शुद्धोपयोगी मुनि ही केवली बनते हैं—
उवओग विसुद्धो जो, विगदावरणंतरायमोहरओ।
भूदो सयमेवादा, जादि परं णेयभूदाणं।।१०१।।
(प्रवचनसार गाथा-१५)
शंभु छन्द—
जो महामुनि उपयोग विशुद्धी-पूर्वक ध्यान लगाते हैं।
उनके दर्शन-ज्ञानावरणी, अन्तराय-मोह नश जाते हैं।।
उस ही क्षण केवलज्ञान प्रगट, होता सर्वज्ञ कहाते हैं।
तब ज्ञेय पदार्थों के ज्ञाता, स्वयमेव प्रभो बन जाते हैं।।१०१।।
अर्थ—जो उपयोग से विशुद्ध हैं, वे मोहनीय, दर्शनावरण, ज्ञानावरण और अंतराय को नष्ट करके स्वयं ही ज्ञेय पदार्थों के अन्त को प्राप्त कर लेते हैं।
भावार्थ—जब महामुनि शुद्धोपयोगी होकर निश्चल ध्यान में तन्मय हो जाते हैं, तब वे मोहनीय कर्म को नष्ट कर बारहवें गुणस्थान में पहुँचकर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्मों का नाश करके उसी क्षण में केवलज्ञान को प्रकट कर सर्वज्ञ भगवान बन जाते हैं पुन: ये सर्वलोक-अलोक को एक साथ जान लेते हैं।
केवलज्ञान की महिमा—
तक्कालिगेव सव्वे, सदसब्भूदा हि पज्जया तासिं।
वट्टंते ते णाणे, विसेसदो दव्वजादीणं।।१०२।।
(प्रवचनसार गाथा-३७)
सर्वज्ञदेव के ज्ञान में, त्रैकालिक पर्याय झलकती हैं।
सम्पूर्ण भूत, भावी, पर्याएँ वर्तमान सम दिखती हैं।।
यदि ऐसा निंह मानें तो प्रभु का, दिव्यज्ञान वैâसे होगा ?।
बिन दिव्यज्ञान के जिनवर को, सम्पूर्ण ज्ञान वैâसे होगा ?।।१०२।।
अर्थ—उन केवली भगवान के ज्ञान में सम्पूर्ण भूत और भविष्यत् पर्याएँ विशेष रीति से वर्तमान की पर्यायों के समान प्रतिभासित होती रहती हैं।
भावार्थ—सर्वज्ञ के ज्ञान में अतीतकालीन राम-रावण आदि, भविष्यत्कालीन महापद्म तीर्थंकर आदि, वर्तमान के समान प्रत्यक्ष झलक रहे हैं, यदि ऐसा न माना जाए तो पुन: ‘तं णाणं दिव्वं त्ति हि के परूवेंति’, उन सर्वज्ञ भगवान का ज्ञान दिव्य है—अलौकिक है ऐसा भला कौन कहेंगे ? अत: सर्वज्ञ भगवान का ज्ञान त्रैकालिक सर्व पर्यायों में एक समय में जानता है, इसमें संदेह नहीं करना।
अरिहंत भगवान पुण्य के फल हैं—
पुण्णफला अरहंता, तेसिं किरिया पुणो हि ओदयिया।
मोहादीिंह विरहिया, तम्हा सा खाइगत्ति मदा।।१०३।।
(प्रवचनसार गाथा-४५)
अरिहंत अवस्था पुण्य प्रकृति का, फल है यह निश्चय मानो।
उनकी प्रत्येक क्रियाएँ, औदयिकी कहलाती यह जानो।।
मोहादिक से विरहित होने से, क्षायिक भी कहलाती हैं।
उन वीतराग की दिव्यध्वनि, आत्मा की ज्योति जलाती है।।१०३।।
अर्थ—अरिहंत भगवान पुण्य प्रकृति के फल हैं और उनकी क्रियाएँ निश्चय से औदयिकी हैं क्योंकि वे मोहादि से रहित होने से क्षायिक मानी गयी हैं।
भावार्थ—अरिहंत भगवान तीर्थंकर प्रकृति पुण्यरूपी कल्पवृक्ष के फल ही हैं उनका श्रीविहार, उपदेश आदि क्रियाएँ पुण्योदय से होती हैं अत: औदयिकी हैं फिर भी मोह के अभाव में इच्छा के न होने से वे सब घातिकर्म के क्षय से हुई हैं अत: क्षायिकी मानी जाती हैं। ऐसे भगवान का श्रीविहार और दिव्य उपदेश अनंत जीवों के लिये सुखकर माना गया है।
केवली भगवान व्यवहार से ही विश्व को जानते हैं—
जाणदि पस्सदि सव्वं, ववहारणएण केवली भगवं।
केवलणाणी जाणदि, पस्सदि णियमेण अप्पाणं।।१०४।।
(नियमसार गाथा-१५९)
भगवान केवली सारे जग को, जान रहे अरु देख रहे।
निंह है असत्य व्यवहारिक नय, वह ही ऐसा स्वीकार करे।।
फिर वही केवली निज आत्मा को, जान रहे अरु देख रहे।
इस पूर्ण सत्य को निश्चयनय, निश्चय से ही स्वीकार करे।।१०४।।
अर्थ—केवली भगवान व्यवहारनय से सारे विश्व को जानते हैं तथा देखते हैं और नियम से—निश्चयनय से केवली भगवान अपनी आत्मा को ही जानते-देखते हैं।
भावार्थ—यहाँ व्यवहारनय असत्य नहीं है, वह पराश्रित है, ऐसा समझना। अन्यथा सर्वज्ञ भगवान का सर्वलोकालोक का जानना-देखना झूठा मानना पड़ेगा, इसलिये व्यवहारनय के अनेक भेदों को समझना चाहिए। ये सभी नय अपने-अपने विषय को कहने में सच्चे ही हैं, झूठे नहीं हैं। हाँ! जो व्यवहारनय उपाधि को ग्रहण करने वाला है, वह अपेक्षाकृत ही अभूतार्थ है।
केवली भगवान सर्वकर्म क्षय कर लोकाग्र पर चले जाते हैं—
आउस्स खयेण पुणो, णिण्णासो होइ सेसपयडीणं।
पच्छा पावइ सिग्घं, लोयग्गं समयमेत्तेण।।१०५।।
(नियमसार गाथा-१७६)
अपनी आयूपर्यन्त केवली, समवसरण में रहते हैं।
आयू के क्षय के साथ शेष, कर्मों का क्षय भी करते हैं।।
पश्चात् शीघ्र ही समय मात्र में, लोक शिखर बस जाते हैं।
अशरीरी सिद्धात्मा बनकर, सिद्धालय में बस जाते हैं।।१०५।।
अर्थ—केवली भगवान के आयु के क्षय के साथ ही शेष प्रकृतियों का नाश हो जाता है, पश्चात् वे शीघ्र ही एक समयमात्र में लोकाग्र को प्राप्त कर लेते हैं।
भावार्थ—केवली भगवान अपनी आयुपर्यंत समवसरण में विराजकर दिव्यध्वनि के द्वारा असंख्य भव्यजीवों को धर्मोपदेश से तार देते हैं पुन: आयु कर्म के समाप्त होने के साथ-साथ शेष—अघाति कर्मों की प्रकृतियाँ भी नष्ट हो जाती हैं, तब अशरीरी सिद्धात्मा एकसमय मात्र में यहाँ से गमन कर तीन लोक के अग्रभाग में सिद्धालय में जाकर विराजमान हो जाते हैं।
सिद्ध भगवान लोकाग्र से ऊपर क्यों नहीं जाते ?
जीवाणं पुग्गलाणं, गमणं जाणेहि जाव धम्मत्थी।
धम्मत्थिकायभावे, तत्तो परदो ण गच्छंति।।१०६।।
(नियमसार गाथा-१८४)
जीव अरु पुद्गल का गमन क्षेत्र, धर्मास्तिकाय के आश्रित है।
उसके अभाव में जीव और, पुद्गल आगे निंह जा सकते हैं।।
बस पुरुषाकार प्रमाण लोक तक, धर्म द्रव्य की सत्ता है।
इस कारण ही उसके आगे निंह, जीव द्रव्य जा सकता है।।१०६।।
अर्थ—जीव और पुद्गलों का गमन जहाँ तक धर्मास्तिकाय है, वहीं तक जानो क्योंकि धर्मास्तिकाय के अभाव में ये उससे परे नहीं जा सकते हैं।
भावार्थ—पुरुषाकारप्रमाण लोकाकाश में ही जीव और पुद्गल हैं, यहीं तक धर्म, अधर्म और कालद्रव्य हैं इसलिये तीनों लोकों से परे धर्मास्तिकाय के न होने से सिद्ध भगवान भी अलोकाकाश में नहीं जा सकते हैं। यह व्यवहारनयप्रधान कथन है क्योंकि निश्चयनय से जीव के गमनागमन का प्रश्न ही नहीं है।
इस प्रकार अनंत-अनंत संसारी प्राणी, श्रावक और मुनिधर्म को प्राप्त कर ध्यान के बल से कर्मों का नाश कर सिद्ध भगवान हो चुके हैं, वे वापस संसार में कभी भी नहीं आएँगे।
हम आत्मगुणों की एवं भगवान की शरण लेते हैं—
णाणं सरणं मे, दंसणं च सरणं चरियसरणं च।
तव संजमं च सरणं, भगवं सरणो महावीरो।।१०७।।
(मूलाचार गाथा-९६)
मेरी आत्मा के लिये ज्ञान ही, शरण चरित्र शरण ही है।
तप, संयम, शरण और सम्यग्दर्शन, बिन शरण कोई निंह हैं।।
भगवान वीर की शरण मुझे, अंतिम समाधि की शरण मिली।
इन सच्चे चरणों में आकर, मुझको आत्मा की शरण मिली।।१०७।।
अर्थ—मेरे लिये ज्ञान शरण है, चारित्र शरण है, तप शरण है, संयम शरण है और भगवान महावीर स्वामी शरण हैं।
भावार्थ—यहाँ श्री कुन्दकुन्द देव ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और संयम को शरण माना ही है क्योंकि ये ही आत्मा को शुद्ध करने वाले हैं और आत्मा के ही गुण हैं, पुन: भगवान महावीर स्वामी की शरण ली है। हमें भी इन रत्नत्रय गुण की और भगवान महावीर की शरण लेनी चाहिये क्योंकि भगवान की शरण के बिना केवल अध्यात्म आपत्ति में रक्षा नहीं कर सकता है, यह नियम है।
ग्रन्थकार ने सर्वत्र व्यवहार-निश्चय का समन्वय किया है—
इदि णिच्छयववहारं, जं भणियं कुन्दकुन्दमुणिणाहे।
जो भावइ सुद्धमणो, सो पावइ परमणिव्वाणं।।१०८।।
(द्वादश अनुप्रेक्षा गाथा-९१)
मुझ कुन्दकुन्द मुनिनाथ ने जो, ऐसा निश्चय व्यवहार कहा।
दोनों ही नय के द्वारा जो, सिद्धान्त समन्वयसार कहा।।
उसको जो मुनिवर शुद्धमना, हो करके नितप्रति भाते हैं।
वे ही मुनिवर संसार छोड़, निर्वाण धाम पा जाते हैं।।१०८।।
अर्थ—मुझ कुन्दकुन्द मुनिनाथ ने जो इस प्रकार से निश्चय और व्यवहार को कहा है, उसको जो शुद्धमना होकर भाते हैं, वे परमनिर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं।
भावार्थ—‘बारह अनुपेक्खा’ ग्रन्थ में आचार्य श्रीकुन्दकुन्ददेव ने अंत में अपना नाम रखा है अत: ग्रन्थ की समाप्ति में अपना नाम नहीं रखना ऐसा एकान्त नहीं लेना चाहिये। आज प्राय: कई ग्रन्थों में कर्त्ता का नाम न होने से वे ग्रन्थ ही विसंवाद के विषय बन जाते हैं, जैसे कि पंचाध्यायी आदि।
इस प्रकार अपने सर्वग्रन्थों में आचार्यदेव ने निश्चयव्यवहार दोनों नयों का समन्वय किया है। जो दोनों नयों को लेकर शुद्ध आत्मतत्त्व आदि भाते हैं, वे ही निर्वाण सुख को प्राप्त कर लेते हैं।