रचयित्री-गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी
जिनने तीन लोक त्रैकालिक, सकल वस्तु को देख लिया।
लोकालोक प्रकाशी ज्ञानी, युगपत् सबको जान लिया।।
रागद्वेष जर मरण भयावह, निंह जिनका संस्पर्श करें।
अक्षय सुख-पथ के वे नेता, जग में मंगल सदा करें।।१।।
चन्द्र-किरण चन्दन गंगाजल, से भी शीतल जो वाणी।
जन्म-मरण भय रोग निवारण, करने में हैं कुशलानी।।
सप्तभंगयुत स्याद्वादमय, गंगा जगत पवित्र करें।
सबकी पाप धूलि को धोकर, जग में मंगल नित्य करें।।२।।
विषय वासना रहित निरम्बर, सकल परिग्रह त्याग दिया।
सब जीवों को अभय दान दे, निर्भय पद को प्राप्त किया।।
भव समुद्र में पतित जनों को, सच्चे अवलम्बन दाता।
वे गुरूवर मम हृदय विराजो, सब जन को मंगल दाता।।३।।
अनन्त भव के अगणित दु:ख से, जो जन का उद्धार करे।
इन्द्रिय सुख देकर शिव-सुख में, ले जाकर जो शीघ्र धरे।।
धर्म वही है तीन रत्नमय, त्रिभुवन की सम्पति देवे।
उसके आश्रय से सब जन को, भव-भव में मंगल होवे।।४।।
श्री गुरू का उपदेश ग्रहण कर, नित्य हृदय में धारें हम।
क्रोध मान मायादिक तजकर, विद्या का फल पावें हम।।
सबसे मैत्री दया क्षमा हो, सबसे वत्सल भाव रहे।
‘सम्यग्ज्ञानमती’ प्रगटित हो, सकल अमंगल दूर रहे।।५।।