-अथ स्थापना-
(तर्ज-गोमटेश, जय गोमटेश……)
आदिनाथ, जय आदिनाथ, मम हृदय विराजो-२
हम यही भावना करते हैं।
भावना करते हैं, ऐसा आने वाला कल हो।
हो नगर नगर में प्रभु पूजा, सारी धरती भक्ति स्थल हो।।हम०।।१।।
युग की आदि में इन्द्रराज ने, नगरि अयोध्या रचवाई।
श्री नाभिराय मरुदेवि को पाकर, सारी जनता हरषाई।।
प्रभु आदिनाथ का जन्म याद कर, मेरा मन भी उज्ज्वल हो।।हम०।।२।।
श्री अजितनाथ अभिनंदन सुमती, जिन अनंत ने जन्म लिया।
इन्द्रों ने जिन शिशु को लेकर, मेरू गिरि पर अभिषेक किया।।
जिन जन्मभूमि का अर्चन कर, मेरा मन भी अति उज्ज्वल हो।।हम०।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथजन्मभूमि-अयोध्यातीर्थक्षेत्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथजन्मभूमि-अयोध्यातीर्थक्षेत्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथजन्मभूमि-अयोध्यातीर्थक्षेत्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
तर्ज-आवो बच्चों तुम्हें दिखायें…..
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
सरयूनदि का जल अति शीतल, पद्मपराग सुवास मिला।
रागभाव मल धोवन कारण, धार करें मनकंज खिला।।
जलधारा से पूजा करते, पावें उज्ज्वल कीर्ति को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।१।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथ-तीर्थंकरजन्मभूमिअयोध्यातीर्थक्षेत्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
केशर घिस कर्पूर मिलाया, भ्रमर पंक्तियां आन पड़ें।
तीर्थक्षेत्र पूजन से नशते, कर्मशत्रु भी बड़े बड़े।।
चंदन से पूजा करते ही, पावें अविचल कीर्ति को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।२।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथ-तीर्थंकरजन्मभूमिअयोध्यातीर्थक्षेत्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
चंद्र चन्द्रिका सम सित तंदुल, पुंज चढ़ायें भक्ती से।
अमृतकणसम निज समकित गुण, पायें अतिशय युक्ती से।।
अक्षत से जिनक्षेत्र पूजते, पावें अक्षय कीर्ति को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ के।।३।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथअनंत-नाथतीर्थंकरजन्मभूमिअयोध्यातीर्थक्षेत्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
वर्ण वर्ण के सुमन सुगंधित, पारिजात वकुलादि खिले।
काम व्यथा नश जाय क्षेत्र को, अर्पण कर नवलब्धि१ मिले।।
पुष्पों से पूजा करते ही, पावें निजगुण कीर्ति को।।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।४।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथअनंत-नाथतीर्थंकरजन्मभूमिअयोध्यातीर्थक्षेत्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
रसगुल्ला रसपूर्ण अंदरसा, कलाकंद पयसार२ लिये।
अमृतपिंड सदृश नेवज से, तीर्थक्षेत्र को यजन किये।।
चरु से पूजा करते ही जन, हरते क्षुध् की भीति को।।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।५।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथ-तीर्थंकरजन्मभूमिअयोध्यातीर्थक्षेत्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
हेमपात्र में घृत भर बत्ती, ज्योति जले तम नाश करे।
दीपक से आरति करते ही, हृदय पटल की भ्रांति हरे।।
करें आरती भक्ति भाव से, पावें आतमज्योति को।।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।६।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथअनंत-नाथतीर्थंकरजन्मभूमिअयोध्यातीर्थक्षेत्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
धूपघड़े में धूप जलाकर, अष्टकर्म को दग्ध करें।
निजआतम के भावकर्म मल, द्रव्यकर्म भी भस्म करें।।
धूप खेयकर पूजा करते, पावें सुरभित कीर्ति को।।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।७।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथअनंत-नाथतीर्थंकरजन्मभूमिअयोध्यातीर्थक्षेत्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतम तीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
फल अंगूर अनंनासादिक, सरस मधुर ले थाल भरे।
आत्म अतीन्द्रिय सुख इच्छुक हो, फल अर्पें बहु भक्ति भरे।।
फल से पूजा करते ही हम, पावें निजपद तीर्थ को।।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।८।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथअनंत-नाथतीर्थंकरजन्मभूमिअयोध्यातीर्थक्षेत्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
जल चंदन अक्षत माला चरु, दीप धूप फल अर्घ्य लिया।
केवल ‘ज्ञानमती’ पद हेतू, जिनपद पंकज अर्घ्य किया।।
अर्घ्य चढ़ाकर पूजा करते, पावें शिवपद तीर्थ को।।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।९।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथअनंत-नाथतीर्थंकरजन्मभूमिअयोध्यातीर्थक्षेत्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सरयूनदि का नीर, कंचन झारी में भरा।
मिले भवोदधि तीर, शांतीधारा शं करे।।१०।।
शांतये शांतिधारा
वकुल कमल कल्हार, पुष्पांजलि करते यहाँ।
मिले सौख्य भंडार, यश सौरभ चहुंदिश भ्रमें।।११।।
दिव्य पुष्पांजलिः
प्रत्येक अर्घ्य-(शंभु छंद)
(इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।)
आषाढ़ वदी दुतिया के जहाँ, कृतयुग का प्रथम महोत्सव था।
प्रभु ऋषभदेव के गर्भकल्याणक, का वह पहला उत्सव था।।
उस तीर्थ अयोध्या जी के प्रति, मेरा यह अर्घ्य समर्पण है।
हो गर्भवास दुख नाश मेरा, इस हेतु करूँ शत वन्दन मैं।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवगर्भकल्याणकपवित्रअयोध्यातीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ चैत्र कृष्ण नवमी तिथि को, जहाँ ऋषभदेव का जन्म हुआ।
माता मरुदेवी का आंगन, एवं त्रिलोक भी धन्य हुआ।।
पितु नाभिराय ने जहाँ किमिच्छक, दान सभी को बाँटा था।
उस नगरि अयोध्या को वन्दूँ, जहाँ लगा देव का तांता था।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवजन्मकल्याणकपवित्रअयोध्यातीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जहाँ चैत्र वदी नवमी को, नीलांजना नृत्य प्रभु ने देखा।
उसकी मृत्यु लख जीवन की, क्षणभंगुरता का क्षण देखा।।
वैरागी वृषभेश्वर ने जहाँ, जाकर दीक्षा धारण की थी।
वह तीर्थ प्रयाग प्रसिद्ध हुआ मैं पूजूँ मुझे मिले सिद्धी।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवदीक्षाकल्याणकपवित्रप्रयागतीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुन वदि ग्यारस तिथि को, केवलज्ञान प्रभू ने प्राप्त किया।
तब पुरिमतालपुर में धनपति ने, समवसरण निर्माण किया।।
नृप वृषभसेन ने दीक्षा लेकर, गणधर का पद प्राप्त किया।
मैं अर्घ्य चढ़ाकर नमन करूँ, वृषभेश्वर ने जहाँ ज्ञान लिया।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवकेवलज्ञानकल्याणकपवित्रपुरिमतालपुर१-तीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री अजितनाथ का गर्भागम, कल्याणक हुआ अयोध्या में।
वदि ज्येष्ठ अमावस धनपति ने, बरसाये रत्न अयोध्या में।।
उस नगरी का अर्चन करने को, अर्घ्य सजाकर लाया हूँ।
तीर्थंकर की शाश्वत नगरी को, वन्दन करने आया हूँं।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीअजितनाथगर्भकल्याणकपवित्रअयोध्यातीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जहाँ अजितनाथ का जन्मकल्याण, मनाने इन्द्र सभी आये।
शुभ माघ शुक्ल दशमी तिथि को, त्रैलोक्य के प्राणी हरषाये।।
उस पावन भूमि अयोध्या का, अर्चन सबको सुखकारी है।
तीर्थंकर श्री अजितेश्वर के, चरणों में धोक हमारी है।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीअजितनाथजन्मकल्याणकपवित्रअयोध्यातीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उस नगरी का सुन्दर वैभव भी, नहीं लुभा पाया प्रभु को।
शुभ माघ शुक्ल नवमी के दिन, वैराग्य हुआ अजितेश्वर को।।
साकेतपुरी के बाग सहेतुक, में जाकर दीक्षाधारी।
उस त्यागभूमि को अर्घ्य चढ़ा, चरणों में जाऊँ बलिहारी।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीअजितनाथदीक्षाकल्याणकपवित्रअयोध्यातीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
साकेतपुरी में अजितनाथ का, केवलज्ञान कल्याणक है।
तिथि पौष शुक्ल ग्यारस का दिन, परमातमपद का ज्ञायक है।।
उस तीर्थ अयोध्या की रज में, पावनता सदा महकती है।
मैं अर्घ्य चढ़ाकर नमूँ ज्ञान की, वर्षा जहाँ बरसती है।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीअजितनाथकेवलज्ञानकल्याणकपवित्रअयोध्यातीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वैशाख शुक्ल षष्ठी तिथि में, सिद्धार्था माँ के आँगन में।
साकेतपुरी में रत्न बरसते, पिता स्वयंवर के घर में।।
चौथे तीर्थंकर अभिनंदन, प्रभु का गर्भागम उत्सव था।
मैं अर्घ्य चढ़ाकर नमूँ अयोध्या, तीरथ सचमुच शाश्वत था।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीअभिनंदननाथगर्भकल्याणकपवित्रअयोध्यातीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अभिनन्दन जिन का जन्म हुआ, तब इन्द्र सिंहासन डोल उठा।
तिथि माघ शुक्ल द्वादशि के दिन, तीनों लोकों में शोर मचा।।
रत्नों की वर्षा हुई पिता ने, दान किमिच्छक बांट दिया।
उस पुण्यभूमि को अर्घ्य चढ़ा, मैंने भी आनंद प्राप्त किया।।१०।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीअभिनंदननाथजन्मकल्याणकपवित्रअयोध्यातीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस जगह प्रभू ने मेघों का, इक सुंदर नगर बसा देखा।
वैराग्य प्राप्त हो गया तुरत, जब वही नगर विनशा देखा।।
जग की नश्वरता लख वन में, जाकर दीक्षित हो गये प्रभो।
उस नगरि अयोध्या को पूजूं, हे अभिनन्दन जगवंद्य प्रभो।।११।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीअभिनंदननाथदीक्षाकल्याणकपवित्रअयोध्यातीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जयकार अयोध्या में गूंजी, जब पौष शुक्ल चौदश आई।
अभिनंदन प्रभु के तीर्थंकर, शुभ कर्म की प्रकृति उदय आई।।
धनपति ने समवसरण रचना, कर दी तुरंत गगनांगण में।
उस पावन भू को अर्घ्य चढ़ा, चाहूँ तीरथ का दर्शन मैं।।१२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीअभिनंदननाथकेवलज्ञानकल्याणकपवित्रअयोध्यातीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रावण शुक्ला दुतिया तिथि में, जहाँ सुमतिनाथ जी गर्भ बसे।
जिस जगह मेघरथ राजा की रानी, को सोलह स्वप्न दिखे।।
पितु मात की पूजा करने को, तब इन्द्र सपरिकर थे आये।
उस गर्भकल्याणक भूमी की, पूजन कर हम सब हरषाये।।१३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीसुमतिनाथगर्भकल्याणकपवित्रअयोध्यातीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मंगलावती माता ने जहाँ, प्रभु सुमतिनाथ को जन्म दिया।
तिथि चैत्र शुक्ल एकादशि ने, साकेतपुरी को धन्य किया।।
पर्वत सुमेरु पर ले जाकर, सौधर्म इन्द्र ने न्हवन किया।
उस जन्मभूमि को अर्घ्य चढ़ा, हम सबने पावन जनम किया।।१४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीसुमतिनाथजन्मकल्याणकपवित्रअयोध्यातीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वैशाख सुदी नवमी को जहाँ, प्रभु सुमति को जातिस्मरण हुआ।
दीक्षा का भाव प्रगटते ही, लौकान्तिक सुर आगमन हुआ।।
उद्यान सहेतुक में जाकर, वस्त्राभरणों का त्याग किया।
उस त्यागभूमि को अर्घ्य चढ़ा, हमने सुख का साम्राज्य लिया।।१५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीसुमतिनाथदीक्षाकल्याणकपवित्रअयोध्यातीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
साकेतपुरी का वह उपवन, फिर से इक बार प्रफुल्लित था।
जहाँ चैत्र सुदी ग्यारस के दिन, वैâवल्य दिवाकर प्रगटित था।।
उस ज्ञानकल्याणक के प्रतीक में, समवसरण निर्माण हुआ।
जो अर्घ्य चढ़ाकर नमन करें, उनका सचमुच कल्याण हुआ।।१६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीसुमतिनाथकेवलज्ञानकल्याणकपवित्रअयोध्यातीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्तिक वदी एकम तिथि जहाँ, माँ श्यामा ने देखे सपने।
जिनवर अनंत का गर्भकल्याण, मनाने आये देव घने।।
नृप सिंहसेन साकेतपती ने, सपनों का फल बतलाया।
उस तीर्थ अयोध्या की पूजन को, थाल सजा कर मैं लाया।।१७।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीअनंतनाथगर्भकल्याणकपवित्रअयोध्यातीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हुण्डावसर्पिणी काल अयोध्या, नगरी का इतिहास बना।
यहाँ पाँच प्रभू के जन्म में अन्तिम, प्रभु अनंत का धाम बना।।
शुभ ज्येष्ठ वदी बारस तिथि को, सुर मुकुट स्वयं ही नम्र हुए।
उस पुण्य धरा को अर्घ्य चढ़ा, तीरथवन्दन के भाव हुए।।१८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीअनंतनाथजन्मकल्याणकपवित्रअयोध्यातीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इक बार देख उल्का गिरते, जिनवर अनंत ने दीक्षा ली।
निज जन्मतिथी में ही प्रभु ने, परिकर व प्रजा को शिक्षा दी।।
क्षणभंगुर इस मानव तन से, अविनश्वर पद को पाना है।
इसलिए त्यागमय धरती को, श्रद्धा से अर्घ्य चढ़ाना है।।१९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीअनंतनाथदीक्षाकल्याणकपवित्रअयोध्यातीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
फिर उसी अयोध्या में अनंत, तीर्थंकर प्रभु को ज्ञान मिला।
उग्रोग्र तपस्या के द्वारा, जहाँ समवसरण का धाम मिला।।
वह चैत्र अमावस्या का दिन, सबने दिव्यध्वनि पान किया।
आठों द्रव्यों का अर्घ्य चढ़ा, मैंने निज में विश्राम किया।।२०।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीअनंतनाथकेवलज्ञानकल्याणकपवित्रअयोध्यातीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो नगरि अयोध्या तीर्थंकर की, शाश्वत जन्मभूमि मानी।
इस युग के पाँच जिनेश्वर के ही, जन्म से वह पावन मानी।।
सबके कल्याणक से पवित्र, साकेतपुरी का अर्चन है।
पूर्णार्घ्य समर्पण करके तीर्थ, व तीर्थंकर को वंदन है।।२१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथादिपंचतीर्थंकरकल्याणकपवित्रअयोध्यातीर्थक्षेत्राय पूर्णार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं अयोध्याजन्मभूमिपवित्रीकृत श्रीऋषभदेवाजिताभि- नंदनसुमतिनाथानंतजिनेन्द्रेभ्यो नमः।
-शंभु छन्द-
हे नाथ! आपके गुणमणि की, जयमाल गूंथ कर लाये हैं।
भक्ती से प्रभु के चरणों में, गुणमाल चढ़ाने आये हैं।।
है धन्य अयोध्यापुरी जहाँ, श्री आदिनाथ ने जन्म लिया।
जिन अजितनाथ अभिनंदन सुमती, प्रभु अनंत ने धन्य किया।।
वैâलाशगिरी से वृषभदेव जिन, मोक्षधाम को पाये हैं।।हे०।।१।।
सम्राट् भरतचक्री ने दीक्षा ले, शिवपद को प्राप्त किया।
इक्ष्वाकुवंशि१ नृप चौदह लाख हि, लगातार शिवधाम लिया।।
ये पुरी विनीता के जन्में, परमात्मधाम को पाये हैं।।हे०।।२।।
बाहुबलि कामदेव ने जीत, भरत को फिर दीक्षा धरके।
प्रभु एक वर्ष थे ध्यान लीन, तन बेल चढ़ी अहि भी लिपटे।।
फिर केवलज्ञानी बनें नाथ, हम गुण गाके हर्षाये हैं।।हे०।।३।।
श्री अजितनाथ आदिक चारों, तीर्थंकर सम्मेदाचल से।
शिवधाम गये इन्द्रादिवंद्य, हम नित वंदें, मन वच तन से।।
धनि धन्य अयोध्या जन्मस्थल, शिवथल वंदत हर्षाये हैं।।हे०।।४।।
चक्रीश सगर आदिक यहाँ के, कर्मारि नाश शिव लिया अहो।
श्री रामचन्द्र ने इसी अयोध्या, को पावन कर दिया अहो।।
मांगीतुंगी से मोक्ष गये, इन वंदत पुण्य बढ़ाये हैं।।हे०।।५।।
युग की आदी में आदिनाथ, पुत्री ब्राह्मी सुंदरी हुई।
पितु से ब्राह्मी औ अंकल्िापी, पाकर विद्या में धुरी हुई।।
पितु से दीक्षा ले गणिनी थीं, इनके गुण सुर नर गाये हैं।।हे०।।६।।
इनके पथ पर अगणित नारी, ने चलकर स्त्रीलिंग छेदा।
आर्यिका सुलोचना ने ग्यारह, अंगों को पढ़ जग संबोधा।।
दशरथ माँ पृथिवीमती आर्यिका, को हम शीश नमाये हैं।।हे०।।७।।
सीता ने अग्निपरीक्षा में, सरवर जल कमल खिलाया था।
पृथ्वीमति गणिनी से दीक्षित, आर्यिका बनी यश पाया था।।
श्रीरामचन्द्र लक्ष्मण लवकुश, सब दुःखी हृदय गुण गाये हैं।।हे०।।८।।
सीता ने बासठ वर्षों तक, बहु उग्र उग्र तप तप करके।
तैंतिस दिन सल्लेखना ग्रहण, करके सुसमाधि मरण करके।।
अच्युत दिव में होकर प्रतीन्द्र, रावण को बोध कराये हैं।।हे०।।९।।
जय जय रत्नों की खान रत्नगर्भा, रत्नों की प्रसवित्री।
जय जय साकेतापुरी अयोध्यापुरी विनीता सुखदात्री।।
जय जयतु अनादिनिधन नगरी, हम वंदन कर हर्षाये हैं।।हे०।।१०।।
बस काल दोष से इस युग में, यहाँ पांच तीर्थंकर जन्म लिये।
सब भूत भविष्यत् कालों में, चौबिस जिन जन्मभूमि हैं ये।।
हम इसका शत शत वंदन कर, अतिशायी पुण्य कमाये हैं।।हे०।।११।।
जय जय तीर्थंकर भरत सगर, जय रामचन्द्र लव कुश गुणमणि।
जय जयतु आर्यिका ब्राह्मी माँ, सुंदरी व सीता साध्वीमणि।।
हम केवल ‘ज्ञानमती’ हेतू, तुम चरणों शीश झुकाये हैं।।हे ०।।१२।।
जय जयतु अयोध्या जिस निकटे, है टिवैâतनगर जहाँ जन्म लिया।
जय जयतु आर्यिका रत्नमती, जिनने निज जीवन धन्य किया।।
ब्राह्मी माँ की पदधूलि बनूं, यह भाव हृदय लहराये हैं।
हे नाथ! आपके गुणमणि की, जयमाल गूंथ कर लाये हैं।।हे०।।१३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथअनंतनाथ- तीर्थंकरजन्मभूमिअयोध्यातीर्थक्षेत्राय जयमाला पूर्णार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
-दोहा-
वीर संवत् पचीस सौ, उन्निस मगसिर शुद्ध।
ग्यारस तिथि पूजा रची, जिन यजते हो सिद्धि।।१।।