-गीता छंद–
मंगलमयी सब लोक में उत्तम शरण दाता तुम्हीं।
वर तीस चौबीसी जिनेश्वर सात शत औ बीस ही।।
नर लोक में ये भूत संप्रति भावि तीर्थंकर कहे।
पण भरत पण ऐरावतों में पंचकल्याणक लहें।।१।।
-दोहा-
आवो आवो नाथ! अब यहाँ विराजो आन।
आह्वानन विधि से सदा मैं पूजूँ अघ हान।।२।।
ॐ ह्रीं त्रिंशच्चतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं त्रिंशच्चतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थाननं।
ॐ ह्रीं त्रिंशच्चतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक-स्रग्विणी छंद-
सिंधु को नीर भृंगार में लायके।
धार देऊँ प्रभो पाद में आयके।।
तीस चौबीस तीर्थंकरों को जजूँ।
जन्म व्याधी हरूँ सर्व दु:ख से बचूँ।।१।।
ॐ ह्रीं त्रिंशच्चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
गंध सौगंध्य कर्पूर केशर मिली।
पाद चर्चंत सम्यक्त्व कलिका खिली।।तीस.।।२।।
ॐ ह्रीं त्रिंशच्चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
दुग्ध के फेन सम स्वच्छ अक्षत लिये।
पुंज को धारने स्वात्म संपत लिये।।तीस.।।३।।
ॐ ह्रीं त्रिंशच्चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
केवड़ा मोगरा पुष्प अरविंद हैं।
नाथ पद पूजते काम शर भंग हैं।।तीस.।।४।।
ॐ ह्रीं त्रिंशच्चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मुद्गलाडू इमरती कनक थाल में।
पूजते भूखव्याधी हरूँ हाल में।।तीस.।।५।।
ॐ ह्रीं त्रिंशच्चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ण के पात्र में ज्योति कर्पूर की।
नाथ की आरती मोह को चूरती।।तीस.।।६।।
ॐ ह्रीं त्रिंशच्चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप दशगंध ले अग्नि में खेवते।
कर्म की भस्म हो नाथ पद सेवते।।तीस.।।७।।
ॐ ह्रीं त्रिंशच्चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आम अंगूर केला अनंनास ले।
नाथ पद अर्चते मुक्तिकांता मिले।।तीस.।।८।।
ॐ ह्रीं त्रिंशच्चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीर गंधादि वसु द्रव्य ले थाल में।
अर्घ्य अर्पण करूँ नाय के भाल मैं।।
तीस चौबीस तीर्थंकरों को जजूँ।
जन्म व्याधी हरूँ सर्व दु:ख से बचूँ।।९।।
ॐ ह्रीं त्रिंशच्चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
तीर्थंकर परमेश, तिहुँजग शांतीकर सदा।
चउसंघ शांतीहेत, शांतीधारा मैं करूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार प्रसून सुरभित करते दश दिशा।
तीर्थंकर पद पद्म, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
अनंत दर्शन ज्ञान औ, सुख औ वीर्य अनंत।
अनंत गुण के तुम धनी, नमूँ नमूँ भगवंत।।
(चाल-हे दीनबंधु…..)
जैवंत तीर्थंकर अनंत सर्वकाल के।
जैवंत धर्मवंत न हो वश्य काल के।।
जै पाँच भरत पाँच ऐरावत में हो रहे।
जै भूत वर्तमान औ भविष्य के कहे।।१।।
इस जंबूद्वीप में हैं भरत और ऐरावत।
इन दो ही क्षेत्र में सदा हो काल परावृत।।
जो पूर्वधातकी औ अपर धातकी कहे।
इन दोनों में भी भरत ऐरावत सदा कहे।।२।।
वर पुष्करार्ध पूर्व अपर में भी दोय दो।
हैं क्षेत्र भरत और ऐरावत प्रसिद्ध जो।।
इस ढाई द्वीप में प्रधान क्षेत्र दश कहे।
षट्काल परावर्तनों से चक्रवत् रहें।।३।।
इनके चतुर्थ काल में तीर्थेश जन्मते।
जो भूत वर्तमान भाविकाल धरंते।।
इस विध से तीस बार हो चौबीस जिनेश्वर।
ये सात सौ हैं बीस कहे धर्म के ईश्वर।।४।।
इनकी त्रिकाल बार बार वंदना करूँ।
मैं भक्तिभाव से सदैव अर्चना करूँ।।
सम्पूर्ण कर्मपर्वतों की खंडना करूँ।
निज ‘ज्ञानमती’ पाय फेर जन्म ना धरूँ।।५।।
-घत्ता-
जय जय तीर्थंकर, धर्मचक्रधर, भवसंकटहर तुमहिं भजूँ।
जय तीन रतनधर, जिनसंपति वर, अनुपम सुख को नित्य चखूँ।।६।।
ॐ ह्रीं त्रिंशच्चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो तीस चौबीसी जिनेश्वर की सदा पूजा करें।
वर पंचकल्याणक अधिप जिननाथ के गुण उच्चरें।।
वे पंच परिवर्तन मिटाकर पंचकल्याणक भरें।
निर्वाणलक्ष्मी ‘ज्ञानमती’ युत पाय निजसंपत्ति वरें।।७।।
।।इत्याशीर्वाद:।।