नमो नम: सत्त्वहितंकराय, वीराय भव्याम्बुजभास्कराय।
अनंतलोकाय सुरार्चिताय, देवाधिदेवाय नमो जिनाय।।
जैनधर्म के ग्रंथों में लोक को-संसार को अनादिनिधन माना है। जैसे कि-‘लोगो अकिट्ठिमो खलु अणाइणिहणो सहावणिव्वत्तो।१’’
इसी लोक में मध्यलोक में ‘‘जम्बूद्वीप’’ नाम से प्रथम द्वीप है। इसके अन्तर्गत भरत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्ड में षट्काल परिवर्तन होता रहता है। प्रथमत: काल के अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी नाम से दो भेद हैं। उनमें प्रत्येक के अर्थात् अवसर्पिणी के सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमादु:षमा, दु:षमासुषमा, दु:षमा और अतिदु:षमा ये छह भेद हैं तथा उत्सर्पिणी काल के भी अतिदु:षमा, दु:षमा, दु:षमासुषमा, सुषमादु:षमा, सुषमा और सुषमासुषमा ये छह भेद हैं।
वर्तमान की अवसर्पिणी काल में तृतीय काल के अंत में पल्य का आठवाँ भाग अवशिष्ट रहने पर चौदह कुलकर उत्पन्न हुये हैं। उनके नाम क्रमश: प्रतिश्रुति, सन्मति, क्षेमंकर, क्षेमंधर, सीमंकर, सीमंधर, विमलवाहन, चक्षुष्मान्, यशस्वी, अभिचंद्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित् और नाभिराय१ हैं।
इनमें से अंतिम कुलकर नाभिराय से प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव उत्पन्न हुए हैं।