आकिंवणु भावहु अप्पउ ज्झावहु, देहहु भिण्णउ णाणमउ।
णिरूवम गय—वण्णउ, सुह—संपण्णउ परम अतिंदिय विगयभउ।।
आिंकचणु वउ संगह—णिवित्ति, आिंकचणु वउ सुहझाण—सत्ति।
आिंकचणु वउ वियलिय—ममत्ति, आिंकचणु रयण—त्तय—पवित्ति।।
आिंकचणु आउंचियइ चित्तु पसरंतउ इंदिय—वणि विचित्तु।
आिंकचणु देहहु णेह चत्तु, आिंकचणु जं भव—सुह विरत्तु।।
तिणमित्तु परिग्गहु जत्थ णत्थि, आिंकचणु सो णियमेण अत्थि।
अप्पापर जत्थ विचार—सत्ति, पयडिज्जइ जिंह परमेट्ठि—भत्ति।।
छंडिज्जइ जिंह संकप्प दुट्ठ, भोयणु वंछिज्जइ जिंह अणिट्ठ।
आिंकचणु धम्मु जि एम होइ तं जझाइज्जइ णिरू इत्थ लोइ।।
—घत्ता—
एहु जि पहावें लद्धसहावें तित्थेसर सिव—णयरि गया।
गय—काम—वियारा पुण रिसि—सारा वंदणिज्ज ते तेण सया।।
अर्थ—आिंकचन्य धर्म की भावना करो कि यह आत्म शरीर से भिन्न है, ज्ञानमयी है, उपमा रहित है, वर्ण रहित है, सुख संपन्न है, परम—उत्कृष्ट है, अतींद्रिय है और भयरहित है, इस प्रकार से आत्मा का ध्यान करो, यही आिंकचन्य है।सर्व परिग्रह से निवृत्त होना आिंकचन्य व्रत है, शुभध्यान करने की शक्ति का होना आिंकचन्यव्रत है, ममत्त्व से रहित होना आकिंचन्य व्रत है और रत्नत्रय में प्रवृत्ति होना आिंकचन्य व्रत है।आकिंचन्य व्रत विचित्र इंद्रियरूपी वन में दौड़ने वाले मन को आकुंचित—नियन्त्रित करता है, देह से स्नेह को छोड़ना आकिंचन्य व्रत है और जो भव सुख से विरक्त होना है वह भी आिंकचन्य व्रत है।जहाँ तृणमात्र भी परिग्रह नहीं होता वह नियम से आिंकचन्य व्रत है। जहाँ पर अपने और पर के विचार करने की (स्व—पर भेद विज्ञान) शक्ति है और जहाँ परमेष्ठी की भक्ति प्रगट होती है, जहाँ पर दुष्ट संकल्पों का त्याग किया जाता है और जहाँ पर अनिष्ट भोजन की वांछा नहीं रहती है वहीं पर आकिंचन्य धर्म होता है। अत: मनुष्य को इस लोक में निरन्तर उस आकिंचन्य धर्म का ध्यान करना चाहिए।इस आकिंचन्य धर्म के प्रभाव से अपने स्वभाव को प्राप्त करके तीर्थंकरों ने शिवनगर को प्राप्त कर लिया है। इसी धर्म से काम विकार से रहित हुये ऋषिगण सदा वंदनीय हैं।
अकिञ्चनो न मे िंकचित् आत्मानंत गुणात्मक:।
परद्रव्यात् सदा भिन्नस्त्रैलोक्याधिपतिर्महान्।।१।।
अणुमात्रं परं स्वस्य, मत्वा जीवो भवे भ्रमेत्।
कायेऽपि निर्ममो भूयात् लोकाग्रे निवसेत्तदा।।२।।
जमदग्निमुनिर्मिथ्यातापसोऽभूत् परिग्रही।
भवाब्धौ पतितो दीर्घभारै: स्यात्कथमूर्ध्वग:।।३।।
पिच्छि कमंडलू शास्त्रं गृण्हाति देहनि: स्पृह:।
आतापनादियोगेषु तिष्ठेत् स्वात्मैक्यसंगत:।।४।।
भगवन् ! त्वत्प्रसादान्मे शक्ति: प्रादुर्भवेत्त्वरम्।
गिरिकंदर दुर्गेषु स्वं ध्यायन, सिद्धि माप्नुयाम्।।५।।
‘उपात्तेष्वपि शरीरादिषु संस्कारापोहाय ममेदमित्यभिसंधि निवृत्ति- राकिञ्चन्यम्।’ जो शरीर आदि अपने द्वारा ग्रहण किये हुये हैं उनमें संस्कार को दूर करने के लिए ‘यह मेरा है’ इस प्रकार के अभिप्राय का त्याग करना आकिञ्चन्य है। ‘नास्य किञ्चनास्त्यकिञ्चन:, तस्य भाव: कर्म वा आकिञ्चन्यम्’। इसका कुछ नहीं है वह अिंकचन है और अिंकचन का भाव या कर्म आकिञ्चन्य है।‘न मे किञ्चन अकिञ्चन:’ मेरा कुछ भी नहीं है अत: मैं अकिञ्चन हूँ। फिर भी मेरी आत्मा अनंतगुणों से परिपूर्ण है। मैं सदा परद्रव्य से भिन्न हूँ और तीन लोक का अधिपति महान् हूँ। यह अणुमात्र भी परवस्तु को जब तक अपनी मानता रहता है तब तक संसार में भ्रमण करता रहता है। और जब काय से भी निर्मम हो जाता है तब लोक के अग्र भाग में विराजमान हो जाता है। जमदग्नि मुनि ने मिथ्यातापसी होकर स्त्री आदि का परिग्रह स्वीकार कर लिया अत: वह संसार समुद्र में डूब गया। सच है, दीर्घ भार लेकर मनुष्य ऊपर वैâसे गमन कर सकता है ? शरीर से भी नि:स्पृह हुये साधु पिच्छी, कमंडलु और शास्त्र को ग्रहण करते हैं फिर भी अपनी आत्मा में एकाग्र होते हुये आतापन आदि योगों में स्थित हो जाते हैं। हे भगवन्! आपके प्रसाद से शीघ्र ही मुझे में ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जावे कि मैं पर्वत पर, कन्दराओं में और दुर्ग आदि प्रदेशों में अपनी आत्मा का ध्यान करते हुये सिद्धि पद को प्राप्त कर लेऊँ।।१ से ५।। ऐसी भावना सदा भाते रहना चाहिए।
जो भव्य जीव संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर गृह का त्याग कर देते हैं वे ही महासाधु अिंकचन कहलाते हैं। पुन: अपनी रत्नत्रय निधि को संभालकर तीन लोक के नाथ हो जाते हैं, कहा भी है—
अिंकचनोऽहमित्यास्व त्रैलोक्याधिपतिर्भवेत्।
योगिगम्यं तवप्रोक्तं रहस्यं परमात्मन:१।।११०।।
हे भव्य! तू मेरा कुछ भी नहीं है, ऐसी भावना के साथ स्थित हो। ऐसा होने पर तू तीन लोक का स्वामी (सिद्ध परमेष्ठी) हो जावेगा। यह तूझे परमात्मा का रहस्य बतला दिया है जो कि केवल योगियों के द्वारा ही प्राप्त करने योग्य है या उनके ही अनुभव का विषय है।अभिप्राय यही है कि त्याग से तीन लोक की सम्पत्ति, रूप, अनंतगुण प्राप्त हो जाते हैं।एक समय था जब राजा लोग नियम से राज्य को छोड़कर जैनेश्वरी दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त कर लेते थे। देखो! भगवान् आदिनाथ के पुत्र भरत ने वैâलाश पर्वत से मोक्ष प्राप्त किया। पुन: उनके पुत्र अर्ककीर्ति ने अपने पुत्र को राज्य देकर मोक्ष प्राप्त किया। ऐसे ही भरत को आदि लेकर चौदह लाख इच्छवाकु वंशीय राजा लगातार मोक्ष गये हैं। उसके बाद एक राजा सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र हुये फिर अस्सी राजा माेक्ष गये परन्तु उनके बीच में एक—एक राजा इन्द्रपद को प्राप्त होता रहा२।
इस समय तो इस कलिकाल में तीन लोक की रक्षा करने वाले ऐसे केवली भगवान् नहीं हैं, फिर भी इस भरत क्षेत्र में जगत में उद्योत करने वाले ऐसे श्रेष्ठ वचन उनके विद्यमान हैं और उन वचनों का अवलंबन लेकर रत्नत्रय धारण करने वाले मुनि भी विचरण कर रहे हैं। इसलिए आज जिनदेव की वाणी सदा पूज्य है और उसकी पूजा से ऐसा समझना चाहिये कि साक्षात् जिनेन्द्र देव की ही पूजा की है३।
श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने भी मुनियों के अस्तित्व का विधान किया है—
अज्जवि तिरयणसुद्धा अप्पा झायेइ लहइ इंदत्तं।
लोयंत्तिय देवत्तं तत्थ चुदा णिव्वुिंद जंति४।।
आज भी रत्नत्रय से शुद्ध मुनि आत्मा का ध्यान कर इन्द्रपद को अथवा लौकांतिक पद को प्राप्त कर लेते हैं और वहाँ से चयकर निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं।
जो सब कुछ त्याग कर देते हैं वे ही महामुनि सब कुछ देने में समर्थ होते हैं। सो सच ही है, समुद्र से कोई भी नदी नहीं निकलती है किन्तु पर्वत से ही निकलती है।
एक दृढ़ग्राही नाम के राजा थे। हरिशर्मा नाम के ब्राह्मण के साथ उनकी घनिष्ठ मित्रता थी। किसी समय राजा को वैराग्य हो गया अत: उसने दिगम्बर मुनिराज के पास में जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। ये देखकर हरिशर्मा भी भोगों से विरक्त हुआ और जाति के संस्कार से वह तापसी हो गया। राजा ने जिनेन्द्र प्रतिपादित तपश्चरण के प्रभाव से अन्त में समाधिमरण करके सौधर्म स्वर्ग में देवपद प्राप्त कर लिया और हरिशर्मा ने अज्ञानतप करके अन्त में शरीर छोड़कर ज्योतिषी देवों में जन्म धारण कर लिया।
पूर्वभव की मित्रता के संस्कार से राजा के जीव ने अपने अवधिज्ञान से यह जानना चाहा कि मेरा मित्र कहाँ जन्मा है ? जब उसने उसे ज्योतिर्लोक में देव हुआ जाना तब वह अपने स्वर्ग से वहाँ आकर अपना परिचय देते हुये बोला—
‘‘मित्र ! देखो सम्यक्त्व का प्रभाव ! मैं इस वैमानिक देवों के कुल में जन्मा हूँ और मिथ्यात्व के निमित्त से तुम ज्योतिषी देवों के यहाँ जन्मे हो। इसलिए हे बंधु! जो मोक्ष को प्राप्त कराने में मूल कारण है ऐसे सम्यग्दर्शन को तुम ग्रहण करो।’
मित्र के ये वाक्य सुनकर ज्योतिषी देव संशय को प्राप्त होता हुआ पूछने लगा—
‘‘मित्र ! तापसियों का तप अशुद्ध क्यों है ?’’
वैमानिक देव ने कहा—
‘‘तुम पृथ्वी तल पर चलो मैं तुम्हें सब दिखाता हूँ।’’
इसके अनंतर वे दोनों मध्यलोक में आकर आपस में कुछ सलाह कर एक तापसी के निकट पहुँचे। विक्रिया से चिड़ा—चिड़िया का रूप बनाया और उस तापसी की बड़ी—बड़ी दाढ़ी में रहने लगे। वहाँ कुछ समय रहने के बाद युक्ति से चतुर सम्यग्दृष्टि देव ने अपनी भार्या चिड़िया से कहा—
‘‘प्रिये ! मैं पास के इस वन में जा रहा हूँ कुछ ही क्षण बाद वापस आ जाऊँगा अत: तुम चिन्ता नहीं करना। यहीं इसी स्थान पर रहते हुए मेरी प्रतीक्षा करना।’’
तब चिड़िया ने कहा—
‘‘आपका क्या विश्वास ! यदि वापस नहीं आये तो ?’’
चिड़ा ने कहा—
‘‘तुम जो कहो, सो मैं शपथ ले सकता हूँ मैं वापस अवश्य ही आऊँगा। िंहसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये पाँच पाप हैं इनमें से तुम जो कहो मैं उसकी शपथ ले सकता हूँ। मतलब यदि मैं वापस न आऊँगा तो मुझे हिंसा करने का जो पाप होता है सो लगे।’’
अनेक प्रकार से वह चिड़ा शपथ लेने को तैयार था किन्तु चिड़िया राजी नहीं हो रही थी। तब चिड़ा ने कहा—
‘‘अच्छा तुम्हीं कहो क्या शपथ करके जाऊँ ?’’
तब चिड़िया ने कहा—
‘‘आप यह शपथ कीजिये कि ‘यदि मैं वापस न आऊँ तो जो गति इस तापसी की होगी सो मेरी हो।’’ ‘हे प्रियतम् ! यदि तुम यह शपथ करके जाना चाहो तो में जाने दूँगी अन्यथा नहीं।’’
चिड़िया की यह बात सुनकर चिड़ा बोला—
‘‘प्रिये ! तुम इस शपथ के सिवाय और चाहे जो शपथ करा सकती हो किन्तु यह शपथ तो मैं किसी भी हालत में लेने को तैयार नहीं हूँ।’’
चिड़ा—चिड़िया का ऐसा वार्तालाप सुनकर वह तापसी क्रोध से भड़क उठा। उसका चेहरा लाल हो गया और नेत्र घूमने लगे। उसने क्रूरतावश दोनों को मारने के लिये मजबूती से अपनी दाढ़ी पकड़ ली और बोला—
‘‘अरे दुष्टों ! मेरे इतने कठोर तपश्चरण से मेरी जो भावी गति होने वाली है उसे तुम क्यों नहीं पसन्द कर रहे हो ?’’
यह सुनकर चिड़ा बोला—
‘‘महात्मा जी ! आप क्रोध न करें अन्यथा आपकी सज्जनता नष्ट हो जायेगी। देखो ना, थोड़ी सी जामिन की छाँछ से ही दूध नष्ट हो जाता है। यद्यपि आपका तपश्चरण कठोर है फिर भी आपकी दुर्गति का कारण क्या है? सो आप सुनें—
आपने जो कुमार काल से ब्रह्मचर्य व्रत पालन किया है सो सन्तान के लिए ही है और सन्तान का घात करने वाले पुरुष की नरक गति के सिवाय अन्य दूसरी गति नहीं है। देखो वेद में लिखा हुआ है कि—‘‘अपुत्रस्य गतिर्नास्ति’’ पुत्र रहित मनुष्य की कोई गति नहीं होती है। बाबा जी ? क्या आपने यह वेदवाक्य नहीं सुना है ? यदि सुना है तो फिर बिना विचारे क्यों इस तरह मूढ़ होकर क्लेश उठा रहे हो ?’’
चिड़ा की ऐसी युक्तिपूर्ण बातें सुनकर वह मंद बुद्धि तापसी अपने तप से विचलित हो गया और उसने स्त्री परिग्रह स्वीकार करने का निश्चय कर लिया। वह चिड़ा—चिड़ी को अपना परमोपकारक मानता हुआ उसी क्षण वहाँ से चल पड़ा और कान्यकुब्ज नगर के राजा पारत के राजदरबार में आ गया। महाराजा पारत इस जमदग्नि तापस के मामा थे, उसे अकस्मात् दरबार में आया देखकर उन्होंने उसके सामने दो तरह के आसन रखवाये। वह अज्ञानी तापस अपने अज्ञान को ही प्रगट करता हुआ वीतरागी काष्ठासन को छोड़कर सरागी आसन पर बैठ गया। पुन: वह अपने आने का वृतान्त राजा को बतलाते हुए बोला—
‘‘राजन ! मेरे परम सौभाग्य से किसी देवता ने प्रगट होकर मुझे सही मार्ग दिखलाया है कि तुम पहले विवाह करके पुत्र उत्पन्न करो पुन: तपश्चरण करो अन्यथा नरक जाना पड़ेगा सो मैं आपके यहाँ आपकी पुत्री की याचना करने के लिये आया हूँ।’’उस तापस की इस निर्लज्जतापूर्ण बात को सुनकर महाराज अवाक््â रह गये। पुन: मन ही मन उसके अज्ञान तप की निन्दा करते हुये बोले—‘‘जमदग्नि मुने ! मेरे सौ पुत्रियाँ हैं उनमें से तुम्हें जो वरण करना चाहे उसके साथ विवाह कर लो।’’
राजा ने ऐसा कहते हुए समझा था कि न कोई कन्या इस अर्धमृतकवत् जर्जरित शरीर वाले वृद्ध को चाहेगी और न यह यहाँ से कन्या ले जा सकेगा। किन्तु होनहार जो होनी है सो होकर ही रहती है।
उसके सामने सभी लड़कियाँ बुलाई गयीं और राजा की आज्ञा के अनुसार कंचुकी ने कहा—
‘‘पुत्रियों ! ये तापसी तुम्हारे पिता के पास तुममें से किसी कन्या की याचना के लिये यहाँ आये हैं अत: तुममें से कोई भी कन्या इसे स्वीकार करो।’’
इतना सुनते ही सभी कन्यायें उस तापसी को देखकर डर गईं और एक साथ ही सब वहाँ से भाग गईं। यह देख वह तापस बहुत ही दु:खी हुआ और पुन:—पुन: राजा से अनुनय—विनय करने लगा। तब राजा ने कहा—
‘‘ऋषे ! तुम जिस कन्या को राजी कर सको उसे ले जा सकते हो।’’
इतना सुनकर वह दरबार से बाहर निकला। कन्याओं से क्रीड़ा करने के लिये बगीचे में पहुँचा। वहाँ पर एक छोटी सी राजकन्या धूलि में खेल रही थी। उसके निकट जाकर और एक केला दिखाकर उससे बोला—
‘‘यदि तू मुझे चाहेगी तो वह केला मैं तुझे दूँगा।’’ बेचारी अबोध बालिका कुछ भी नहीं समझती थी अत: वह बोली—
‘‘हाँ, मैं तुम्हें चाहूँगी।’’बस फिर क्या था उस मूढ़ ने उसे केला दिया और झट से गोद में लेकर राजा के निकट पहुँचकर बोला—
‘‘राजन ! यह लड़की मुझे चाहती है।’’महाराज ने अपना माथा ठोक लिया, बेचारे कर ही क्या सकते थे ? वह जमदग्नि उस लड़की को लेकर अपने वन की ओर चला जा रहा था और देखने वाले लोग उसकी निन्दा कर रहे थे। कुछ दिनों तक उसने उस बालिका को पाल—पोस कर बड़ी किया पुन: युवती होने पर उसके साथ विवाह करके वन में ही आश्रम बनाकर रहने लग गया।उसी समय से तापसाश्रम में रहकर तापसी बनकर तपश्चरण करने की प्रथा चल पड़ी है। आगे चलकर इस जमदग्नि तापसी के दो पुत्र हुये जिनके इन्द्र और श्वेतराम ये नाम रखे गये। इनमें से ही बड़े पुत्र ने अपनी परशु विद्या के प्रभाव से अयोध्या के राजा सहस्रबाहु को मारकर बहुत दिनों तक राज्य किया है और अपने राज्यकाल में इक्कीस बार क्षत्रिय वंश को निर्मूल नाश किया है। परशु विद्या के प्रभा से परशुराम इस नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुये इस ऋषि पुत्र को सुभौम नामक क्षत्रिय पुत्र ने मार कर चक्रवर्ती पद को प्राप्त किया था।
आचार्य कहते हैं, इस भोग वासना की िंनद्यबुद्धि को धिक्कार हो। कि जहाँ स्त्री, पुत्र आदि परिग्रह रखकर भी मूढ़ लोग अपने को तपस्वी मान लेते हैं। क्या वे इस परिग्रह के भार को लेकर संसार समुद्र को पार कर सकते हैं? नहीं। ऐसा समझकर निर्ग्रंथ मुद्रा को ही मोक्षमार्ग मानना चाहिये और इस आिंकचन्य धर्म की उपासना करके अपने आत्मगुणों को विकसित करना चाहिये।
जाप्य—ॐ ह्रीं उत्तमआिंकचन्यधर्माङ्गाय नम:।
निंह िंकचित् भी तेरा जग में, यह ही आकिंचन भाव कहा।
बस एक अकेला आत्मा ही, यह गुण अनन्त का पुँज अहा।।
अणुमात्र वस्तु को निज समझें, वे नरक निगोद निवास करें।
जो तन से भी ममता टारें, वे लोक शिखर पर वास करें।।१।।
जमदग्नि मिथ्या तापस ने, निज ब्याह रचा था आश्रम में।
परिग्रह का पोट धरा शिर पर, बस डूब गया भवसागर में।।
जिनमत के मुनिगण सब परिग्रह, तज दिग अम्बर को धरते हैं।
बस पिच्छी और कमंडल लेकर, भवसागर से तिरते हैं।।२।।
धन्य—धन्य महामुनि वे जग में, गिरि शिखरों पर तप करते हैं।
वे जग में रहते हुए सदा निज, में ही विचरण करते हैं।।
ग्रीष्म में पर्वत चोटी पर, सर्दी में सरिता तट तिष्ठें।
वर्षा में तरुतल ध्यान धरें, निश्चलतन से परिषह सहते।।३।।
मैं काल अनादि से अब तक, एकाकी जन्म मरण करता।
एकाकी नरक निगोदों के, चारों गतियों के दुख सहता।।
इस जग में जितने भी भव हैं, मैं उन्हें अनन्तों बार धरा।
बस मेरा निर्मम एक शुद्ध पद, उसे न अब तक प्राप्त करा।।४।।
भगवन् ! ऐसी शक्ति दीजे, मैं निर्मम हो वनवास करूँ।
आतापन आदि योग धरूँ, भवभव का त्रास विनाश करूँ।।
उपसर्ग परीषह आ जावें, मुझको निंह किंचित् भान रहे।
हो जाय अवस्था ऐसी ही, बस मेरा ही इक ध्यान रहे।।५।।