जो महापुरुष हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँचों पापों का पूर्णरूपेण त्याग कर देते हैं वे महाव्रती कहलाते हैं। वे महामुनि, महासाधु, महर्षि, दिगम्बर मुनि आदि कहलाते हैं।युग की आदि में अयोध्या में भगवान ऋषभदेव जन्मे थे। ये इक्ष्वाकुवंशीय कहलाये थे। इन भगवान ने कल्पवृक्ष के अभाव में प्रजा के लिए असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन षट् क्रियाओं का उपदेश देकर जीने की कला सिखाई। विदेहक्षेत्र के अनुसार क्षत्रिय, वैश्य आदि वर्ण व्यवस्था बनाई। महामंडलीक राजा बनाकर पुन: उनके आश्रित अनेक राजा-महाराजा बनाकर ‘राजनीति’ का उपदेश दिया। अनन्तर जैनेश्वरी दीक्षा लेकर केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्षमार्ग का उपदेश दिया।
जब भगवान ऋषभदेव दीक्षा के सन्मुख हुए, तब अपने बड़े पुत्र भरत को राज्य देकर दीक्षा ली। आगे भरत चक्रवर्ती ने अपने बड़े पुत्र ‘अर्ककीर्ति’ को राज्य देकर जैनेश्वरी दीक्षा ली। अर्ककीर्ति ने अपने पुत्र ‘स्मितयश’ को राज्य सौंपकर मुनिपद धारण किया। इसी तरह इस इक्ष्वाकुवंश में अनेकों राजा अपने-अपने पुत्रों को राज्य दे-देकर दीक्षा ले-लेकर मोक्ष को प्राप्त कर चुके हैं। यह परम्परा चौदह लाख राजाओं तक अविच्छिन्न चलती रही है ऐसा हरिवंश पुराण में लिखा है।१
तात्पर्य यह समझना कि चतुर्थकाल में तो यह जैनधर्म ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तक में विस्तार को प्राप्त था। पंचमकाल में भी दक्षिण में मैसूर आदि में जैन राजा होते रहे थे।आज यह जैनधर्म वैश्यों में सिमट कर रह गया है।