-दोहा-
सिद्ध अष्ट-गुनमय प्रगट, मुक्त-जीव-सोपान।
ज्ञान चरित जिहँ बिन अफल, सम्यक्दर्श प्रधान।।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
-सोरठा-
नीर सुगंध अपार, तृषा हरै मल छय करै।
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजौं सदा।।१।।
ॐ ह्रीं अष्टांग-सम्यग्दर्शनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल केसर घनसार, ताप हरै शीतल करै।
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजौं सदा।।२।।
ॐ ह्रीं अष्टांग-सम्यग्दर्शनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षत अनूप निहार, दारिद नाशै सुख भरै।
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजौं सदा।।३।।
ॐ ह्रीं अष्टांग-सम्यग्दर्शनाय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
पुहुप सुवास उदार, खेद हरै मन शुचि करै।
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजौं सदा।।४।।
ॐ ह्रीं अष्टांग-सम्यग्दर्शनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नेवज विविध प्रकार, छुआ हरै थिरता करै।
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजौं सदा।।५।।
ॐ ह्रीं अष्टांग-सम्यग्दर्शनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीप-ज्योति तमहार-घट पट परकाशै महा।
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजौं सदा।।६।।
ॐ ह्रीं अष्टांग-सम्यग्दर्शनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप घ्रान-सुखकार, रोग विघन जड़ता हरै।
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजौं सदा।।७।।
ॐ ह्रीं अष्टांग-सम्यग्दर्शनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीफल आदि विथार, निहचै सुर-शिव-फल करै।
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजौं सदा।।८।।
ॐ ह्रीं अष्टांग-सम्यग्दर्शनाय फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु।
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजौं सदा।।९।।
ॐ ह्रीं अष्टांग-सम्यग्दर्शनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
आप आप निहचै लखै, तत्त्व-प्रीति व्यौहार।
रहित दोष पच्चीस हैं, सहित अष्ट गुन सार।।१।।
सम्यक् दरशन-रत्न गहीजै, जिन-वच में संदेह न कीजै।
इह भव विभव-चाह दु:खदानी, पर-भव भोग चहै मत प्रानी।।
प्रानी गिलान न करि अशुचि लखि, धरम गुरु प्रभु परखिये।
पर-दोष ढकिये, धरम डिगते को सुथिर कर, हरखिये।।
चहुँ संघ को वात्सल्य कीजै, धरम की परभावना।
गुन आठसों गुन आठ लहिवैâ, इहाँ फेर न आवना।।
ॐ ह्रीं अष्टांगसहितपंचविंशतिदोषरहितसम्यग्दर्शनाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।