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१.अहिंसा का सीधा अर्थ है किसी भी प्राणी का वध नहीं करना।जीना सबको प्रिय है मरना कोई नहीं चाहता।
२. जो खुद अहिंसा को पसंद करे परन्तु औरो के लिए हिंसामय प्रयोग करें उसे प्रकृति मंजूर नहीं करती उससे रुष्ट हो जाती है।
३. किसी को नहीं मारना चाहिये या कष्ट नहीं देना यह अहिंसा का प्रथम पहलू है, तो दूसरा पहलू है किसी भी कष्ट में पडे हुए के कष्ट का निवारण करने का यथाशक्ति प्रयत्न करना। ये दोनों ही बातें साधक में एक साथ होना चाहिए तभी वह अहिंसक बन सकता है।
४. आज दुनिया के लोग कीडे—मकोडे को मारने में पाप समझते है सो तो ठीक है , परन्तु किसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, मेरा बर्ताव सामने वाले के साथ कैसा उल्टा होता है, उसे निराकुल होने के बदले कष्ट में डालने का विचार होता है तो वह अहिंसक नहीं है।
५. प्रेम अहिंसा का संजीवन माना गया है । लेकिन आज परस्पर में प्रेम का भाव लोगों के दिल से उठता जा रहा है।
६. अहिंसा धर्म का पालन करने वाला समझता है कि सत्य बोलना ही विश्वास का मूलाधार है और विश्वास ही अहिंसा की प्रधान भूमिका है।
७. कुछ लोगों की वृत्ति मक्खी के समान होती है जो अपने जीवन का उत्सर्ग अर्थ (त्याग) कर दूसरों मनुष्यादि के मुख में जाकर उसके मिष्टान को वमन करा देती है। वैसे आज कुछ लोक स्वयं का नुकसान करके दूसरों की हानि का कार्य करते हैं।
८. जैसे हम लोगों को सदा जीवित रहने की इच्छा होती है, वैसे ही कीडे— मकोडों को भी जीवित रहने की इच्छा होती है, मरने को कोई भी पसन्द नहीं करता। ऐसी दशा में मनुष्य स्वयं जीवित रहने के लिए दूसरे निरपराध जीवों को मारे यह कैसेठीक हो सकता है।
९. जो आदमी अपने आपके मरण के नाम को सुनकर काँपने लग जाता है, वही दूसरे प्राणियों को कठोरता के साथ मारने के लिए तत्पर हो वह कैसे सुधीवर (अच्छी बुद्धिवाला) हो सकता है ?
१०. अहिंसा का फल संसार के समक्ष स्पृष्ट करके दिखलाया गया है, जिसको देखकर या स्वयं पढ़कर बुद्धिमान सज्जन लोग शीघ्र ही स्वर्ग के भागी बनते है, अत: मोह त्याग करके प्रसन्नता पूर्वक तप करने का विचार करना चाहिए।
११. अहिंसा रुपी अधिष्ठात्री देवी को प्रसन्न करने के लिये साधु को चाहिए कि वह अपने जीवन में तीन गुप्तियों का अनुभव करता हुआ , अपने शयन— आसन आदि के विषय में दृढता से यत्नाचार करे, और आलोकित—पान भोजन के साथ ईर्या समिति का पालन करे।
१२. अहिंसा व्रत को तुम धर्म रूपी वृक्ष की मूल (जड) जानो, सत्य को विशाल स्कन्ध, अचौर्य को शाखायें, ब्रह्मचर्य को पत्तों की उत्पत्ति, निग्र्रन्थता परिग्रह त्याग का पुष्प और संसार पार करने को निर्मल फल जानना चाहिए। ऐसे अहिंसा जिसमें विद्यमान है, हम उस धर्म वृक्ष की स्तुति करते है।
१३. अपने जीवन को सुधारने के लिए मनुष्य को समीचीन साधुओं का संसर्ग प्राप्त करना चाहिए।
१४. साधुओं का समागम तो व्यक्ति के जीवन में चमत्कार लाने के लिए जादू का कार्य करता है जैसा कि लोहे के टुकडे के लिए पारस का संसर्ग।
१५. विनयशील मनुष्य को चाहिए कि साधुओं का सम्पर्क प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहें और प्राप्त हो जाने पर यथाशक्य उससे लाभ उठाने में न चूके ऐसा करने से ही मनुष्य अपने जीवन को सफल और सार्थक बना सकता है।
१६. मनुष्य का मन इतना चंचल है कि वह क्षण भर में कहीं से कहीं पहुँच जाता है। इसके नियंत्रण के लिए तो सतत साधु संगति और सत्साहित्यावलोकन के सिवाय और कोई भी उपाय नहीं है।
१७. एक साधुसेवी के संसर्ग में जाने से जब दानव भी मानव बन जाता है , तो फिर साधु समागम की महिमा का तो कहना ही क्या है ? उसके तो गीत , वेद— पुराणों में जगह—जगह पर गाये गये हैं।
१८. अपने आपको सुधारने के लिए साधु संगति करना ही चहिए, जिससे कि मनुष्य का मन धैर्य, क्षमादि गुणों को पाकर बलवान होता है।
१९. संत समागम एवं समीचीन आगम के अभ्यास से जिसका मोह गल गया है वह तो ऐसा विचारता है कि आनंद तो आत्मा का गुण है जो कि आत्मा में है।
२०. जैसे जल की एक बिन्दु सी के भीतर जाकर मोती बन जाती है और पारस पाषाण का योग पाकर लोहा भी सोना बन जाता है, उसी प्रकार संतजनों के समागम से प्राणियों को भी अभीष्ट फलदायी महान पद शीघ्र मिल जाता है।
२१. गृहस्थ का घर साधुओं के समागम से ही, उनके पदार्पण से ही पवित्र बनता है, जैसे बसंत के आमन से वह वन हराभरा होकर पुष्पित होता है।
२२. जिसे अपने आप के ऊपर भरोसा है, जो अपने सुख दु:ख का विधाता अपने आपको मानता है, उसी के सत्य और सरल भाव की वजह से सब संकट अपने आप दूर हो जाते है।
२३. यदि इष्ट वस्तु के समागम में हर्ष होता है तो उसके वियोग में दु:खकारक भय होता है।
२४. जब मनुष्य किसी के दु:ख दूर करने के लिए कोमल चित्त करता है, तो उसका वह कोमल भाव उसे सुखदायक होता है और जब दूसरों के लिए कठोर भाव करता है तो वह उसे दु:खदायक होता है।
२५. इस जगत में जीवों के सुख और दु:ख अपने ही द्वारा किये कर्म के योग से प्राप्त होते है। जैसे मिश्री का आस्वादन करने पर मुख मीठा होता है और मिर्च खाने वाले का मुख जलता है।
२६. इस स्वार्थ भरी दुनियो में सत्य प्रिय को आर्थिक हानि उठानी पड़ती है, लेकिन कब तक? जब तक लोगों को यह पतन न हो जावें कि यहाँ पर असत्य को कोई स्थान नहीं है।