रचयित्री-आर्यिका चन्दनामती
-स्थापना (शंभु छन्द)-
जिनवर की एक हजार आठ, प्रतिमाओं से जो शोभ रहा।
वह सहस्रकूट जिन चैत्यालय, भव्यों के मन को मोह रहा।।
इनकी पूजन से पाप सहस्रों, शान्त स्वयं हो जाते हैं।
आह्वानन स्थापन विधि से, पूजा जो भक्त रचाते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं सहस्रकूटजिनालयस्थित जिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सहस्रकूटजिनालयस्थित जिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं सहस्रकूटजिनालयस्थित जिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं स्थापनम्।
-अष्टक (शंभु छंद)-
क्षीरोदधि के पावन जल से, जिनवर पद का प्रक्षाल करूँ।
निज जन्म-मरण के नाश हेतु, प्रभु चरणों का मैं ध्यान करूँ।।
श्री सहस्रकूट चैत्यालय के, जिनबिम्बों को मैं नमन करूँ।
निज के सहस्रगुण मिल जावें, तो आतम उपवन चमन करूँ।।१।।
ॐ ह्रीं सहस्रकूटजिनालयस्थित जिनबिम्बेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि का चंदन घिसकर, प्रभु चरणों में चर्चन कर लूँ।
संसार ताप हो नाश मेरा, इस हेतु चरण वन्दन कर लूँ।।श्री.।।२।।
ॐ ह्रीं सहस्रकूटजिनालयस्थित जिनबिम्बेभ्यो संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
चावल पुञ्जों के अक्षत को, प्रभु सम्मुख मैं अर्पण कर लूँ।
अक्षय पद की प्राप्ती हेतू, जिन प्रतिमा का अर्चन कर लूँ।।श्री.।।३।।
ॐ ह्रीं सहस्रकूटजिनालयस्थित जिनबिम्बेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला गुलाब चम्पा आदिक, सुमनों का थाल समर्पित है।
हो विषयवासना की शान्ती, प्रभु सम्मुख भाव भी अर्पित हैं।।श्री.।।४।।
ॐ ह्रीं सहस्रकूटजिनालयस्थित जिनबिम्बेभ्यो कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।।
खाजे ताजे आदिक पकवानों, का मैं थाल सजा लाया।
क्षुधरोग विनाशन हो मेरा, यह आशा ले करके आया।।श्री.।।५।।
ॐ ह्रीं सहस्रकूटजिनालयस्थित जिनबिम्बेभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत दीपक से आरति करके, मन का अन्धेर भगाना है।
मोही मति को निर्मोही कर, सम्यक्त्व का दीप जलाना है।।श्री.।।६।।
ॐ ह्रीं सहस्रकूटजिनालयस्थित जिनबिम्बेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
मैं धूप सुगंधित अग्निपात्र में, खेकर कर्म दहन कर लूँ।
फिर शान्तभाव से पूजन करके, पूज्य परमपद को वर लूँ।।श्री.।।७।।
ॐ ह्रीं सहस्रकूटजिनालयस्थित जिनबिम्बेभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीफल केला अंगूर आदि, ताजे फल से पूजन कर लूँ।
प्रभु के सम्मुख अर्पण करके, क्रम से फल निजपद को वर लूँ।।
श्री सहस्रकूट चैत्यालय के, जिनबिम्बों को मैं नमन करूँ।
निज के सहस्रगुण मिल जावें, तो आतम उपवन चमन करूँ।।८।।
ॐ ह्रीं सहस्रकूटजिनालयस्थित जिनबिम्बेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंध सुअक्षत आदि अष्ट-द्रव्यों का थाल सजा करके।
‘‘चन्दनामती’’ प्रभु सम्मुख अर्पण, कर लूँ भाव बना करके।।श्री.।।९।।
ॐ ह्रीं सहस्रकूटजिनालयस्थित जिनबिम्बेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वहा।
-दोहा-
गंग नदी का नीर ले, करूँ चरण जलधार।
सहस्रकूट जिनबिम्ब की, पूजन है सुखकार।।१०।।
शान्तये शांतिधारा।।
फूलों के उद्यान से, सुरभित पुष्प मंगाय।
आत्मतत्त्व के ध्यान से, पुष्पित हो निजकाय।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं सहस्रकूटजिनालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो नम:।(९ बार)
-शेर छन्द-
जय जय सहस्रकूट जिनालय महान है।
जय जय सहस्र बिम्ब का अतिशय महान है।।
जय जय प्रभू की अर्र्चना का फल महान है।
जय जय प्रभू की वन्दना सुख का निधान है।।१।।
जो एक लघु मंदिर का भी निर्माण करते हैं।
सरसों समान बिम्ब भी निर्माण करते हैं।।
उनके असीम पुण्य की तुलना न हो सके।
जिनबिम्ब दर्श की कोई उपमा न हो सके।।२।।
तो फिर सहस्रकूट जिनालय की क्या कहूँ।
उन बिम्ब के निर्माण पुण्य को ही मैं चहूँ।।
अरिहन्त की इक सहस्र आठ मूर्तियाँ इसमें।
आत्मा के गुण को प्रगटने की क्षमता है इनमें।।३।।
चहुँ ओर कर प्रदक्षिणा प्रतिमाओं को निरखो।
उनकी विराग शान्त छवी भाव से परखो।।
तन मन की शांति में निमित्त हैं ये मूर्तियाँ।
सम्यक्त्व प्राप्ति में निमित्त हैं ये मूर्तियाँ।।४।।
प्रभु दर्श से जनम-जनम के पाप दूर हों।
प्रभु दर्श से संसार के संताप दूर हों।।
प्रभु दर्श से ही मोह का परिताप चूर हो।
प्रभु दर्श से सम्यक्त्व का प्रकाशपूर्ण हो।।५।।
मेंढक भी कमलपुष्प ले प्रभु दर्श को चला।
उसको भी पुण्यफल स्वरूप देवपद मिला।।
तिर्यञ्च भी जब ऐसे फल को प्राप्त कर सकें।
तब क्यों न मनुज दर्श से शिवपद को वर सकें।।६।।
मैं एक साथ सहस्राष्ट प्रतिमा को नमूँ।
दर्शन करूँ वन्दन करूँ शिरसा उन्हें प्रणमूँ।।
थाली में अष्टद्रव्य ‘‘चन्दनामती’’ धरूँ।
पूर्णार्घ्य समर्पण के साथ शिवगती वरूँ।।७।।
ॐ ह्रीं सहस्रकूटजिनालयस्थित जिनबिम्बेभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य भक्ति से सहस्रकूट, जिनबिम्बों का अर्चन करते।
मन वचन काय से शीश झुका, उन सबको नित वन्दन करते।।
वे लौकिक सुख के साथ-साथ, आध्यात्मिक सम्पत्ती लभते।
‘‘चन्दनामती’’ क्रमश: सहस्रगुण के संग स्वात्म निधी वरते।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।