-स्थापना-दोहा-
नाभिराज के पौत्र तुम भरत क्षेत्र के ईश।
अष्टकर्म को नष्ट कर गये लोक के शीश।।१।।
अष्ट द्रव्य से मैं यहाँ, पूजूं भक्ति समेत।
आह्वानन विधि मैं करूँ, परम सौख्य के हेतु।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीभरतस्वामिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीभरतस्वामिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीभरतस्वामिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अष्टक-स्रग्विणी छंद
कर्म मल धोय के आप निर्मल भये।
नीर ले आप पदकंज पूजत भये।।
आदि तीर्र्थेश सुत आदि चक्रेश को।
मैं जजूं भक्ति से आप भरतेश को।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीभरतस्वामिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मोह संताप हर आप शीतल भये।
गंध से पूजते सर्व संकट गये।।आदि.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीभरतस्वामिने संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ अक्षय सुखों की निधी आप हो।
शांति के पुंज धर पूर्णसुख प्राप्त हो।।आदि.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीभरतस्वामिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
काम को जीतकर आप विष्णु बने।
पुष्प से पूजकर हम सहिष्णु बने।।आदि.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीभरतस्वामिने कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
भूख तृष्णादि बाधा विजेता तुम्हीं।
सर्व पकवान से पूज व्याधी हनी।।
आदि तीर्र्थेश सुत आदि चक्रेश को।
मैं जजूं भक्ति से आप भरतेश को।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीभरतस्वामिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोष अज्ञान हर पूर्ण ज्योती धरें।
दीप से पूजते ज्ञान ज्योती भरें।।आदि.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीभरतस्वामिने मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
शुक्लध्यानाग्नि से कर्म भस्मी किये।
धूप से पूजते स्वात्म शुद्धी किये।।आदि.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीभरतस्वामिने अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्ण कृतकृत्य हो आप इस लोक में।
मैं सदा पूजहूँ श्रेष्ठ फल से तुम्हें।।आदि.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीभरतस्वामिने मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व संपत्ति धर आप अनमोल हो।
अर्घ से पूजते स्वात्म कल्लोल हो।।आदि.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीभरतस्वामिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शीतल मिष्ट सुगंध जल, क्षीरोदधि समश्वेत।
तुम पद धारा मैं करूं, तिहुँजग शांती हेतु।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
कोटि सूर्यप्रभ से अधिक, अनुपम आतम तेज।
पुष्पांजलि से पूजहूँ, कर्मांजन हर हेतु।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
निजानंद पीयूषरस, निर्झरणी निर्मग्न।
गाऊँ तुम गुणमालिका, होऊँ गुण सम्पन्न।।१।।
-नरेन्द्र छंद-
चिन्मय ज्योति चिदंबर चेतन चिच्चैतन्य सुधाकर।
जय जय चिन्मूरत चिंतामणि चिंतितप्रद रत्नाकर।।
मरुदेवी के पौत्र आप हे यशस्वती के नंदन।
हे स्वामिन्! स्वीकार करो अब मेरा शत-शत वंदन।।२।।
आदिब्रह्मा ऋषभदेव से विद्या शिक्षा पाई।
संस्कारों से संस्कारित हो आतम ज्योति जगाई।।
भक्ति मार्ग के आदि विधाता सोलहवें मनु विश्रुत।
चौथा वर्ण किया संस्थापित पूजा दान धर्म हित।।३।।
गृह में रहते भी वैरागी जल से भिन्न कमलवत्।
छहों खंड पृथ्वी को जीता फिर भी निज आतम रत।।
वृषभदेव के समवसरण में श्रोता मुख्य तुम्हीं थे।
दिव्य ध्वनी से दिव्यज्ञान पर श्रद्धामूर्ति तुम्हीं थे।।४।।
कल्पद्रुम पूजा के कर्ता दान चतुर्विध दाता।
व्रत उपवास शील के धनी देशव्रती विख्याता।।
श्रावक होकर अवधिज्ञानी राजनीति के नेता।
चातुर्वर्णिक सर्व प्रजाहित गृही धर्म उपदेष्टा।।५।।
दीक्षा ले अंतर्मुहूर्त में केवलज्ञान प्रकाशा।
उत्तम ज्ञान ज्योति में तब ही त्रिभुवन अणुव्रत भाषा।
श्री विहार से भव्य जनों को उपदेशा शिवमारग।
फिर वैâलाशगिरी पर जाकर हुए पूर्ण शिव साधक।।६।।
सर्व कर्म निर्मूल आप त्रिभुवन साम्राज्य लिया है।
मृत्यु मल्ल को जीत लोक मस्तक पर वास किया है।।
मन से भक्ति करें जो भविजन वे मन निर्मल करते।
वचनों से स्तुति को पढ़ के वचन सिद्धि को वरते।।७।।
काया से अंजलि प्रणमन कर तन का रोग नशाते।
त्रिकरण शुचि से वंदन करके कर्म कलंक नशाते।।
इस विधि तुम यश आगमवर्णे श्रवण किया है जबसे।
तुम चरणों में प्रीति जगी है शरण लिया है तब से।।८।।
हे भरतेश कृपा अब ऐसी मुझ पर तुरतहि कीजे।
सम्यग्ज्ञानमती लक्ष्मी को देकर निजपद दीजै।।
आप भरत के पुण्य नाम से ‘भारतदेश’’ प्रसिद्धी।
नमूँ नमूँ मैं तुमको नितप्रति, प्राप्त करूँ सब सिद्धी।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीभरतस्वामिने जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
भरतेश्वर की भक्ति से, भक्त बने भगवान्।
आध्यात्मिक सुख शांति दे, करें आत्म धनवान्।।
।।इत्याशीर्वाद:।।