सुषमासुषमा नामक प्रथम काल से उत्तम भोग भूमि की व्यवस्था रहती है। इस काल में वहाँ की भूमि रज, कण्टक, विकलत्रय से रहित होती है। वहाँ कल्हार, कमल आदि से मनोहर वापियाँ रत्नों की सीढ़ियों से सहित रहती हैं। भोगभूमिजनों के सुंदर भवन शय्या आसनों से रमणीय अनुपम हैं। वहाँ की पृथ्वी चार अंगुल प्रमाण हरित घास से सहित पंच वर्ण वाली मन नयनों को हरण करने वाली होती है वहाँ पर वापिका, कल्पवृक्ष आदि से परिपूर्ण उन्नत पर्वत हैं वहाँ पर असंज्ञी जीव नहीं हैं। परस्पर में कलह विरोध, स्वामी भृत्य आदि भेद नहीं रहता है। ये युगलिया चौथे दिन (बेर) के बराबर आहार करते हैं यहाँ के स्त्री पुरुषों की ऊँचाई तीन कोस, आयु तीन पल्य प्रमाण होती है। प्रत्येक के पृष्ठ भाग में दो सौ छप्पन हड्डियाँ होती हैं। उत्तम संहनन, संस्थान से सहित मंदकषायी, कवलाहार करते हुए भी मलमूत्र से रहित होते हैं। वहाँ के पानांग आदि दस प्रकार के कल्पवृक्ष उत्तम भोगोपभोग सामग्री को प्रदान करते रहते हैं। पानांग तूर्यांग, वस्त्रांग, भूषणांग, भोजनांग, आलयांग, दीपांग, भाजनांग, मालांग और ज्योतिरंग जाति के कल्पवृक्ष अपने नामों के अनुसार ही फल देने वाले हैं। इन भोगभूमि के मनुष्यों का बल नौ हजार हाथी के प्रमाण होता है।
मिथ्यात्व से युक्त, मंदकषायी दानादि से तत्पर मनुष्य और तिर्यंच भोग भूमि को प्राप्त करते हैं कदाचित् तिर्यंच आयु का बंध करके पुन: क्षायिक आदि सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाला मनुष्य इन भोगभूमियों में जन्म ले लेता है।भोगभूमि के मनुष्यों और तिर्यंचों में आयु के नव मास शेष रहने पर उनकी माता को गर्भ रहता है और युगल बालक बालिका के जन्म लेते ही वे माता-पिता जंभाई एवं छींक से मरण को प्राप्त हो जाते हैं। मरकर ये भोगभूमिज युगल भवनत्रिक से सौधर्म युगल तक देवगति से जन्म ले लेते हैं। भोगभूमि के जन्मे बालयुगल अंगूठा चूसने, बैठने, अस्थिर गमन करने, स्थिर गमन करने, कलागुणों की प्राप्ति तारुण्य और सम्यक्त्व की योग्यता इनमें से प्रत्येक अवस्था में कम से कम तीन दिन व्यतीत करते हैं। अर्थात् २१ दिनों में तरुण हो जाते हैं।
वहाँ के मनुष्य-तिर्यंच में कोई जातिस्मरण से कोई देवों से प्रतिबोधित होकर, कोई ऋद्धिधारी मुनियों के उपदेश से सम्यक्त्व को ग्रहण करते हैं। वे भोगभूमिज, चौंसठ कलाओं से सहित परस्पर के वैर विरोध से रहित मृदु-मधुर भाषी होते हैं।वहाँ के व्याघ्र आदि पशुगण मधुर कल्पवृक्षों के ही फलों का, तृण, कंद, अंकुरादि का उपयोग करते हैं। माँसाहारी नहीं हैं। यहाँ के जीव सुवर्ण की कांति सदृश कांति वाले हैं काल के प्रारंभ से अंत तक यहाँ पर धीरे-धीरे आयु, शरीर की ऊँचाई आदि से ह्रास होने लगता है।