(आचार्य श्री उमास्वामि-विरचित)
त्रैकाल्यं द्रव्य-षट्कं, नव-पद-सहितं जीव-षट्काय-लेश्या:।
पंचान्ये चास्तिकाया, व्रत-समिति-गति-ज्ञानचारित्र-भेदा:।।
इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवन-महितै: प्रोक्तमर्हद्भिरीशै:।
प्रत्येति श्रद्धाति, स्पृशति च मतिमान् य: स वै शुद्धदृष्टि:।।१।।
सिद्धे जयप्पसिद्धे चउव्विहाराहणाफलं पत्ते।
वंदित्ता अरहंते वोच्छं आराहणा कमसो।।२।।
उज्झोवणमुज्झवणं णिव्वहणं साहणं च णिच्छरणं।
दंसण-णाण-चरित्तं, तवाणमाराहणा भणिया।।३।।
मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्मभूभृताम्।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तद्गुणलब्धये।।४।।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्ग:।।१।। तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्।।२।। तन्निसर्गादधिगमाद्वा।।३।। जीवाजीवास्रवबंधसंवर-निर्जरा-मोक्षास्तत्त्वम्।।४।। नाम-स्थापना-द्रव्य-भाव-तस्तन्न्यास:।।५।। प्रमाण-नयैरधिगम:।।६।। निर्देश-स्वामित्व-साधनाधिकरण-स्थिति-विधानत:।।७।। सत्संख्या-क्षेत्र-स्पर्शनकालान्तर-भावाल्पबहुत्वैश्च।।८।। मति-श्रुतावधि-मन:पर्ययकेवलानि ज्ञानम्।।९।। तत्प्रमाणे।।१०।। आद्ये परोक्षम्।।११।। प्रत्यक्षमन्यत्।।१२।। मति: स्मृति: संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्।।१३।। तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्।।१४।। अवग्रहेहावाय-धारणा:।।१५।। बहु-बहुविध-क्षिप्रानि:सृतानुक्त-ध्रुवाणां सेतराणाम्।।१६।। अर्थस्य।।१७।। व्यञ्जनस्यावग्रह:।।१८।। न चक्षु-रनिन्द्रियाभ्याम्।।१९।। श्रुतं मति-पूर्वं द्व्यनेक-द्वादशभेदम्।।२०।। भवप्रत्ययोऽवधिर्देव-नारकाणाम्।।२१।। क्षयोपशमनिमित्त: षड्विकल्प: शेषाणाम्।।२२।। ऋजु-विपुलमती मन:पर्यय:।।२३।। विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेष:।।२४।। विशुद्धि-क्षेत्र-स्वामि-विषयेभ्योऽवधि-मन:पर्यययो:।।२५।। मतिश्रुतयो-र्निबन्धो द्रव्येष्वसर्व-पर्यायेषु।।२६।। रूपिष्ववधे:।।२७।। तदनन्त-भागे मन: पर्ययस्य।।२८।। सर्व-द्रव्य-पर्यायेषु केवलस्य।।२९।। एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्य:।।३०।। मति-श्रुतावधयो विपर्ययश्च।।३१।। सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत्।।३२।। नैगम-संग्रह-व्यवहारर्जु-सूत्र-शब्द-समभिरूढैवं-भूता-नया:।।३३।।
इति तत्त्वार्थाधिगमे-मोक्षशास्त्रे प्रथमोध्याय:।।१।।
औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिक-पारिणामिकौ च।।१।। द्वि-नवाष्टादशैकविंशति-त्रिभेदा यथाक्रमम्।।२।। सम्यक्त्व-चारित्रे।।३।। ज्ञानदर्शन-दान-लाभ-भोगोपभोगवीर्याणि च।।४।। ज्ञानाज्ञानदर्शन-लब्धयश्चतु-स्त्रित्रिपञ्च-भेदा सम्यक्त्व-चारित्र-संयमासंयमाश्च।।५।। गति-कषाय-लिंग-मिथ्यादर्शनाज्ञाना-संयतासिद्ध-लेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्येवैâवैâवैâक-षड्भेदा:।।६।। जीव-भव्याभव्यत्वानि च।।७।। उपयोगो लक्षणम्।।८।। स द्विविधोऽष्ट-चतुर्भेद:।।९।। संसारिणो मुक्ताश्च।।१०।। समनस्कामनस्का:।।११।। संसारिणस्त्रस-स्थावरा:।।१२।। पृथिव्यप्तेजो-वायु-वनस्पतय: स्थावरा:।।१३।। द्वीन्द्रियादयस्त्रसा:।।१४।। पञ्चेन्द्रियाणि।।१५।। द्विविधानि।।१६।। निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्।।१७।। लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम्।।१८।। स्पर्शन-रसन-घ्राण-चक्षु:श्रोत्राणि।।१९।। स्पर्श-रस-गंध-वर्ण-शब्दास्तदर्था:।।२०।। श्रुतमनिन्द्रियस्य।।२१।। वनस्पत्यन्तानामेकम्।।२२।। कृमि-पिपीलिका-भ्रमर-मनुष्यादीनामेवैâकवृद्धानि।।२३।। संज्ञिन: समनस्का:।।२४।। विग्रहगतौ कर्मयोग:।।२५।। अनुश्रेणि गति:।।२६।। अविग्रहा जीवस्य।।२७।। विग्रहवती च संसारिण: प्राक् चतुर्भ्य:।।२८।। एक-समयाऽविग्रहा।।२९।। एकं द्वौ त्रीन्वानाहारक:।।३०।। संमूर्च्छन-गर्भोपपादा जन्म।।३१।। सचित्त-शीत-संवृता: सेतरा मिश्राश्चैक-शस्तद्योनय:।।३२।। जरायुजाण्डज-पोतानां गर्भ:।।३३।। देवनारकाणा-मुपपाद:।।३४।। शेषाणां सम्मूर्च्छनम्।।३५।। औदारिक-वैक्रियिकाहारक-तैजसकार्मणानि शरीराणि।।३६।। परं परं सूक्ष्मम्।।३७।। प्रदेशतोऽसंख्येय-गुणं प्राक् तैजसात्।।३८।। अनन्त-गुणे परे।।३९।। अप्रतीघाते।।४०।। अनादिसंबंधे च।।४१।। सर्वस्य।।४२।। तदादीनि भाज्यानि युगपदेक-स्मिन्ना-चतुर्भ्य:।।४३।। निरुपभोगमन्त्यम्।।४४।। गर्भ-संमूर्च्छन-जमाद्यम्।।४५।। औपपादिकं वैक्रियिकम्।।४६।। लब्धिप्रत्ययं च।।४७।। तैजसमपि।।४८।। शुभं विशुद्धमव्याघातिचाहारकं प्रमत्तसंयत-स्यैव।।४९।। नारक-संमूर्च्छनो नपुंसकानि।।५०।। न देवा:।।५१।। शेषास्त्रिवेदा:।।५२।। औपपादिक-चरमोत्तमदेहाऽसंख्येय-वर्षायुषोऽन-पवर्त्यायुष:।।५३।।
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे द्वितीयोऽध्याय:।।२।।
रत्न-शर्करा-बालुका-पज्र्-धूम-तमो-महातम:-प्रभाभूमयो घनाम्बुवाताकाश-प्रतिष्ठा: सप्ताऽधोऽध:।।१।। तासु त्रिंशत्पंचविंशति-पंचदश-दश-त्रि-पंचोनैक-नरक शतसहस्राणि पंच चैव यथाक्रमम्।।२।। नारका नित्याशुभतर-लेश्या-परिणाम-देह-वेदना-विक्रिया:।।३।। परस्परोदीरित-दु:खा:।।४।। संक्लिष्टाऽसुरोदीरित-दु:खाश्च प्राक् चतुर्थ्या:।।५।। तेष्वेक-त्रिसप्त-दश-सप्तदश-द्वाविंशति-त्रयस्त्रिंशत्सा-गरोपमा सत्त्वानां परा स्थिति:।।६।। जंबूद्वीपलवणोदादय: शुभ-नामानो द्वीपसमुद्रा:।।७।। द्विर्द्विर्विष्कम्भा: पूर्व-पूर्व-परिक्षेपिणो वलयाकृतय:।।८।। तन्मध्ये मेरु-नाभिर्वृत्तो योजनशतसहस्र-विष्कम्भो जम्बूद्वीप:।।९।। भरतहैमवत-हरि-विदेह-रम्यव्â-हैरण्यवतैरावतवर्षा: क्षेत्राणि।।१०।। तद्विभाजिन: पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषध-नील-रुक्मि-शिखरिणो वर्षधरपर्वता:।।११।। हेमार्जुन-तपनीय-वैडूर्य-रजत-हेममया:।।१२।। मणि-विचित्र-पार्श्वा उपरिमूले च तुल्यविस्तारा:।।१३।। पद्म-महापद्म-तिगिंछ-केशरि-महापुण्डरीक-पुंडरीका ह्रदास्तेषामुपरि।।१४।। प्रथमो योजन-सहस्रायामस्तदर्द्धविष्कम्भो ह्रद:।।१५।। दश-योजनावगाह:।।१६।। तन्मध्ये योजनं पुष्करम्।।१७।। तद्द्विगुण-द्विगुणा हृदा: पुष्कराणि च।।१८।। तन्निवासिन्यो देव्य: श्री-ह्री-धृति-कीर्ति-बुद्धि-लक्ष्म्य: पल्योपमस्थितय: ससामानिक-परिषत्का:।।१९।। गङ्गा-सिंधु-रोहिद्रोहितास्या-हरिद्धरिकान्ता-सीता-सीतोदा-नारी-नरकान्ता-सुवर्ण-रूप्यकूला-रक्ता-रक्तोदा: सरितस्तन्मध्यगा:।।२०।। द्वयोर्द्वयो: पूर्वा: पूर्वगा:।।२१।। शेषास्त्वपरगा:।।२२।। चतुर्दश-नदी-सहस्र-परिवृता गंगा-सिंध्वादयो नद्य:।।२३।। भरत: षड्विंशति-पंच-योजन-शत-विस्तार: षट् चैकोनविंशति-भागा योजनस्य।।२४।। तद्द्विगुण-द्विगुण-विस्तारा वर्षधर-वर्षा विदेहांता:।।२५।। उत्तरा दक्षिण-तुल्या:।।२६।। भरतैरावतयोर्वृद्धि-ह्रासौषट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्य-वसर्पिणीभ्याम्।।२७।। ताभ्यामपराभूमयोऽवस्थिता:।।२८।। एक-द्वि-त्रि-पल्योपम-स्थितयो हैमवतक-हारिवर्षक-देवकुरवका:।।२९।। तथोत्तरा:।।३०।। विदेहेषु-संख्येय-काला:।।३१।। भरतस्य विष्कम्भो जम्बूद्वीपस्य नवतिशत-भाग:।।३२।। द्विर्धातकीखण्डे।।३३।। पुष्करार्द्धे च।।३४।। प्राङ्मानुषोत्तरान्मनुष्या:।।३५।। आर्याम्लेच्छाश्च।।३६।। भरतैरावत-विदेहा: कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्य:।।३७।। नृस्थिती परावरे त्रिपल्योपमान्त-र्मुहूर्ते।।३८।। तिर्यग्योनिजानां च।।३९।।
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे तृतीयोऽध्याय:।।३।।
देवाश्चतुर्णिकाया:।।१।। आदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्या:।।२।। दशाष्ट-पञ्च-द्वादश-विकल्पा कल्पोपपन्न पर्यन्ता:।।३।। इंद्र-सामानिक-त्रायस्ंित्रश-पारिषदात्मरक्ष-लोकपालानीक-प्रकीर्णकाभियोग्यकिल्वि-षिकाश्चैकश:।।४।। त्रायिंस्त्रश-लोकपाल-वर्ज्या व्यंतरज्योतिष्का:।।५।। पूर्वयोर्द्वीन्द्रा:।।६।। काय-प्रवीचारा आ ऐशानात्।।७।। शेषा: स्पर्श-रूप-शब्द-मन: प्रवीचारा:।।८।। परेऽप्रवीचारा:।।९।। भवन-वासिनोऽ-सुरनाग-विद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधि-द्वीप-दिक्कुमारा:।।१०।। व्यन्तरा: किन्नर-किंपुरुष-महोरग-गन्धर्व-यक्ष-राक्षस-भूत-पिशाचा:।।११।। ज्योतिष्का: सूर्याचन्द्रमसौ ग्रह-नक्षत्र-प्रकीर्णक-तारकाश्च।।१२।। मेरु-प्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके।।१३।। तत्कृत: काल विभाग:।।१४।। बहिरवस्थिता:।।१५।। वैमानिका:।।१६।। कल्पोपपन्ना: कल्पातीताश्च।।१७।। उपर्युपरि।।१८।। सौधर्मेशान-सानत्कुमार-माहेन्द्र-ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर-लान्तव-कापिष्ट-शुक्र-महाशुक्र-शतार-सहस्रारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युत-योर्नवसु गै्रवेयकेषु विजय-वैजयन्त जयन्तापराजितेषु सर्वार्थसिद्धौ च।।१९।। स्थिति-प्रभाव-सुख-द्युति-लेश्याविशुद्धीन्द्रियावधि-विषय-तोऽधिका:।।२०।।गति-शरीर-परिग्रहाभिमानतो हीना:।।२१।। पीत-पद्म-शुक्ल-लेश्या द्वि-त्रि-शेषेषु।।२२।। प्राग्ग्रैवेयकेभ्य: कल्पा:।।२३।। ब्रह्म-लोकालया लौकान्तिका:।।२४।। सारस्वतादित्य वन्ह्यरुण-गर्दतोय-तुषिताव्याबाधारिष्टाश्च।।२५।। विजयादिषु द्वि-चरमा:।।२६।। औपपादिक-मनुष्येभ्य: शेषास्तिर्यग्योनय:।।२७।। स्थितिरसुर-नाग-सुपर्ण-द्वीपशेषाणां-सागरोपम-त्रिपल्योपमार्द्धहीन-मिता:।।२८।। सौधर्मेशानयो: सागरोपमेऽधिके।।२९।। सानत्कुमार-माहेन्द्रयो: सप्त।।३०।। त्रिसप्त-नवैकादश-त्रयोदश-पञ्चदशभिरधिकानि तु।।३१।। आरणाच्युता-दूर्ध्वमेवैâकेन नवसु ग्रैवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धौ च।।३२।। अपरा पल्योपममधिकम्।।३३।। परत: परत: पूर्वा पूर्वाऽनन्तरा।।३४।। नारकाणां च द्वितीयादिषु।।३५।। दश-वर्षसहस्राणि प्रथमायाम्।।३६।। भवनेषु च।।३७।। व्यन्तराणां च।।३८।। परा पल्योपममधिकम्।।३९।। ज्योतिष्काणां च।।४०।। तदष्टभागोऽपरा।।४१।। लौकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषाम्।।४२।।
इति तत्त्वार्र्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे चतुर्थोऽध्याय:।।४।।
अजीव-काया-धर्माधर्माकाश-पुद्गला:।।१।। द्रव्याणि।।२।। जीवाश्च।।३।। नित्यावस्थितान्यरूपाणि।।४।। रूपिण: पुद्ग्रला:।।५।। आ आकाशादेक-द्रव्याणि।।६।। निष्क्रियाणि च।।७।। असंख्येया: प्रदेशा धर्माधर्मैकजीवानाम्।।८।। आकाशस्यानन्ता:।।९।। संख्येया-संख्येयाश्च पुद्गलानाम्।।१०।। नाणो:।।११।। लोकाकाशेऽवगाह:।।१२।। धर्माधर्मयो: कृत्स्ने।।१३।। एकप्रदेशादिषु भाज्य: पुद्गलानाम्।।१४।। असंख्येय-भागादिषु जीवानाम्।।१५।। प्रदेश-संहार-विसर्पाभ्यां प्रदीपवत्।।१६।। गति-स्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकार:।।१७।। आकाशस्या-वगाह:।।१८।। शरीरवाङ्मन:-प्राणापाना पुद्गलानाम्।।१९।। सुख-दु:ख-जीवितमरणोपग्रहाश्च।।२०।। परस्परोपग्रहो जीवानाम्।।२१।। वर्तना-परिणाम-क्रिया-परत्वापरत्वे च कालस्य।।२२।। स्पर्श-रस-गंध-वर्णवन्त: पुद्गला:।।२३।। शब्द-बंध-सौक्ष्म्य-स्थौल्य-संस्थान-भेद-तमश्छायातपोद्योतवन्तश्च।।२४।। अणव: स्कन्धाश्च।।२५।। भेद-संघातेभ्य उत्पद्यन्ते।।२६।। भेदादणु:।।२७।। भेद-संघाताभ्यां चाक्षुष:।।२८।। सद् द्रव्य-लक्षणम्।।२९।। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत्।।३०।। तद्भावाव्ययं नित्यम्।।३१।। अर्पितानर्पितसिद्धे:।।३२।। स्निग्ध-रूक्षत्वाद्बंध:।।३३।। न जघन्य-गुणानाम्।।३४।। गुणसाम्ये सदृशानाम्।।३५।। द्व्यधिकादि गुणानां तु।।३६।। बन्धेऽधिकौ पारिणामिकौ च।।३७।। गुण-पर्ययवद् द्रव्यम्।।३८।। कालश्च।।३९।। सोऽनन्तसमय:।।४०।। द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणा:।।४१।। तद्भाव: परिणाम:।।४२।।
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे पंचमोऽध्याय:।।५।।
काय-वाङ्मन: कर्म-योग:।।१। स आस्रव:।।२।। शुभ: पुण्यस्याशुभ: पापस्य।।३।। सकषायाकषाययो: साम्परायिकेर्यापथयो:।।४।। इन्द्रिय-कषायाव्रत-क्रिया: पंच-चतु:-पंच-पंचविंशति-संख्या: पूर्वस्य भेदा:।।५।। तीव्र-मंद-ज्ञाताज्ञात-भावाधिकरण-वीर्य-विशेषेभ्यस्तद्विशेष:।।६।। अधिकरणं जीवाजीवा:।।७।। आद्यं संरम्भ-समारम्भारम्भयोग कृत-कारितानुमत-कषाय-विशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रि-श्चतुश्चैकश:।।८।। निर्वर्तना-निक्षेप-संयोग-निसर्गा द्विचतुर्द्वि-त्रिभेदा: परम्।।९।। तत्प्रदोष-निन्हव-मात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञान-दर्शनावरणयो:।।१०।। दु:ख-शोक-तापाक्रन्दन-वध-परिदेवनान्यात्म-परोभय-स्थानान्यसद्वेद्यस्य।।११।। भूत-व्रत्यनुकम्पादान-सराग-संयमादि-योग: क्षांति: शौचमिति सद्वेद्यस्य।।१२।। केवलि-श्रुत-संघ-धर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य।।१३।। कषायोदयात्तीव्र-परिणामश्चारित्र-मोहस्य।।१४।। बह्वारम्भ-परिग्रहत्वं नारकस्यायुष:।।१५।। माया तैर्यग्योनस्य।।१६।। अल्पारम्भ परिग्रहत्वं मानुषस्य।।१७।। स्वभाव-मार्दवं च।।१८।। नि:शील-व्रतित्वं च सर्वेषाम्।।१९।। सरागसंयम-संयमा-संयमाकामनिर्जराबालतपांसि देवस्य।।२०।। सम्यक्त्वं च।।२१।। योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्न:।।२२।। तद्विपरीतं शुभस्य।।२३।। दर्शनविशुद्धिर्विनयसम्पन्नता-शील-व्रतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्ण-ज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्याग-तपसी साधुसमाधिर्वैयावृत्य-करणमर्हदाचार्य-बहुश्रुत-प्रवचन-भक्तिरावश्यका-परिहाणिर्मार्ग-प्रभावना-प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य।।२४।। परात्म-निन्दा-प्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य।।२५।। तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेकौ चोत्तरस्य।।२६।। विघ्नकरण-मन्तरायस्य।।२७।।
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे षष्ठोऽध्याय:।।६।।
हिंसाऽनृत-स्तेयाब्रह्म-परिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम्।।१।। देश सर्वतोऽणु-महती।।२।। तत्स्थैर्यार्थं भावना: पञ्च-पञ्च।।३।। वाङ्मनोगुप्तीर्या-दाननिक्षेपण-समित्यालोकित-पान-भोजनानि पञ्च।।४।। क्रोध-लोभ-भीरुत्व-हास्य-प्रत्याख्यानान्यनुवीचि-भाषणं च पञ्च।।५।। शून्यागार-विमोचितावास-परोपरोधाकरण-भैक्ष्यशुद्धि-सधर्माविसंवादा: पञ्च।।६।। स्त्रीरागकथा श्रवण-तन्मनोहरांग निरीक्षण पूर्व-रतानुस्मरण-वृष्येष्टरस-स्वशरीरसंस्कारत्यागा: पञ्च।।७।। मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रिय-विषय-राग-द्वेष वर्जनानि पञ्च।।८।। हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम्।।९।। दु:खमेव वा।।१०।। मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थानि च सत्त्व-गुणाधिक-क्लिश्यमानाविनयेषु।।११।। जगत्काय-स्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम्।।१२।। प्रमत्तयोगात्प्राण-व्यपरोपणं हिंसा।।१३।। असदभिधानमनृतम्।।१४।। अदत्तादानं स्तेयम्।।१५।। मैथुन-मब्रह्म।।१६।। मूर्च्छा परिग्रह:।।१७।। नि:शल्यो व्रती।।१८।। अगार्यनगारश्च।।१९।। अणुव्रतोऽगारी।।२०।। दिग्देशानर्थदण्ड-विरति-सामायिक-प्रोषधोपवा-सोपभोग-परिभोग-परिमाणातिथि-संविभागव्रतसम्पन्नश्च।।२१।। मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता।।२२।। शंका-कांक्षाविचिकित्सान्य-दृष्टि-प्रशंसा-संस्तवा: सम्यग्दृष्टेरतीचारा:।।२३।। व्रत-शीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम्।।२४। बंधवध-च्छेदाति-भारारोपणान्नपान-निरोधा:।।२५।। मिथ्योपदेश-रहोभ्याख्यान-कूटलेखक्रिया-न्यासापहार-साकारमन्त्र-भेदा:।।२६।। स्तेनप्रयोग-तदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रम-हीनाधिक-मानोन्मान-प्रतिरूपक-व्यवहारा:।।२७।। परविवाहकरणे त्वरिका-परिगृहीतापरिगृहीता-गमनानङ्गक्रीडा-कामतीव्राभिनिवेशा:।।२८।। क्षेत्रवास्तु-हिरण्यसुवर्ण-धन-धान्य-दासीदास-कुप्य-प्रमाणातिक्रमा:।।२९।। ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धि-स्मृत्यंतराधानानि।।३०।। आनयन-प्रेष्यप्रयोग-शब्दरूपानुपात-पुद्गलक्षेपा:।।३१।। कन्दर्प-कौत्कुच्य-मौखर्यासमीक्ष्याधि-करणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि।।३२।। योग दु:प्रणिधानानादर-स्मृत्यनुपस्थानानि।।३३।। अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जि-तोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणा-नादरस्मृत्यनुपस्थानानि।।३४।। सचित्त-संबंधसम्मिश्रा-भिषवदु:पक्वाहारा:।।३५।। सचित्त-निक्षेपापिधानपरव्य-पदेश-मात्सर्यकालातिक्रमा:।।३६।। जीवित-मरणाशंसा-मित्रानुराग-सुखानुबंध-निदानानि।।३७।। अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम्।।३८।। विधि-द्रव्य-दातृ-पात्र-विशेषात्तद्विशेष:।।३९।।
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे सप्तमोऽध्याय:।।७।।
मिथ्यादर्शनाविरति-प्रमाद-कषाय-योगा बन्धहेतव:।।१।। सकषायत्वाज्जीव: कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बंध:।।२।। प्रकृति स्थित्यनुभाग-प्रदेशास्तद्विधय:।।३।। आद्यो ज्ञान-दर्शनावरणवेदनीय-मोहनीयायुर्नाम-गोत्रान्तराया:।।४।। पञ्च-नव-द्व्यष्टािंवशति-चतु-र्द्विचत्वारिंशद्द्वि-पञ्च भेदा यथाक्रमम्।।५।। मतिश्रुतावधि-मन:पर्यय- केवलानाम्।।६।। चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रा-निद्रानिद्रा-प्रचला-प्रचलाप्रचला-स्त्यानगृद्धयश्च।।७।। सदसद्वेद्ये।।८।। दर्शनचारित्र-मोहनीयाकषाय-कषायवेदनीयाख्यास्त्रिद्वि-नव-षोडशभेदा: सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-तदुभयान्यकषाय-कषायौ हास्यरत्यरति-शोक-भय-जुगुप्सा-स्त्री-पुन्नपुंसक-वेदा अनन्तानुबंध्य-प्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान-संज्वलन-विकल्पाश्चैकश: क्रोध-मान-माया-लोभा:।।९।। नारकतैर्यग्योन-मानुष-दैवानि।।१०।।गति-जाति-शरीराङ्गोपाङ्गनिर्माण-बंधन-संघात-संस्थान-संहनन-स्पर्श-रस-गंध-वर्णानुपूर्व्यगुरुलघूपघात-परघातातपोद्यो-तोच्छ्वास-विहायोगतय: प्रत्येक-शरीर-त्रस-सुभग-सुस्वर-शुभ-सूक्ष्म-पर्याप्ति-स्थिरादेय यश: कीर्ति-सेतराणि तीर्थकरत्वं च।।११।। उच्चैर्नीचैश्च।।१२।। दान-लाभ-भोगोपभोग-वीर्याणाम्।।१३।। आदितस्तिसृणा-मंतरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्य: परा स्थिति:।।१४।। सप्तति-र्मोहनीयस्य।।१५।। िंवशतिर्नाम-गोत्रयो:।।११६।। त्रयिंस्त्रशत् सागरोपमाण्यायुष:।।१७।। अपरा द्वादश मुहूर्ता वेदनीयस्य।।१८।। नाम-गोत्रयोरष्टौ।।१९।। शेषाणामन्तर्मुहूर्ता।।२०।। विपाकोऽनुभव:।।२१।। स यथानाम्।।२२।। ततश्च निर्जरा।।२३।। नाम-प्रत्यया: सर्वतो योग-विशेषात्-सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाह-स्थिता: सर्वात्म-प्रदेशेष्वनन्तानन्त-प्रदेशा:।।२४।। सद्वेद्यशुभायुर्नाम-गोत्राणि पुण्यम्।।२५।। अतोऽन्यत्पापम्।।२६।।
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रेऽष्टमोऽध्याय:।।८।।
आस्रव-निरोध: संवर:।।१।। स गुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षा-परीषहजय-चारित्रै:।।२।। तपसा निर्जरा च।।३।। सम्यग्योगनिग्रहो गुप्ति:।।४।। ईर्याभाषैषणा-दाननिक्षेपोत्सर्गा: समितय:।।५।। उत्तमक्षमा-मार्दवार्जव-सत्य-शौच-संयमतपस्त्यागा-किञ्चन्य-ब्रह्मचर्याणि धर्म:।।६।। अनित्याशरण-संसारैकत्वान्यत्वाशुच्यास्रव-संवर-निर्जरा-लोक-बोधिदुर्लभ-धर्म-स्वाख्यातत्त्वानु-चिन्तन-मनुप्रेक्षा:।।७।। मार्गाच्यवन-निर्जरार्थं परिषोढव्या: परीषहा:।।८।। क्षुत्पिपासा-शीतोष्णदंश-मशवâ-नाग्न्यारति-स्त्री-चर्या-निषद्या-शय्याक्रोशवधयाचनालाभ-रोग-तृणस्पर्श-मल-सत्कारपुरस्कार-प्रज्ञाज्ञानादर्शनानि।।९।। सूक्ष्मसाम्पराय-छद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश।।१०।। एकादश जिने।।११।। बादर-साम्पराये सर्वे।।१२।। ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने।।१३।। दर्शन-मोहान्तराययोरदर्शनालाभौ।।१४।। चारित्रमोहे नाग्न्यारति-स्त्री-निषद्या-क्रोश-याचना-सत्कारपुरस्कारा:।।१५।। वेदनीये शेषा:।।१६।। एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नैकोन-विंशते:।।१७।। सामायिकच्छेदोपस्थापना-परिहारविशुद्धि-सूक्ष्मसाम्पराय-यथाख्यात-मितिचारित्रम्।।१८।। अनशनावमौदर्य-वृत्तिपरिसंख्यान-रस-परित्याग-विविक्तशय्यासन-कायक्लेशा बाह्यं तप:।।१९।। प्रायश्चित्त-विनय-वैयावृत्त्य-स्वाध्याय-व्युत्सर्ग-ध्यानान्युत्तरम्।।२०।। नवचतुर्दश-पञ्च द्विभेदा यथाक्रमं प्राग्ध्यानात्।।२१।। आलोचना-प्रतिक्रमण-तदुभय-विवेक-व्युत्सर्ग-तपश्छेदपरिहारोपस्थापना:।।२२।। ज्ञान-दर्शन-चारित्रोपचारा:।।२३।। आचार्योपाध्याय-तपस्वि-शैक्ष्य-ग्लान-गण-कुल-संघ-साधु-मनोज्ञानाम्।।२४।। वाचना-पृच्छनानु-प्रेक्षाम्नाय-धर्मोपदेशा:।।२५।। बाह्याभ्यन्तरो-पध्यो:।।२६।। उत्तम-संहननस्यैकाग्र-चिन्ता-निरोधो ध्यानमान्त-र्मुहूर्तात्।।२७।। आर्त्त-रौद्र-धर्म्य-शुक्लानि।।२८।। परे मोक्षहेतू।।२९।। आर्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृति-समन्वाहार:।।३०।। विपरीतं मनोज्ञस्य।।३१।। वेदनायाश्च।।३२।। निदानं च।।३३।। तदविरत-देश-विरत-प्रमत्तसंयतानाम्।।३४।। हिंसानृत-स्तेय-विषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरत-देशविरतयो:।।३५।। आज्ञापाय-विपाक-संस्थान-विचयाय धर्म्यम्।।३६।। शुक्ले चाद्ये पूर्व-विद:।।३७।। परे केवलिन:।।३८।। पृथ्क्त्वैकत्ववितर्क-सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति-व्युपरतक्रियानिवर्तीनि।।३९।। त्र्येकयोग-काययोगायोगानाम्।।४०।। एकाश्रये सवितर्क-वीचारे पूर्वे।।४१।। अवीचारं द्वितीयम्।।४२।। वितर्क: श्रुतम्।।४३।। वीचारोऽर्थव्यंजन-योगसंक्रान्ति:।।४४।। सम्यग्दृष्टि-श्रावक-विरता-नन्तवियोजक-दर्शनमोह-क्षपकोपशम-कोपशांत-मोहक्षपक-क्षीणमोह-जिना: क्रमशोऽसंख्येय-गुण-निर्जरा:।।४५।। पुलाक-वकुश-कुशील-निर्ग्रन्थ-स्नातका निर्ग्रंथा:।।४६।। संयम-श्रुत-प्रतिसेवना-तीर्थलिङ्ग-लेश्योपपाद-स्थान-विकल्पत: साध्या:।।४७।।
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे नवमोऽध्याय:।।९।।
मोहक्षयाज्ज्ञान-दर्शनावरणान्तराय-क्षयाच्च केवलम्।।१।। बन्धहेत्वभाव-निर्जराभ्यां कृत्स्न-कर्म-विप्रमोक्षो मोक्ष:।।२।। औपशमिकादि-भव्यत्वानां च।।३।। अन्यत्र केवलसम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शन-सिद्धत्वेभ्य:।।४।। तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्या-लोकान्तात्।।५।। पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद्-बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च।।६।। आविद्ध-कुलालचक्रवद्-व्यपगतलेपालाबुवदेरण्डबीजवदग्निशिखावच्च।।७।। धर्मास्तिकायाभावात्।।८।। क्षेत्र-काल-गति-लिङ्ग-तीर्थचारित्र-प्रत्येकबुद्धबोधित-ज्ञानावगाहनान्तर-संख्याल्पबहुत्वत: साध्या:।।९।।
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे दशमोऽध्याय:।।१०।।
अक्षर-मात्र पद-स्वर-हीनं, व्यंजन-संधि-विवर्जित-रेफम्।
साधुभिरत्र मम क्षमितव्यं, को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे।।१।।
दशाध्याये परिच्छिन्ने, तत्त्वार्थे पठिते सति।
फलं स्यादुपवासस्य, भाषितं मुनिपुंगवै:।।२।।
तत्त्वार्थ – सूत्र – कर्त्तारं, गृद्धपिच्छोपलक्षितम्।
वन्दे गणीन्द्र – संजातमुमास्वामि – मुनीश्वरम्।।३।।
।।इति श्रीमदुमास्वामिविरचितं तत्त्वार्थसूत्रं समाप्तम्।।