्ति और विनाश के स्वयं कारण होते हैं। इन वृक्षों में प्रत्येक वृक्ष के चारों ओर विविध प्रकार के रत्नों से रचित चार-चार जिन और सिद्धों की प्रतिमायें विराजमान हैं। ये प्रतिमायें सदा जयवंत होवें।
इन चैत्य वृक्षों के आगे सुवर्णमय दिव्य पीठ है। पीठ के चारों ओर भूमितल पर मार्ग व अट्टालिकाओं, गोपुर द्वारों और तोरणों से विचित्र बारह वेदियाँ हैं। पीठ के ऊपर मणिसमूह से खचित और अनेक प्रकार के चमर व घंटाओं से युक्त चार योजन ऊँचे ‘सुवर्णमय ‘खंभें हैं। सब खंभों के ऊपर अनेक प्रकार के वर्णों से रमणीय और शिखर रूप तीन छत्रों से सुशोभित ‘महेन्द्र’ नामक महाध्वजायें हैं।
महाध्वजाओं के आगे मगर आदि जलजंतुओं से रहित जलवाली, कमल, उत्पल व कुमुदों से व्याप्त चार वापिकायें है। वेदिकादि से सहित वापिकायें प्रत्येक पचास कोस प्रमाण विस्तृत, सौ कोस लंबी और दस कोस गहरी हैं। वापियों के मध्य में रत्नकिरणों से प्रकाशमान एक ‘जिनेन्द्र भवन’ स्थित है। अनंतर वापियों के आगे पूर्व, दक्षिण, उत्तर भागों में देवों के रत्नमय ‘क्रीड़ाभवन’ हैं। विविध वर्णों से युक्त वे भवन पचास कोस ऊँचे, पच्चीस कोस विस्तृत और लम्बे हैं। तथा विचित्र वर्णों से युक्त धूपघट आदि से सहित हैं। इन भवनों के आगे इतने ही प्रमाण से युक्त, फहराती हुई ध्वजा पताकाओं से सहित प्रकाशमान उत्तम रत्न किरणों से सुशोभित ‘दो प्रासाद’ हैं। इसके आगे सौ कोस ऊँचे, पचास कोस लंबे, चौड़े, दिव्य रत्नों से निर्मित ‘प्रासाद’ हैं। प्रमुख द्वार के आगे जो मुखमंडप आदि कहे गये हैं वे आधे प्रमाणों से सहित दक्षिण-उत्तर के क्षुद्र द्वारों में भी हैं।