जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित मध्यलोक के बीचों-बीच जंबूद्वीप है। इसके मध्य स्थित सुदर्शनमेरु के दक्षिण में भरतक्षेत्र है। इसके आर्यखण्ड की राजधानी ‘‘अयोध्या’’ है। इसे ‘‘साकेता’’ ‘‘विनीता’’ और ‘‘सुकोशला’’ भी कहते हैं। इस आर्यखण्ड में उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी के दोनों कालों में सुषमासुषमा आदि नाम से छह कालों का परिवर्तन होता रहता है। प्रत्येक के चतुर्थकाल में चौबीस-चौबीस तीर्थंकर जन्म लेते रहते हैं। इस नियम के अनुसार इस राजधानी अयोध्या में अतीत काल में अनंतानंत चौबीसी हो चुकी हैं और भविष्यत् काल में भी अनंतानंत चौबीसी होंगी। वर्तमान में हुंडावसर्पिणी होने से तृतीयकाल के अंत में ही भगवान ऋषभदेव हुए थे और तृतीयकाल में तीन वर्ष साढ़े आठ मास शेष रहने पर ही मोक्ष चले गये थे। इसी काल दोष से इस बार पांच तीर्थंकर ही अयोध्या में हुये हैं। शेष उन्नीस तीर्थंकर अन्यत्र रत्नपुरी आदि में जन्में हैं। इस प्रकार जैन धर्म अनादिनिधन है एवं तीर्थंकर परंपरा भी अनादिनिधन है।
तृतीयकाल के अंत में चौदह कुलकर हुए हैं ये भोगभूमिज युगलिया थे। इनमें तेरहवें और चौदहवें कुलकर अकेले हुए थे। चौदहवें कुलकर नाभिराज का विवाह ‘‘इन्द्र’’ ने प्रधान कुल की कन्या मरुदेवी के साथ कराया था। नाभिराज ने अपने पुत्र तीर्थंकर ऋषभदेव का विवाह इन्द्र की अनुमति से कच्छ-महाकच्छ की बहन यशस्वती और सुनंदा के साथ किया था। यशस्वती ने भरत आदि सौ पुत्रों और ब्राह्मी कन्या को एवं सुनंदा ने बाहुबली एवं सुंदरी को जन्म दिया था। अयोध्या की पवित्र भूमि पर ही भगवान ऋषभदेव ने अपनी दोनों पुत्रियों को अक्षर और गणित विद्या से प्रारंभ करके सभी पुत्रपुत्रियों को संपूर्ण विद्याओं-कलाओं में निष्णात् कर दिया था। प्रजा को असि, मषि आदि छह क्रियाओं का उपदेश देकर कर्मभूमि की सृष्टि को जन्म दिया था। तब ये भगवान सरागी-गृहस्थ थे।
भगवान के पुत्र ‘अनंतवीर्य’ भगवान से पहले मोक्ष गये हैं अनंतर दूसरा नंबर मोक्षमार्ग में ‘श्री बाहुबली’ का हुआ है। ब्राह्मी-सुंदरी ने भगवान के समवसरण में आर्यिका दीक्षा ली थी। ब्राह्मी आर्यिकाओं में प्रमुख गणिनी थीं तो भगवान के तृतीय पुत्र वृषभसेन प्रमुख गणधर हुये थे।भरत के प्रथम पुत्र अर्ककीर्ति के नाम से इस इक्ष्वाकुवंश को सूर्य वंश यह संज्ञा भी प्राप्त हुई थी। भरत के मोक्ष जाने के बाद इस वंश में लगातार चौदह लाख राजाओं ने अपने-अपने पुत्रों को राज्य दे-देकर दीक्षा ले-लेकर मोक्ष प्राप्त किया है।अयोध्या में ही भगवान अजितनाथ के बाद सगर चक्रवर्ती हुए हैं। देव के निमित्त से वौराग्य प्राप्त कर सगर चक्री ने एवं उनके साठ हजार पुत्रों ने जैनेश्वरी दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त किया है। सगर के पौत्र भगीरथ ने दीक्षा लेकर गंगा के तट पर ध्यान किया था तब देवों ने उनके चरणों का अभिषेक किया था जिसका प्रवाह गंगा नदी में मिल जाने से तभी से गंगा नदी तीर्थ रूपता को प्राप्त हो गई है।जैन रामायण के अनुसार इसी सूर्यवंश में राजा अनरण्य के पुत्र राजा दशरथ ने दिगंबर दीक्षा ली थी। रामचन्द्र के भाई भरत ने भी दीक्षा लेकर निर्वाण प्राप्त किया है। जब रामचन्द्र भाई लक्ष्मण के मोह में व्याकुल थे तभी सीता के पुत्र लव-कुश ने दैगंबरी दीक्षा ले ली थी। इसी अयोध्या में सती सीता ने अपने शील के प्रवाह से अग्नि को सरोवर बनाकर पृथ्वीमती आर्यिका के पास आर्यिका दीक्षा लेकर बासठ वर्ष तक घोर तपश्चर्या करके समाधिपूर्वक मरण कर स्वर्ग में प्रतीन्द्र पद प्राप्त किया था। ये रामचंद्र त्रेसठ शलाका पुरुषों में से आठवें बलभद्र, लक्ष्मण आठवें नारायण और रावण आठवें प्रतिनारायण हुए हैं। इस प्रकार अगणित महापुरुषों ने इस अयोध्या को पवित्र किया है।कु. अनंतमती ने यहीं पर आर्यिका दीक्षा ली थी।
वर्तमान में यहां पर कटरा के दिगम्बर जैन मंदिर में भगवान सुमतिनाथ की टोंक है। यहां अलग-अलग स्थानों पर भगवान अजितनाथ, अभिनंदन नाथ की टोंक हैं। सरयू नदी के तट पर भगवान अनंतनाथ की टोंक है। बकसरिया टोले में मस्जिद के पीछे की ओर आदिनाथ का एक छोटा सा जिन मंदिर है यही श्री आदिनाथ की टोंक कहलाता है।कटरा मोहल्ले में ही एक टोंक है जिसमें भरत-बाहुबली के चरण विराजमान हैं।यहां तीर्थंकरों की जो टोंक हैं वे भगवान के जन्मस्थान के सूचक हैं। कटरा मंदिर के सामने अयोध्या जैन कमेटी की दुमंजली धर्मशाला एवं आचार्य श्री देशभूषण गुरुकुल तथा संस्कृत माध्यमिक विद्यालय के नाम से शैक्षणिक संस्था भी है।अन्य इतिहास ग्रंथों के अनुसार सन् १३३० में अयोध्या में अनेक जैन मंदिर थे। महाराजा नाभिराज का मंदिर, पार्श्वनाथ बाड़ी, गोमुखयक्ष, चक्रेश्वरी यक्षी की रत्नमयी प्रतिमा, सीताकुंड, सहस्त्रधारा, स्वर्गद्वार आदि अनेक जैनायतन विद्यमान थे।कटरा मंदिर में सन् १९५२ में आ. श्री देशभूषण जी महाराज की प्रेरणा से भगवान आदिनाथ, भरत और बाहुबली की तीन मूर्तियां विराजमान की गई हैं। पुन: सन् १९६५ में इन्हीं आचार्य श्री की प्रेरणा से रायगंज में रियासती बाग के मध्य एक नवीन मंदिर बना है जिसमें ३१ फुट ऊंची भगवान ऋषभदेव की मूर्ति विराजमान हैं। आजू-बाजू में अन्य और छह प्रतिमायें विराजमान हैं। ऊपर भी दो वेदियां हैं।
धनतेरस कार्तिक कृ. १३ सन् १९९२ के दिन ब्रह्म मुहूर्त में मेरे मन में अयोध्या में विराजमान ३१ फुट उत्तुंग विशाल जिन प्रतिमा के महामस्तकाभिषेक कराने की भावना उत्पन्न हुई। फलस्वरूप ११ फरवरी १९९३ को हस्तिनापुर से विहार कर १६ जून १९९३ को मैंने वहां भगवान की विशाल प्रतिमा का प्रथम दर्शन किया। पुन: २४ फरवरी १९९४ के दिन महामस्तकाभिषेक की रूपरेखा बनी। तीन-चौबीसी मंदिर एवं समवसरण मंदिर का निर्माण भी इसी समय हुआ। साथ ही धर्मशालाएँ आदि और भी अनेक निर्माणकार्य इस समय सम्पन्न हुए है।
अयोध्या में प्राचीन जीर्णोद्धार के कुछ ऐतिहासिक उल्लेख
जैन तीर्थ अयोध्या को अनादि और शाश्वत कहा गया है। अत: अयोध्या के उपलब्ध इतिहास और विभिन्न शिलालेखों के आधार पर देखें कुछ ऐतिहासिक उल्लेख-
(१) ईसवी सन् ११९४ के लगभग आदिनाथ टोंक पर बने विशाल जिनमंदिर को ध्वस्त किया गया, जिसके कुछ समय उपरांत पुन: छोटा सा जिनमंदिर बनाया गया। शिलालेख में स्पष्ट है कि यह टोंक ला. केसरी सिंह के समय से पूर्व ही विद्यमान थी। पुन: ईसवी १८९९ में लखनऊ के पंचों द्वारा तथा ईसवी १९५६ में पुन: लखनऊ के श्रेष्ठी द्वारा इस टोंक के जीर्णोद्धार का इतिहास मिलता है।
(२) कटरा स्थित दि. जैन मंदिर में विक्रम संवत् १२२४ की प्रतिमा है। सन् १९५२ में आदिनाथ-भरत-बाहुबली प्रतिमाओं की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई है।
(३) अभिनंदननाथ टोंक पर सन् १७२४ एवं सन् १८९९ के जीर्णोद्धार का उल्लेख।
(४) अनंतनाथ टोंक पर ईसवी सन् १७२४ व १८९९ के जीर्णोद्धार का उल्लेख। इस टोंक से लगे हुए टीले की पुरातत्त्व विभाग द्वारा खुदाई कराई गई थी और अब से लगभग १०० वर्ष पूर्व जनरल कनिंघम ने उस टीले का वर्णन ‘‘जैन टीला’’ नाम से किया।