आनत आदि चार स्वर्गों में ६ इंद्रक हैं उसमें अन्तिम इंद्रक का नाम ‘अच्युत’ है उसकी दक्षिण श्रेणी में स्थित छठे श्रेणीबद्ध विमान में २०००० योजन विस्तृत ‘आरण नगर’ है उसके प्राकार का अवगाह २-१/२ योजन विस्तार १/२ योजन ऊँचाई ८० योजन है। इनकी प्रत्येक दिशा में १००-१०० गोपुर द्वार हैं। सभी द्वार ३० योजन विस्तृत, १०० योजन ऊँचे हैं। उस नगर में जो आरण इंद्र का प्रासाद है वह २५ योजन नींववाला, ५० योजन विस्तृत, २५० योजन ऊँचा है। उसकी देवियाँ २०६३ हैं उनमें ८ अग्र देवियाँ और ‘जिनदत्ता’ नाम की वल्लभा देवी है। देवियों के भवन २० योजन जड़ वाले, ४० योजन विस्तृत २०० योजन ऊँचे हैं। वल्लभा देवियों के प्रासाद प्रमाण में देवियों के भवनों के समान हैं। ऊँचाई में २२० योजन ऊँचे हैं।
अच्युत इंद्रक के उत्तर में स्थित छठे श्रेणीबद्ध में अच्युतइंद्र रहता है। जो आरण इंद्र के समान है। उसकी ‘जिनदासी’ नाम की वल्लभा देवी है।
लोक विभाग में सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, अच्युत ये १४ इंद्र के नगर माने जाते हैं। तिलोयपण्णत्ति में सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लांतव, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत ये १२ इंद्रों के नगर बताये हैं।१ यथा
प्रथम स्वर्ग युगल के ३१ इंद्रकों में से अंतिम ‘प्रभ’ इंद्रक की दक्षिण श्रेणी में बत्तीस श्रेणीबद्ध विमानों में से अठारहवें में सौधर्म इंद्र है। इसी इंद्रक की उत्तर दिशा में ३२ श्रेणीबद्ध में से अठारहवें में ईशान इंद्र है।सानत्कुमार युगल के ७ इंद्रक में से अंतिम ‘चक्र’ इंद्रक’ की दक्षिण पंक्ति में २५ श्रेणीबद्ध विमानों में से सोलहवें में सानत्कुमार इन्द्र है इसी इंद्र की उत्तर दिशा में २५ श्रेणीबद्धों में से सोलहवें में माहेन्द्र इन्द्र है।
ब्रह्म युगल के ब्रह्मोत्तर इंद्र की दक्षिण दिशा में २१ श्रेणीबद्धों में से चौदहवें श्रेणीबद्ध में ‘बह्मेन्द्र’ रहता है।
लांतव युगल के लांतव इंद्रक की दक्षिण दिशा २० श्रेणीबद्धों में से बारहवें श्रेणीबद्ध में ‘लांतवेन्द्र’ रहता है।
शुक्र युगल के महाशुक्र इंद्रक की उत्तर दिशा में अठारह श्रेणीबद्धों में से दसवें श्रेणीबद्ध में ‘महाशुक्र इंद्र’ रहता है।
शतार युगल में सहस्रार इंद्रक की उत्तर दिशा में सत्रह श्रेणीबद्धों में से आठवें श्रेणीबद्ध में ‘सहस्रार इंद्र’ रहता है।
जिनेन्द्र भगवान से देखे गये नाम१ वाले इंद्रक की दक्षिण पंक्ति के श्रेणीबद्धों में से छठे श्रेणीबद्ध में ‘आनत इंद्र’ निवास करता है।
इस इंद्रक की उत्तर दिशा में इतनी ही संख्या प्रमाण श्रेणीबद्धों में से छठे श्रेणीबद्ध में ‘प्राणत इंद्र’ निवास करता है।
आरण इंद्रक की दक्षिण दिशा में ११ श्रेणीबद्धों में से छठे श्रेणीबद्ध में ‘आरण इंद्र’ रहता है। उसी इंद्रक की उत्तर दिशा के ग्यारह श्रेणीबद्धों में से छठे श्रेणीबद्ध में ‘अच्युत इंद्र’ का आवास है।
लोक विभाग में भी कल्प १२ ही माने हैं यथा-सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लांतव, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत।
त्रिलोकसार में भी सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र ये चार कल्प, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर इन दो कल्पों को मिलाकर एक इंद्र है, अत: एक कल्प लांवत, कापिष्ठ इन दो में भी एक इंद्र, शुक्र, महाशुक्र दो में भी एक इंद्र और शतार-सहस्रार इन दो के मिलकर एक इंद्र ऐसे मध्य आठ स्वर्गों के चार इंद्र की अपेक्षा चार कल्प आगे आनत, प्राणत, आरण, अच्युत ये चार कल्प ऐसे १२ कल्प होते हैं, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर युगल, लांतव कापिष्ठ युगल, शुक्र-महाशुक्र युगल और शतार-सहस्रार युगल इन चार युगलों में एक-एक इंद्र हैं यहाँ वसती की अपेक्षा दो-दो नाम हैं, इंद्र की अपेक्षा से नहीं हैं। आगे आनत-आरण दक्षिण इंद्र हैं और प्राणत-अच्युत उत्तर इंद्र हैं।
बारह प्रकार के कल्पों के १२ इंद्र पूर्वोपार्जित पुण्य के परिपाक से उत्तम रूप के धारक और दस प्रकार के परिवार से युक्त होते हैं। प्रतीन्द्र, सामानिक, त्रायस्ंित्रश, लोकपाल, तनुरक्ष, पारिषद, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक ये उपर्युक्त दस प्रकार के परिवार देव हैं।
एक-एक इंद्र के एक-एक प्रतीन्द्र होते हैं वे आज्ञा, ऐश्वर्य के सिवाय बाकी के सभी वैभव में इन्द्र के सदृश होते हैं।