इस अहिंसा धर्म के पालन हेतु श्रावक-गृहस्थ के लिए पाँच अणुव्रत माने हैं-अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रहपरिमाणाणुव्रत।
संकल्पपूर्वक-अभिप्रायपूर्वक-जानबूझकर दो इंद्रिय आदि त्रसजीवों को नहीं मारना अहिंसाणुव्रत है।हिंसा के चार भेद हैं-संकल्पी हिंसा, आरंभी हिंसा, उद्योगिनी हिंसा और विरोधिनी हिंसा। अभिप्रायपूर्वक जीवों की हिंसा संकल्पी हिंसा है। गृहस्थाश्रम में चूल्हा जलाना, पानी भरना आदि कार्यों में जो हिंसा होती है वह आरंभी हिंसा है। व्यापार में जो यत्किंचित् हिंसा होती है वह उद्योगिनी हिंसा है और धर्म, देश, धर्मायतन आदि की रक्षा के लिए जो युद्ध में हिंसा होती है वह विरोधिनी हिंसा है। इन चारों ही हिंसा में गृहस्थ लोग मात्र संकल्पी हिंसा का ही त्याग कर सकते हैं, शेष तीनों हिंसा से सावधानी और विवेक अवश्य रखते हैं इसीलिए यह व्रत श्रावकों का ‘अहिंसाणुव्रत’ कहलाता है।
ऐसे ही स्थूलरूप से झूठ का त्याग करना सत्याणुव्रत है। इस व्रती को ऐसा सत्य भी नहीं बोलना चाहिए कि जिससे धर्म की हानि हो या किसी पर विपत्ति आ जावे अथवा किसी जीव का घात हो जावे।पर के धन की चोरी का त्याग करना अचौर्याणुव्रत है।परस्त्री सेवन का त्याग करना ब्रह्मचर्याणुव्रत है। स्त्रियों के लिए परपुरुष का त्याग करना होता है जैसे कि सती सीता ने अपने इस ब्रह्मचर्याणुव्रत-शीलव्रत के प्रभाव से अग्नि को जल बना दिया था।अपने धन-धान्य का परिमाण करके इच्छाओं को सीमित करना परिग्रह परिमाण अणुव्रत है। इन पाँचों व्रतों के पालन करने वाले अणुव्रती कहलाते हैं।ये अणुव्रती गृहस्थ इस भव में सदा सुखी एवं यशस्वी होते हैं और परभव में नियम से स्वर्ग के वैभव को प्राप्त करते हैं।