रचयित्री-आर्यिका अभयमती
-दोहा-
चौदह तीर्थंकर नमूँ, शुद्ध निरंजन रूप।
आह्वानन कर थापना, शीघ्र तिरूँ भव रूप।।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिअनंतनाथपर्यंतचतुर्दशजिनेन्द्रा:! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिअनंतनाथपर्यंतचतुर्दशजिनेन्द्रा:! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिअनंतनाथपर्यंतचतुर्दशजिनेन्द्रा:! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-सखी छंद-
चरणों में धार चढ़ाऊँ, सब रोग शोक विनशाऊँ।
वृषभादि अनन्त जिनेशा, मैं पूजूँ मिटे कलेशा।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिअनन्तनाथपर्यन्तचतुर्दशजिनेन्द्रेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
केशर घनसार मिलाऊँ, चन्दन शुभ शुद्ध घिसाऊँ।
वृषभादि अनन्त जिनेशा, मैं पूजूँ मिटे कलेशा।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिअनन्तनाथपर्यन्तचतुर्दशजिनेन्द्रेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
उज्ज्वल शुभ शालि मंगाऊँ, अक्षय हितु पुंज चढ़ाऊँ।
वृषभादि अनन्त जिनेशा, मैं पूजूँ मिटे कलेशा।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिअनन्तनाथपर्यन्तचतुर्दशजिनेन्द्रेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
वर कुसुम विविध मंगवाऊँ, इंद्रिय के भोग नशाऊँ।
वृषभादि अनन्त जिनेशा, मैं पूजूँ मिटे कलेशा।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिअनन्तनाथपर्यन्तचतुर्दशजिनेन्द्रेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नेवज पकवान बनाऊँ, मम क्षुधा रोग विनशाऊँ।
वृषभादि अनन्त जिनेशा, मैं पूजूँ मिटे कलेशा।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिअनन्तनाथपर्यन्तचतुर्दशजिनेन्द्रेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक की ज्योति जगाऊँ, मिथ्यातम दूर भगाऊँ।
वृषभादि अनन्त जिनेशा, मैं पूजूँ मिटे कलेशा।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिअनन्तनाथपर्यन्तचतुर्दशजिनेन्द्रेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
कृष्णागरु धूप बनाऊँ, खेवत वसु कर्म उड़ाऊँ।
वृषभादि अनन्त जिनेशा, मैं पूजूँ मिटे कलेशा।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिअनन्तनाथपर्यन्तचतुर्दशजिनेन्द्रेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋतुफल बहु सरस मंगाऊँ, मम शिवहित भेंट चढ़ाऊँ।
वृषभादि अनन्त जिनेशा, मैं पूजूँ मिटे कलेशा।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिअनन्तनाथपर्यन्तचतुर्दशजिनेन्द्रेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
बहुविध वसु द्रव्य सजाऊँ, निजसुखहित अर्घ चढ़ाऊँ।
वृषभादि अनन्त जिनेशा, मैं पूजूँ मिटे कलेशा।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिअनन्तनाथपर्यन्तचतुर्दशजिनेन्द्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
वृषभ देव को आदि ले, श्री अनंत प्रभुनाम।
गाऊँ गुण जयमालिका, जिससे हो कल्याण।।
-पद्धड़ी छंद-
जय वृषभनाथ कर धर्म शर्म, जय अजितनाथ जीते कुकर्म।
जय संभव भव भय करें दूर, जय अभिनंदन आनंद शूर।।१।।
जय सुमतिनाथ देवें सुबुद्धि, जय पद्मप्रभ करते सुसिद्धि।
जय जय सुपार्श्व प्रभु नशें पाप, जयचंद्रप्रभ मन करें साफ।।२।।
जय पुष्पदंत कन्दर्प नाश, जय जय सुपुष्प शोभित प्रकाश।
जय शीतल हर संसार ताप, सबका मन शीतल करें साँच।।३।।
जय जय श्रेयांस प्रभु करें श्रेय, दु:खित प्राणी का दु:ख हरेय।
जय वासुपूज्य प्रभु करें सेव, सुरनर किन्नर झुकते स्वमेव।।४।।
जय विमल विमल सब हरें मैल, कर्मों के नाशक वङ्का शैल।
जय जय अनंत प्रभु गुण अनंत, संसार दु:ख का करें अंत।।५।।
-सोरठा-
चौबीसों जिनदेव, बारम्बार नमूँ सदा।
‘‘अभयमती’’ कर ध्यान, पहुँचें शिवपुर धाम में।।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिअनन्तनाथपर्यंतचतुर्दशजिनेन्द्रेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
।। इत्याशीर्वाद:। पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।