किसी समय वारिषेण मुनिराज पलासकूट ग्राम में आहारार्थ आए। मंत्रीपुत्र पुष्पडाल ने उन्हें आहार दिया और उनको पहुँचाने के लिए कुछ दूर तक साथ चलने लगा। मुनिराज उसे स्थान तक साथ ले आए। पुनः बचपन के मित्र होने से वैराग्य का उपदेश देकर दीक्षा दिला दी, किन्तु पुष्पडाल मुनिराज अपनी स्त्री को नहीं भुला सके। धीरे-धीरे बारह वर्ष बीत गये।
किसी समय ये दोनों साधु राजगृही आ गए। तब पुष्पडाल अपनी स्त्री से मिलने के लिए निकले। मुनिराज वारिषेण उनके अन्तरंग को समझकर साथ ही चल पड़े और वे सीधे अपने राजघराने में पहुँच गए। रानी चेलना ने वारिषेण पुत्र को घर आया देख कुछ शंकित होते हुए दो प्रकार के आसन लगा दिए। वारिषेण मुनिराज काष्ठासन पर बैठ गए और बोले माता! सभी मेरी स्त्रियों को बुलाओ। वे सब आ गईं, तब मुनिराज ने कहा-मित्र! ये मेरी बत्तीस स्त्रियाँ हैं और यह वैभव है। तुम इसे ले लो, इसका उपभोग करो। उसी समय पुष्पडाल को वास्तविक वैराग्य हो गया।
उसने कहा-प्रभो! आपने मोक्ष सुख के लिए इस अतुल वैभव को तृणवत् त्यागा है और मैं मूढ़ एक स्त्री के मोह को नहीं छोड़ सका। अनन्तर वन में पहुंचकर वारिषेण ने उन्हें यथोचित प्रायश्चित से शुद्धकर वापस मुनिपद में स्थिर कर दिया। तब पुष्पडाल ने भी घोर तपश्चरण करके अपने आपको पवित्र बना लिया।