-दोहा-
विषय-रोग औषध महा, दव-कषाय-जल-धार।
तीर्थंकर जाको धरै सम्यक्चारित सार।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र! तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
-सोरठा-
नीर सुगंध अपार, तृषा हरै मल छय करै।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा।।१।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल केशर घनसार, ताप हरै शीतल करै।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा।।२।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षत अनूप निहार, दारिद नाशै सुख भरै।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा।।३।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
पुहुप सुवास उदार, खेद हरे मन शुचि करै।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा।।४।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नेवज विविध प्रकार, छुधा हरै थिरता करै।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा।।५।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीप-ज्योति तम-हार, घट पट परकाशै महा।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा।।६।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप घ्रान-सुखकार, रोग विघन जड़ता हरै।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा।।७।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीफल आदि विथार, निहचै सुर शिव फल करै।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा।।८।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा।।१०।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
आप आप थिरता नियत, तप संजम व्यौहार।
स्व-पर-दया दोनों लिये, तेरहविध दु:खहार।।१।।
-चौपाई मिश्रित गीता छंद-
सम्यक्चारित रतन सँभालों, पाँच पाप तजिके व्रत पालौ।
पंचसमिति त्रय गुप्ति गहीजै, नरभव सफल करहु तनछीजै।।
छीजै सदा तनको जतन यह, एक संजम पालिये।
बहु रुल्यो नरक-निगोद माहीं, विषय-कषायनि टालिये।।
शुभ करम जोग सुघाट आयो, पार हो दिन जात है।
‘द्यानत’ धरम की नाव बैठो, शिवपुरी कुशलात है।।२।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समुच्चय जयमाला
-दोहा-
सम्यक्दरशन-ज्ञान-व्रत, इन बिन मुकति न होय।
अन्ध पंगु अरु आलसी, जुदे जलैं दव-लोय।।१।।
-चौपाई १६ मात्रा-
जापै ध्यान सुथिर बन आवै, ताके करम-बंध कट जावै।
तासौं शिव-तिय प्रीति बढ़ावै, जो सम्यक् रत्नत्रय ध्यावै।।२।।
ताको चहुँ गति के दु:ख नाहीं, सो न परै भव-सागर माहीं।
जनम-जरा-मृत दोष मिटावै, जो सम्यक् रत्नत्रय ध्यावै।।३।।
सोई दश लच्छन को साधै, सो सोलह कारण आराधै।
सो परमातम पद उपजावै, जो सम्यक् रत्नत्रय ध्यावै।।४।।
सोई शक्र-चक्रिपद लेई-तीन लोक के सुख विलसेई।
सो रागादिक भाव बहावै, जो सम्यक् रत्नत्रय ध्यावै।।५।।
सोई लोकालोक निहारै, परमानंद दशा विस्तारै।
आप तिरै औरन तिरवावै, जो सम्यक् रत्नत्रय ध्यावै।।६।।
-दोहा-
एक स्वरूप-प्रकाश निज, वचन कह्यो नहिं जाय।
तीन भेद व्यौहार सब, ‘द्यानत’ को सुखदाय।।७।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।