(अनंतर मणि, मूंगा, चांदी आदि की माला से या अंगुली से अथवा १०८ पुष्पों से नीचे लिखे मंत्र का जाप्य करें। समयाभाव में ९ बार मंत्र पढ़कर पुष्प चढ़ावें।)
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अ सि आ उ सा स्वाहा।
पुन: चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति पढ़ें-
अथ जिनेन्द्रमहापूजास्तवसमेतं श्रीचैत्यभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।
(तीन आवर्त और एक शिरोनति करें)
णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं।।
चत्तारि मंगलं-अरिहंत मंगल, सिद्ध मंगलं, साहू मंगलं, केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा-अरिहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि-अरिहंत सरणं पव्वज्जामि, सिद्ध सरणं पव्वज्जामि, साहू सरणं पव्वज्जामि, केवलि पण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि।
जाव अरहंताणं भयवंताणं पज्जुवासं करेमि। ताव कायं पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि।।
(तीन आवर्त एक शिरोनति करें । ९ बार णमोकरमंत्र का जाप करें। पुन: ३ आवर्त एक शिरोनति करके थोस्सामिस्तव पढ़ें)
थोस्सामि स्तवन (हिन्दी पद्यानुवाद)
स्तवन करूँ जिनवर तीर्थंकर, केवलि अनंत जिन प्रभु का।
मनुज लोक से पूज्य कर्मरज, मल से रहित महात्मन् का।।१।।
लोकोद्योतक धर्म तीर्थंकर, श्रीजिन का मैं नमन करूँ।
जिन चउवीस अर्हंत तथा केवलि-गण का गुणगान करूँ।।२।।
(तीन आवर्त एक शिरोनति करें।)
लघु चैत्यभक्ति:-(हिन्दी पद्यानुवाद)
नव सौ पचीस कोटि त्रेपन, लाख सताइस सहस प्रमाण।
नव सौ अड़तालिस जिन प्रतिमा, त्रिभुवन में हैं करूँ प्रणाम।।
ज्योतिष व्यंतर के गृह में, शाश्वत जिन प्रतिमा संख्यातीत।
पंच शतक धनु तुंग पूर्वमुख, पर्यंकासन वंदूं नित्य।।१।।
अंचलिका-(हिन्दी पद्यानुवाद)
भगवन्! चैत्यभक्ति अरु कायोत्सर्ग किया उसमें जो दोष।
उनकी आलोचन करके को, इच्छुक हूँ धर मन संतोष।।
अधो मध्य अरु ऊर्ध्वलोक में, अकृत्रिम कृत्रिम जिनचैत्य।
जितने भी हैं, त्रिभुवन के, चउविध सुर करें भक्ति से सेव।।१।।
भवनवासि व्यंतर ज्योतिष, वैमानिक सुर परिवार सहित।
दिव्यगंध दिव पुष्प आदि से, दिव्य न्हवन करते नित प्रति।।
अर्चें पूजें वंदन करते नमस्कार वे करें सतत।
मैं भी उन्हें यहीं पर अर्चूं पूजूं वंदूं नमूँ सतत।।२।।
दु:खों का क्षय कर्मों का क्षय हो मम बोधि लाभ होवे।
सुगति गमन हो समाधि मरणं मम जिनगुण संपत होवे।।३।।
अथ जिनेन्द्रमहापूजास्तवसमेतं पंचमहागुरुभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।
(णमो अरिहंताणं…….आदि पढ़कर ९ महामंत्र जपकर थोस्सामिस्तव पढ़कर नीचे लिखी पंचगुरुभक्ति पढ़ें।)
लघु पंचगुरुभक्ति-(हिन्दी पद्यानुवाद)
प्रातिहार्य से युत अर्हंतों, को अठगुण युत सिद्धों को।
वंदूूं अठ प्रवचनमाता से, संयुत श्री आचार्यों को।।
शिष्यों से युत पाठकगण को, अष्ट योग युत साधू को।
वंदूं पंचमहागुरुवर को, त्रिकरण शुचि से मुद मन हो।।
अचंलिका-(हिन्दी पद्यानुवाद)
-दोहा-
भगवन्! पंचमहागुरु भक्ति कायोत्सर्ग।
करके आलोचन विधि करना चाहूँ सर्व।।१।।
अष्टमहाशुभ प्रातिहार्य, संयुत अर्हंत जिनेश्वर हैं।
अष्टगुणान्वित ऊर्ध्वलोक, मस्तक पर सिद्ध विराज रहें।।
अठ प्रवचनमाता संयुत हैं, श्री आचार्य प्रवर जग में।
आचारादिक श्रुतज्ञानामृत, उपदेशी पाठकगण हैं।।२।।
रत्नत्रय गुण पालन में रत, सर्वसाधु परमेष्ठी हैं।
नितप्रति अर्चूं पूजूं वंदूं, नमस्कार मैं करूं उन्हें।।
दु:खों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधिलाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपत् होवे।।३।।
अथ जिनेन्द्रमहापूजास्तवसमेतं श्रीशांतिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।
(णमो अरिहंताणं…….आदि पढ़कर ९ महामंत्र जपकर थोस्सामिस्तव पढ़कर शाांतिभक्ति पढ़ते हुए पुष्प क्षेपण करना चाहिये।)
शांतिभक्ति-(हिन्दी पद्यानुवाद)
शशि सम निर्मल वक्त्र शांतिजिन, शीलगुण व्रत संयम पात्र।
नमूँ जिनोत्तम अंबुजदृग को, अष्टशतार्चित लक्षण गात्र।।१।।
चक्रधरों में पंचमचक्री, इंद्र नरेन्द्र वृंद पूजित।
गण की शांति चहूँ षोडश-तीर्थंकर नमूँ शांतिकर नित।।२।।
तरु अशोक सुरपुष्पवृष्टि, दुुंदुभि दिव्यध्वनि सिंहासन।
चमर छत्र भामण्डल ये अठ, प्रातिहार्य प्रभु के मनहर।।३।।
उन भुवनार्चित शांतिकरं, शिर से प्रणमूँ शांति प्रभु को।
शांति करो सब गण को मुझको, पढ़ने वालों को भी हो।।४।।
मुकुटहारकुंडल रत्नों युत, इंद्रगणों से जो अर्चित।
इंद्रादिक से सुरगण से भी, पादपद्म जिनके संस्तुत।।५।।
प्रवरवंश में जन्में जग के, दीपक वे जिन तीर्थंकर।
मुझको सतत शांतिकर होवें, वे तीर्थेश्वर शांतिकर।।६।।
संपूजक प्रतिपालक जन, यतिवर सामान्य तपोधन को।
देश राष्ट्र पुर नृप के हेतू, हे भगवन् तुम शांति करो।।७।।
सभी प्रजा में क्षेम नृपति, धार्मिक बलवान् जगत में हो।
समय-समय पर मेघवृष्टि हो, आधि व्याधि का भी क्षय हो।।८।।
चोरि मारि दुर्भिक्ष न क्षण भी, जग में जन पीड़ाकर हो।
नित ही सर्व सौख्यप्रद जिनवर, धर्मचक्र जयशील रहो।।९।।
घातिकर्म विध्वंसक जिनवर, केवलज्ञानमयी भास्कर।
करें जगत में शांति सदा, वृषभादि जिनेश्वर तीर्थंकर।।१०।।
अंचलिका-(हिन्दी पद्यानुवाद)
हे भगवन्! शांतिभक्ति का, कार्यात्सर्ग किया उसके।
आलोचन करने की इच्छा, करना चाहूँ मैं रुचि से।।११।।
अष्टमहाप्रातिहार्य सहित जो, पंचमहाकल्याणक युत।
चौंतिस अतिशय विशेष युत, बत्तिस देवेन्द्र मुव्ाâुट चर्चित।।१२।।
हलधर वासुदेव प्रतिचक्री, ऋषि मुनि यति अनगार सहित।
लाखों स्तुति के निलय वृषभ से, वीर प्रभू तक महापुरुष।१३।।
मंगल महापुरुष तीर्थंकर, उन सबको शुभ भक्ति से।
नित्यकाल मैं अर्चूं, पूजूं, वंदूं नमूँ महामुद से।।१४।।
दु:खों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधिलाभ होवे।
सुगति गमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपत्ति होवे।।१५।।
नमोऽस्तु जिनेन्द्रमहापूजास्तवसमेतं सिद्धचैत्यपंचगुरुशांति-भक्ती: कृत्वा तद्धीनाधिक-दोषविशुद्ध्यर्थं समाधिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।
(णमो अरहंताण….आदि से लेकर ९ जाप्य व थोस्सामिस्तव पढ़कर समाधिभक्ति पढ़ें।)
समाधिभक्ति-(हिन्दी पद्यानुवाद)
प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नम:।
शास्त्रों का अभ्यास, जिनेश्वर नमन सदा सज्जन संगति।
सच्चरित्र के गुण गाऊं अरु, दोष कथन में मौन सतत।।
सबसे प्रियहित वचन कहूँ, निज आत्मतत्त्व को नित भाऊं।
यावत् मुक्ति मिले तावत्, भव भव में इन सबको पाऊँ।।१।।
तव चरणांबुज मुझ मन में, मुझ मन तव लीन चरण युग में।
तावत् रहे जिनेश्वर यावत, मोक्ष प्राप्ति नहिं हो जग में।।२।।
अक्षर पद से हीन अर्थ, मात्रा से हीन कहा जो मैं।
हे श्रुत मात:! क्षमा करो सब, मम दु:खों का क्षय होवे।।३।।
दु:खों का क्षय कर्मों का क्षय, होवे बोधिलाभ होवे।
सुगति गमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपत् होवे।।४।।
(पुन: पाँच बार शांति मंत्र का उच्चारण करें।)
शांतिमंत्र
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अ सि आ उ सा नम: सर्वशांतिं कुरु कुरु वषट् स्वाहा।
पुन: गणधर वलय मंत्र पढ़े-
गणधरवलय मंत्र (हिन्दी पद्यानुवाद)
-शंभु छंद-
मैं नमूँ जिनों को जो अर्हन् अवधीजिन मुनि को नमूँ नमूँ।
परमावधिजिन को नमूँ तथा, सर्वावधि जिन को नमूूं नमूँ।।
मैं नमूँ अनंतावधिजिन को, अरु कोष्ठबुद्धियुत साधु नमूं।
मैं नमूँ बीजबुद्धीयुतमुनि, पादानुसारियुत साधु नमूं।।१।।
संभिन्न श्रोतृयुत साधु नमूं, मैं स्वयंबुद्ध मुनिराज नमूँ।
प्रत्येक बुद्धऋषिराज नमूँ, पुनि बोधित बुद्ध मनीश नमूं।।
ऋजुमतिमनपर्यय साधु नमूँ, मैं विपुलमतीयुत साधु नमूँ।
मैं नमूँ संभिन्न सुदशपूर्वी, चौदशपूर्वी मुनिराज नमूूं।।२।।
अष्टांगमहानिमित्तकुशली, नमूँ नमूँ विक्रियाऋद्धि प्राप्त।
विद्याधरऋषि को नमूँ नमूँ मैं, संयत चारणऋद्धि प्राप्त।।
मैं प्रज्ञाश्रमणमुनीश नमूं, आकाशगामि मुनिराज नमूँ।
आशीविषयुत ऋषिराज नमूं, दृष्टी विषयुतमुनिराज नमूूं।।३।।
मैं उग्रतपस्वी नमूं दीप्ततपि नमूं तप्ततपसाधु नमूं।
मैं नमूं महातपधारी को, अरु घोरतपोयुत साधु नमूूं।।
मैं नमूँ घोरगुणयुत साधु, मैं घोरपराक्रमसाधु नमूँ।
मैं नमूं घोरगुणब्रह्मचारि, आमौषधिप्राप्त मुनीश नमूं।।४।।
क्ष्वेलौषधिप्राप्त मुनीश नमूं, जल्लौषधि प्राप्त मुनीश नमूं।
विप्रुष औषधियुत साधु नमूं, सर्वोषधिप्राप्त मुनीश नमूं।।
मैं नमूं मनोबलि मुनिवर को, मैं वचनबली ऋद्धीश नमूं।
मैं कायबली मुनिनाथ नमूं, मैं क्षीरस्रावी साधु नमूं।।५।।
मैं घृतस्रावी मुनिराज नमूं, मैं मुधरस्रावी साधु नमूं।
मैं अमृतस्रावी साधु नमूं, अक्षीणमहानस साधु नमूं।।
मैं वर्धमान ऋद्धीश नमूं, मैं सिद्धायतन समस्त नमूं।
मैं भगवन् महति महावीर, श्री वर्धमान बुद्धर्षि नमूं।।६।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अ सि आ उ सा अप्रतिचक्रे फट् विचक्राय झ्रौं झ्रौं नम: स्वाहा।
विसर्जन पाठ
यदि प्रमाद अज्ञान गर्व से, विधिवत् क्रिया न मैंने की।
हे जिनेन्द्र! तुम पदप्रसाद से, क्रिया पूर्ण होवें सब ही।।
पंचपरमगुरु आदि यक्ष, आदिक का जो आह्वान किया।
सभी यथास्थान जाइये, यही विसर्जन विधी क्रिया।।१।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अ सि आ उ सा अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिन- धर्मजिनागमजिनचैत्यचैत्यालया: सर्वयक्षयक्षीदिक्पालादिअष्टाशीतिदेवादय: स्वस्थानं गच्छत गच्छत ज: ज: ज:।
इति विसर्जन विधि:।
अन्त्य प्रार्थना -चौबोल छंद
मोह ध्वांत के नाशक विश्वप्रकाशी विशद दीप्तिधारी।
सन्मारग प्रतिभासक बुधजन को नित ही मंगलकारी।।
श्रीजिनचंद्र शांतिप्रद भगवन्! तापहरन तव भक्ति करूँ।
पुन: पुन: तव दर्शन होवे, यही याचना नित्य करूं।।१।।
।। इति नित्य पूजा विधि:।।