सिंधु घाटी की सभ्यता के नाम से प्रसिद्ध ‘हड़प्पा’ एवं ‘मोहनजोदड़ो’ नामक स्थलों पर उत्खनन से प्राप्त पुरातात्विक अवशेषों का सूक्ष्म अध्ययन कर पुरातत्त्ववेत्ताओं ने सिद्ध कर दिया है कि उस समय श्रमण संस्कृति-जैनसंस्कृति का व्यापक प्रभाव था। जैनों के आराध्य देव की मूर्ति भी उसकी मुद्राओं-सीलों पर उत्कीर्णित मिली हैं।
इसी उत्खनन में लगभग तीन हजार ई. पू. की एक मानवमूर्ति मिली है, जिसे विद्वानों ने प्रथम तीर्थंकर श्रीऋषभदेव के पिता अंतिम कुलकर नाभिराय की मूर्ति माना है। यह मूर्ति उस समय की है कि जब उन्होंने अपने पुत्र ऋषभदेव को अपना राजमुकुट पहनाकर स्वयं दीक्षा लेने का निर्णय कर लिया था। श्रीमद्भागवत में इसका स्पष्ट उल्लेख आता है-
‘विदितानुरागमहापौर-प्रकृतिजनपदो राजा नाभिराजात्मजं समयसेतु-रक्षायामभिषिच्य सह मरुदेव्या विशालायां प्रसन्ननिपुणेन तपसा समाधियोगेन महिमानमवाप्त।’’१
अर्थ-नाभिराज ने अपने पुत्र ऋषभदेव को राज्य देकर मरुदेवी के साथ तपपूर्वक वैराग्य-दीक्षा समाधि को धारण कर महिमा को प्राप्त किया।
इस उद्धरण से भी भगवान ऋषभदेव अतीव प्राचीन सिद्ध होते हैं पुन: उनका जैनधर्म भी अति प्राचीन सिद्ध हो ही जाता है।