रचयित्री-आर्यिका चन्दनामती
स्थापना (नरेन्द्र छन्द)
महावीर पथ के अनुयायी, वीरसिन्धु आचार्यप्रवर।
शान्ति सिन्धु के प्रथम शिष्य, आर्यिका ज्ञानमति के गुरुवर।।
उन गुरु शिष्य की गरिमा से, लगता है यह अनुमान सहज।
तुम थे असली रत्नपारखी, दृष्टि तुम्हारी सदा सजग।।१।।
उन आचार्य वीरसागर की, पूजा आज रचाऊँ।
आह्वानन स्थापन करके, अपने निकट बुलाऊँ।।
हे गुरुवर! मम हृदय विराजो, अभिलाषा यह मेरी।।
पुष्पों की अंजलि भरकर के, करूँ थापना तेरी।।२।।
-दोहा-
गुरुपूजा बस एकली, गुरुपद देन समर्थ।
भवदधि नौका सम यही, शेष सभी कुछ व्यर्थ।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीवीरसागराचार्यवर्य ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीवीरसागराचार्यवर्य ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीवीरसागराचार्यवर्य ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक-
जग के शीतल स्वादिष्ट पेय से, प्यास नहीं बुझ पाई है।
अतएव वीतरागी गुरु के, चरणोें की स्मृति आई है।।
जलधारा करने से शायद, इच्छाओं की उपशान्ती हो।
उन तृषा परीषहजयी गुरू की, पूजा से सुख प्राप्ती हो।।
ॐ ह्रीं आचार्यश्रीवीरसागरमुनीन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्दन गुलाबजल इत्रादिक से, कायउष्णता शांत हुई।
पर कर्मों की जलती ज्वाला से, आत्मा नहिं उपशांत हुई।।
चन्दन गुरुपद में लेपन से, भवताप की उपशान्ती होगी।
उन उष्णपरीषहविजयी की, पूजन से सुखप्राप्ती होगी।।
ॐ ह्रीं आचार्यश्रीवीरसागरमुनीन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
चारों गतियों में क्षत विक्षत, कायों में भी मैं पड़ा रहा।
अक्षय आतम नहिं पहचाना, भव चतुष्पथों पर खड़ा रहा।।
अब अक्षतपुंज सुगुरु चरणों में, अर्पण करने आया हूँ।
अक्षय सुख पाने हेतु दिगम्बर, मुनि को नमने आया हूँ।।
ॐ ह्रीं आचार्यश्रीवीरसागरमुनीन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मकरध्वज ने सारे जग को, निज के आधीन बनाया है।
पर बालब्रह्मचारी के सम्मुख, वह न कभी टिक पाया है।।
अब पुष्प चढ़ाऊँ गुरु चरणों में, काम व्यथा नश जाएगी।
उन नग्न परीषह विजयी गुरु की, पूजा शान्ति दिलाएगी।।
ॐ ह्रीं आचार्यश्रीवीरसागरमुनीन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
रसना इन्द्रिय की लोलुपता, कितने ही पाप कराती है।
भोजन करने के बाद भी वह, लम्पटता नहिं मिट पाती है।।
अब इस नैवेद्य थाल से गुरु, पूजन कर क्षुधा शांत होगी।
उन क्षुधा परीषह विजयी मुनि, वन्दन से परमशांति होगी।।
ॐ ह्रीं आचार्यश्रीवीरसागरमुनीन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब तरह तरह के फानूसों से, महल सजाए जाते हैं।
चंचल विद्युत के नवप्रकाश, आतम के दीप बुझाते हैं।।
अब घृत के लघु दीपक से भी, गुरु आरति मोह नशाएगी।
उन प्रज्ञापरिषह विजयी गुरु की, पूजन शांति दिलाएगी।।
ॐ ह्रीं आचार्यश्रीवीरसागरमुनीन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
ईश्वर नहिं सृष्टी का कर्त्ता, यह जैनागम बतलाते हैं।
सब जीवों के ही कर्म स्वयं, उनको सुख-दुख दिलवाते हैं।।
उन कर्मों के नाशन हेतू, गुरुवर ने मुनिपथ अपनाया।
मैं भी अब धूप जलाकर चाहूँ, निज गुरु की शाश्वत छाया।।
ॐ ह्रीं आचार्यश्रीवीरसागरमुनीन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
फल की इच्छा से ही सुभौम, चक्री की बुद्धी भ्रष्ट हुई।
नश्वर फल खाने में ही उसकी, जीवन लीला नष्ट हुई।।
मैं अविनश्वर फल हेतू अब, फल का यह थाल सजा लाया।
गुरु चरणों में फलथाल चढ़ाकर, तजूँ जगत ममता माया।
ॐ ह्रीं आचार्यश्रीवीरसागरमुनीन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
यह अष्टद्रव्य की सामग्री, मेरी पूजा का साधन है।
गुरु भक्ती ही कर सकती बस, दुर्गति का सहज निवारण है।।
आचार्य वीरसागर गुरु की, जो पूजा निशदिन करते हैं।
वे पूजक भी पुण्यास्रव कर, इक दिन अनर्घ्य पद वरते हैं।।
ॐ ह्रीं आचार्यश्रीवीरसागरमुनीन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
रत्नत्रय धारक मुनी, के पद में त्रय बार।
त्रयधारा जल से करूँ, मिले रत्नत्रय सार।।
शान्तये शान्तिधारा।
गुरुवर के उद्यान से, ज्ञान पुष्प को लाय।
पुष्पांजलि पद में करूँ, ज्ञान मुझे मिल जाय।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
जयमाला
हे मुनिवर! तुम कुछ बोले बिन, भी मोक्षमार्ग दरशाते हो।
बिन वस्त्राभूषण के भी तुम, सुन्दर स्वरूप दरशाते हो।।
तुम ब्रह्मचर्य की महिमा का, पावन दर्शन करवाते हो।
शिशु सम अविकारी नग्न रूपधर, सबके मित्र कहाते हो।।१।।
महाराष्ट्र प्रान्त में ईर ग्राम, माँ भाग्यवती जी कहलाई।
इक दिन सुन्दर सपना देखा, तब उनकी बगिया लहराई।।
थे पिता रामसुख हुये सुखी, आषाढ़ शुक्ल पूनम तिथि में।
वह तिथी गुरूपूर्णिमा बनी, सन् अट्ठारह सौ छियत्तर में।।२।।
बचपन में हीरालाल नाम, पाया हीरा सम चमक उठे।
कचनेर में विद्याध्ययन करा, पहले ही गुरु बन दमक उठे।।
चारित्रचक्रवर्ती गुरु को, परखा फिर गुरू बनाया था।
उनकी ही प्रथम शिष्यता का, सौभाग्य तुम्हीं ने पाया था।।३।।
गुरु ने समाधि से पूर्व तुम्हें, निज पट्टाचार्य बनाया था।
सन् उन्निस सौ पचपन जयपुर में, प्रथम पट्ट अपनाया था।।
जैसे तव गुरु ने मुनि पथ को, बीसवीं सदी में दरशाया।
वैसे ही ज्ञानमती शिष्या ने, ब्राह्मी का पथ दिखलाया।।४।।
मुनि समन्तभद्राचार्य सदृश, तुम हुए परीक्षा में प्रधान।
गुरु मर्यादा की रक्षा कर, शिष्यों का रक्खा सदा ध्यान।।
तुमने इक बार कर्मप्रकृती, ाfचन्तन में निज को रमा दिया।
फोड़ा अदीठ का वैद्यराज, आप्रेशन करके चला गया।।५।।
सोचो तो रोम सिहरते हैं, क्या तुम पत्थर की मूरत थे।
मानव की काया में सचमुच, महावीर की सच्ची सूरत थे।।
गुरुदेव मुझे भी शक्ती दो, तन से ममता को छोड़ सवूँâ।
संकट चाहे जितने आवें, सबसे मैं नाता तोड़ सवूँâ।।६।।
सन् सत्तावन में आश्विन कृष्णा, मावस को तुम चले गये।
अपने शिष्यों को छोड़ समाधी, लिया स्वर्ग में चले गये।।
अब नहीं तुम्हारी काया है, लेकिन यशकाया जीवित है।
हम सभी तुम्हारी वंशावलि के, पत्र पुष्पमय कीरत हैं।।७।।
हे शांति सिन्धु के प्रथम शिष्य! तुमको युग का शत बार नमन।
तुम पहले पट्टाचार्य तुम्हारे, चरणों में चउसंघ नमन।।
गुणमाल आपकी पढ़ करके, मेरा मन आज हुआ पावन।
‘‘चन्दनामती’’ तुम चरणोें में, धरती-अम्बर भी करे नमन।।८।।
ॐ ह्रीं आचार्यश्रीवीरसागरमुनीन्द्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शान्तये शान्तिधारा, पुष्पांजलिः
-गीता छन्द-
मुनि वीरसागर के चरण में, जो सतत वन्दन करें।
निज आत्मनिधि को प्राप्त कर, वे भी रत्नत्रय निधि वरें।।
निज आत्मरस के स्वाद में हो, मग्न यदि समता धरें।
तब ‘‘चन्दनामति’’ उभय लोकों, में वही सब सुख भरें।।
।। इत्याशीर्वादः।।