गौड़ देश के अन्तर्गत ताम्रलिप्ता नगरी में एक जिनेन्द्रभक्त सेठ रहते थे। उनके घर में सातवीं मंजिल पर पार्श्वनाथ चैत्यालय था जिसमें रत्ममयी प्रतिमा के ऊपर छत्र में बहुमूल्य वैडूर्यमणि रत्न लगा हुआ था। एक दिन चोरों के सरदार ने कहा कि सेठ के यहाँ का वैडूर्यमणि कौन ला सकता है ? उनमें से एक सूर्यक नाम के चोर ने हामी भर ली। पुन: वह चोर मायावी क्षुल्लक बनकर वहाँ पहुँच गया और खूब उपवास आदि करते हुए सेठ जी के चैत्यालय में रहने लगा। किसी समय सेठ जी धन कमाने के लिए बाहर जाने लगे। तब क्षुल्लक जी की इच्छा न होते हुए भी उनको चैत्यालय की रक्षा का भार सौंप दिया। सेठ जी चले गये और उस दिन गांव के बाहर ही डेरा डाल दिया। इधर आधी रात में क्षुल्लक जी वैडूर्यमणि लेकर भागे। रत्न की चमक से नौकरों ने उनका पीछा किया तब वे दौड़ते हुए गांव के बाहर उन्हीं सेठ के डेरे में घुस गये।
चोर-चोर-चोर-का हल्ला सुनते ही सेठ जी ने क्षुल्लक जी को देखा, तब नौकर से बोले-अरे भाई ! मैंने तो क्षुल्लक जी से यह रत्न यहाँ मंगवाया था, तुम लोग इन्हें चोर क्यों कह रहे हो? नौकर चुपचाप चले गये। इसके बाद सेठ जी ने क्षुल्लक जी को खूब फटकारा और कहा-पापी, तू धर्मात्मा बनकर ऐसा पाप करते हुए नरकों में जायेगा। पुन: रत्न लेकर उसे भगा दिया।
देखो! यदि सेठ जी बात बनाकर उस क्षुल्लक के दोष को नहीं छिपाते तो नौकर धर्म और धर्मात्माओं की हंसी उड़ाते। इसीलिए किसी के दोष को ढक लेना चाहिए और उसे एकान्त में सुधारने की कोशिश करनी चाहिये।