मिथ्यात्व में रत, मन्दकषायी, मिथ्या देवों की भक्ति में तत्पर, विषम पंचाग्नि तप तपने वाले, सम्यक्त्व रत्न से रहित जीव मरकर कुमानुष होते हैं। जो लोग तीव्र अभिमान से गर्वित होकर सम्यक्त्व और तप से युक्त साधुओं का िंकचित् अपमान करते हैं, जो दिगम्बर साधु की िंनदा करते हैं, ऋद्धि रस आदि गौरव से युक्त होकर दोषों की आलोचना गुरु के पास नहीं करते हैं, गुरुओं के साथ स्वाध्याय, वंदना कर्म नहीं करते हैं, जो मुनि एकाकी विचरण करते हैं, क्रोध, कलह से सहित हैं, अरहंत गुरु आदि की भक्ति से रहित चतुर्विध संघ में वात्सल्य से रहित, मौन बिना भोजन करने वाले, जो पाप में संलग्न हैं वे मृत्यु को प्राप्त होकर विषम परिपाक वाले, पाप कर्मों के फल से इन द्वीपों में कुत्सित रूप से युक्त कुमानुष उत्पन्न होते हैं। त्रिलोकसार में भी यह कहा है-
दुब्भावअसूचिसूदकपुफ्फवई-जाइसंकरादीहिं।
कयदाणा वि कुवत्ते जीवा कुणरेस जायंते।।९२४।।
अर्थ—खोटे भाव से सहित, अपवित्र, मृतादि के सूतक पातक से सहित, रजस्वला स्त्री के संसर्ग से सहित, जातिसंकर आदि दोषों से दूषित मनुष्य जो दान करते हैं और जो कुपात्रों में दान देते हैं ये जीव कुमानुष में उत्पन्न होते हैं, क्योंकि ये जीव मिथ्यात्व और पाप से सहित किंचित् पुण्य उपार्जन करते हैं। अत: कुत्सित भोग भूमि में जन्म लेते हैं। इनकी आयु एक पल्य प्रमाण रहती है। एक कोस ऊँचे शरीर वाले हैं। युगलिया होते हैं। मरकर नियम से भवनत्रिक देवों में जन्म लेते हैं। कदाचित् सम्यक्त्व को प्राप्त करके ये कुमनुष्य सौधर्म युगल में जन्म लेते हैं।
लवण समुद्र के दोनों ओर तट हैं लवण समुद्र में ही पाताल हैं अन्य समुद्रों में नहीं है। लवण समुद्र के जल की गहराई और ऊँचाई में हीनाधिकता है अन्य समुद्रों के जल में नहीं है। सभी समुद्रों के जल की गहराई सर्वत्र हजार योजन है और ऊपर में जल समतल प्रमाण है। लवण समुद्र का जल खारा है। लवण समुद्र में जलचर जीव पाये जाते हैं लवण समुद्र के मत्स्य नदी गिरने के स्थान पर ९ योजन अवगाहना वाले एवं मध्य में १८ योजन प्रमाण हैं। इसमें कछुआ, शिशमार, मगर आदि जलजंतु भरे हैं।
पद्म पुराण में रावण की लंका को लवण समुद्र में माना है अत: इस समुद्र में और भी अनेकों द्वीप हैं जैसा कि पद्मपुराण में स्पष्ट है यथा-
अस्त्यत्र लवणांभोधौ क्रूरग्राहसमाकुलै।
प्रख्यातो राक्षसद्वीप: प्रभूताद्भुतासंकुल:।।१०६।।
शतानि सप्त…….-१०७ से ११६ तक पद्मपुराण, ४८ पर्व।
अर्थ-दुष्ट मगर-मच्छों से भरे हुये इस लवण समुद्र में अनेक आश्चर्यकारी स्थानों से युक्त प्रसिद्ध ‘राक्षसद्वीप’ है।
जो सब ओर से सात योजन विस्तृत है तथा कुछ अधिक इक्कीस योजन उसकी परिधि है उसके बीच में सुमेरु पर्वत के समान त्रिकूट नाम का पर्वत है जो नौ योजन ऊँचा और ५० योजन चौड़ा है, सुवर्ण तथा नाना प्रकार की मणियों से दैदीप्यमान एवं शिलाओं के समूह से व्याप्त है। राक्षसों के इंद्र भीम ने मेघवाहन के लिये वह दिया था। तट पर उत्पन्न हुये नाना प्रकार के चित्र-विचित्र वृक्षों से सुशोभित उस त्रिकूटाचल के शिखर पर लंका नाम की नगरी है जो मणि और रत्नों की किरणों तथा स्वर्ग के विमानों के समान मनोहर महलों एवं क्रीड़ा आदि के योग्य सुंदर प्रदेशों से अत्यंत शोभायमान है। जो सब ओर से तीस योजन चौड़ी है तथा बहुत बड़े प्राकार और परिखा से युक्त होने के कारण दूसरी पृथ्वी के समान जान पड़ती है।
लंका के समीप में और भी ऐसे स्वाभाविक प्रदेश हैं जो रत्न, मणि तथा स्वर्ण से निर्मित हैं। वे सब प्रदेश उत्तमोत्तम नगरों से युक्त हैं राक्षसों की क्रीड़ा भूमि हैं तथा महाभोगों से युक्त विद्याधरों से सहित हैं। संध्याकार, सुवेल, कांचन, ह्रादन, योधन, हंस, हरिसागर और अर्द्धस्वर्ग आदि अन्य द्वीप भी वहाँ विद्यमान हैं जो समस्त ऋद्धियों तथा भोगों को देने वाले हैं, वन-उपवन आदि से विभूषित हैं तथा स्वर्ग प्रदेशों के समान जान पड़ते हैं।
छठे पर्व में ६२ से ८२ तक वर्णन है-
इस लवण समुद्र में बहुत से द्वीप हैं जहाँ कल्पवृक्षों के समान वाले वृक्षों से दिशायें व्याप्त हो रही हैं इन द्वीपों में अनेकों पर्वत हैं जो रत्नों से व्याप्त ऊँचे-ऊँचे शिखरों से सुशोभित हैंं। राक्षसों के इंद्र भीम, अतिभीम तथा उनके सिवाय अन्य देवों के द्वारा आपके वंशजों के लिये ये सब द्वीप और पर्वत दिये गये हैं ऐसा पूर्व परंपरा से सुनने में आता है। उन द्वीपों में अनेक नगर हैं। उन नगरों के नाम-संध्याकार, मनोल्हाद, सुवेल, कांचन, हरि, योधन, जलधिध्वान, हंसद्वीप, भरक्षम, अर्धस्वर्गोत्कट, आवर्त, विघट, रोधन, अमल, कांत, स्फुटतट, रत्नद्वीप, तोयावली, सर, अलंघन, नभोभानु और क्षेम इत्यादि सुंदर-सुंदर हैं।
यहाँ वायव्य दिशा में समुद्र के बीच तीन सौ योजन विस्तार वाला, बड़ाभारी वानरद्वीप है। उसमें महा मनोहर हजारों अवांतर द्वीप हैं। उस वानर द्वीप के मध्य में रत्न सुवर्ण की लम्बी, चौड़ी, शिलाओं से सुशोभित ‘किष्कु’ नाम का बड़ा भारी पर्वत है। जैसे यह त्रिकूटाचल है वैसे ही वह किष्कु पर्वत है इत्यादि। इस प्रकरण से यह ज्ञात होता है कि इस समुद्र में और भी अनेक द्वीप विद्यमान हैं।लवण समुद्र की जगती ८ योजन ऊँची, मूल में १२ योजन, मध्य में ८ एवं ऊपर में ४ योजन प्रमाण विस्तार वाली है। इसके ऊपर वेदिका, वनखंड, देव नगर आदि का पूरा वर्णन जम्बूद्वीप की जगती के समान है। इस जगती व्ाâे अभ्यंतर भाग में शिलापट्ट और बाह्यभाग में वन है। इस जगती की बाह्य परिधि का प्रमाण १५८११३९ योजन प्रमाण है। यदि जम्बूद्वीप प्रमाण १-१ लाख के खंड किये जावें तो इस लवणसमुद्र के जम्बूद्वीप प्रमाण २४ खंड हो जाते हैं।