‘‘भरतैरावतयोर्वृद्धिह्रासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्यां (तत्त्वार्थ सूत्र) इस सूत्र में कहे गये अनुसार भरत और ऐरावत क्षेत्रों में ही उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के षट्कालों से मनुष्यों की आयु, अवगाहना आदि में वृद्धि ह्रास होती रहती है। इन भरत ऐरावत क्षत्रों के पाँच-पाँच म्लेच्छ खण्ड में ये काल परिवर्तन नहीं है केवल चतुर्थकाल के आदि से लेकर अंत तक ही परिवर्तन होता है और अंत से आदि तक चतुर्थ की आदि जैसा हो जाता है।
भरत क्षेत्र के आर्यखंड में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी रूप काल की
पर्यायें होती हैं। अवसर्पिणी काल में मनुष्य एवं तिर्यंचों की आयु, शरीर की ऊँचाई और विभूति इत्यादि सभी घटते रहते हैं एवं उत्सर्पिणी में बढ़ते रहते हैं।
दस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण अवसर्पिणी और दस कोड़ाकोड़ी प्रमाण उत्सर्पिणी काल है। इन दोनों को मिलाने पर बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का एक कल्पकाल होता है।
अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी में से प्रत्येक के छह-छह भेद हैं। सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमादुष्षमा, दुष्षमा-सुषमा, दुष्षमा और अतिदुष्षमा। इन छहों में से प्रथम सुषमासुषमा चार कोड़ाकोड़ी सागर, सुषमा तीन कोड़ाकोड़ी सागर, तीसरा काल दो कोड़ाकोड़ी सागर, चौथा ब्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर, पंचम दुष्षमाकाल इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण और छठा अतिदुष्षमा काल इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण है।इनका परिवर्तन आरे के समान होता है अर्थात् प्रथम काल में छठे काल तक अवसर्पिणी पुन: छठे काल से प्रथम काल तक उत्सर्पिणी चलती है।