देव पूर्वोपार्जित पुण्य से देवगति नाम कर्म के उदय से जीवन सुरलोक के भीतर उपपाद गृह में महार्घ शय्या पर उत्पन्न होते हैं और एक मुहूर्त में छहों पर्याप्तियों को प्राप्त करके नव यौवन संपन्न शरीर वाले हो जाते हैं। देवों के शरीर में नख, केश, रोम, चर्म, माँस, हड्डी, चर्बी, रुधिर, नसें, मल, मूत्रादि मल नहीं होते हैं। प्रत्युत दिव्य वैक्रियक शरीर होता है।
देव विमान में उत्पन्न होने पर पूर्व में बिना खोले किवाड़ युगल खुल जाते हैं और उसी समय आनंद भेरी शब्द पैâलता है। भेरी शब्द को सुनकर परिवार के देव देवियाँ ‘जय जय नंद’ ऐसे विविध शब्दों को बोलते हुए आते हैं। किल्विष देव जय घंटा, पटह आदि बजाते हैं, गंधर्व देव नृत्य करते हैं। इन सब देव देवियों को देखकर वह देव कौतुक करता है और उसे तत्क्षण विभंगज्ञान या अवधिज्ञान प्रकट हो जाता है। कितने ही मिथ्यादृष्टि देव इस वैभव को पुण्य का फल समझकर सम्यक्त्व को ग्रहण कर लेते हैं।
कोई देव महाविभूति के साथ स्वयं ही जिन पूजा का उद्योग करते हैं एवं कितने देव अन्य देवों के उपदेशवश जिन पूजा करते हैं। द्रह में स्नान कर दिव्य अभिषेक मंडप में प्रविष्ट हुये सिंहासन पर आरूढ़ इस नवजात देव का अन्य देवगण अभिषेक करते हैंंं। भूषण शाला में प्रवेश कर रत्न भूषणों से वेशभूषा करते हैं। पुन: व्यवसायपुर में प्रवेश कर दिव्य चंदन अक्षत आदि द्रव्यों को लेकर परिवार से संयुक्त हो जिनेन्द्रभवन में जाते हैं। वहाँ प्रदक्षिणा करके ‘जय जय’ कार करते हुए जिन दर्शन करके क्षीर समुद्र के जल से भरे १००८ कलशों से जिन प्रतिमा का अभिषेक करते हैं। पुन: विधिवत पूजा अर्चन आदि करके भृंगार चंवर आदि उपकरणों से पूजा करके नाटक आदि अभिनय करते हैं।
सम्यग्दृष्टी देव कर्म क्षय के निमित्त भक्ति सहित जिन पूजा करते हैं एवं मिथ्यादृष्टि देव अन्य देवों के संबोधन से ‘ये कुल देवता हैं’ ऐसा मानकर जिन पूजा करते हैं। पूजा करके आकर वे देवेन्द्र अपने भवनों में आकर सिंहासन पर विराजते हैं।