(श्री उमास्वामि आचार्यविरचित)
हिन्दी पद्यानुवाद-आर्यिका चन्दनामती
विष्लिष्यन् घनकर्मराशिमशनि: संसारभूमीभृत:।
स्वर्निर्वाणपुरप्रवेशगमने, नि:प्रत्यवाय: सतां।।
मोहांधावटसंकटे निपततां, हस्तावलम्बोर्हतां।
पायान्न: स चराचरस्य जगत: संजीवनं मन्त्रराट्।।१।।
णमोकार यह मंत्रराज, घनकर्म समूह हटाता है।
यह संसार महापर्वत, भेदन में वङ्का कहाता है।।
सत्पुरुषों को स्वर्ग मोक्ष दे, संकट दूर भगाता है।
मोह महान्धकूप में डूबे, को अवलम्बन दाता है।।१।।
दोहा– जीवनदाता मंत्र यह, करे जगत उद्धार।
मेरी भी रक्षा करो, णमोकार सुखकार।।
एकत्र पंचगुरुमंत्रपदाक्षराणि, विश्वत्रयं-पुनरनन्तगुणं परत्र।
यो धारयेत्किल तुलानुगतं तथापि, वंदे महागुरुतरं परमेष्ठिमन्त्रं।।२।।
एक तराजू के पलड़े पर, णमोकारपद मंत्र रखो।
लोकत्रय के गुण अनन्त, पुंजों को भी इक ओर रखो।।
परमेष्ठी के मंत्रों का, फिर भी पलड़ा भारी होगा।
गौरवशाली महामंत्र को, नमन करूँ शिवसुख देगा।।२।।
दोहा- णमोकार यह मंत्र है, जग में गुरुतर मंत्र।
नमूँ इसे सर्वत्र मैं, पाउँâ सौख्य स्वतंत्र।।
ये केचनापि सुषमाद्यरका अनंता, उत्सर्पिणीप्रभृतय: प्रययुर्विवर्त्ता:।
तेष्वप्ययं परतरं प्रथितं पुरापि, लब्ध्वैनमेव हि गता: शिवमत्र लोका:।।३।।
उत्सर्पिणि अवसर्पिणी के, सुषमादिक काल अनन्त रहे।
णमोकार यह महामंत्र ही, हुआ प्रसिद्ध सदा उनमें।।
काल अनादी से अनन्त तक, मंत्रराज यह शाश्वत है।
भव से पार मुक्ति हेतू, वंदन कर लूँ भव सार्थक है।।३।।
दोहा– अपराजित यह मंत्र है, पंचपदों से युक्त।
अंजन तस्कर हो गया, इसके बल पर मुक्त।।
उत्तिष्ठन्निपतञ्चलन्नपि धरा-पीठे लुठन् वा स्मरेत्-
जाग्रद्वा प्रहसन् स्वपन्नपि वने विभ्यन्निषीदन्नपि।
गच्छन् वर्त्मनि वेश्मनि प्रतिपदं, कर्म प्रकुर्वन्नपि
य: पंचप्रभुमंत्रमेकमनिशं िंक तस्य नो वांछितम्।।४।।
जो नर इस णमोकार मंत्र को, सदा-सदा स्मरण करे।
उठते-गिरते-चलते-पृथ्वी, पर भी लुढ़कते मन में धरे।।
जगते-सोते-हंसते अथवा, वन में भी जब डर लगता।
मंत्रराज को जपने से हर, मन वांछित फल है मिलता।।४।।
दोहा– मूलमंत्र जिनधर्म का, पढ़ो करो नित जाप।
देखो ग्वाला भी हुआ, सेठ सुदर्शनराज।।
संग्रामसागरकरीन्द्रभुजंगसिंह-दुर्व्याधिवन्हिरिपुबंधनसंभवानि।
चौरग्रहभ्रमनिशाचरशाकिनीनां, नश्यन्ति पंचपरमेष्ठिपदैर्भयानि।।५।।
युद्धक्षेत्र में या समुद्र में, मृत्यु सामने दिखती हो।
हाथी-सर्प-सिंह-दुर्व्याधि, तन में या अग्नी भी हो।।
शत्रु तथा बंधन एवं, चौरादि दुष्ट ग्रह दुख देते।
शाकिनि डाकिनि आदिकभय, परमेष्ठि पाँच सब हर लेते।।५।।
दोहा– इसी मंत्र के श्रवण से, श्वान हुआ यक्षेन्द्र।
पठन श्रवण और नमन से, निज मन करो पवित्र।।
यो लक्षं जिनलक्षबद्धहृदय:, सुव्यक्तवर्णक्रमम्।
श्रद्धावान्विजितेन्द्रियो भवहरं, मन्त्रं जपेच्छ्रावक:।।
पुष्पै: श्वेतसुगन्धिभि: सुविधिना, लक्षप्रमाणैरमुम्।
य: संपूजयते स विश्वमहितस्तीर्थाधिनाथो भवेत्।।६।।
जो श्रद्धालु जितेन्द्रिय श्रावक मन में प्रभु सुमिरन करके।
शुद्ध शब्द उच्चारणपूर्वक णमोकार का जप करते।।
एक लक्ष मंत्रों को जपकर पुष्प सफेद चढ़ाते हैं।
णमोकार पूजन से वे तीर्थाधिनाथ बन जाते हैं।।६।।
दोहा- श्वेत सुगंधित पुष्प ले, पूजूँ मंत्र महान।
जगत्पूज्य पद प्राप्त कर, बन जाऊँ भगवान।।
इन्दुर्दिवाकरतया रविरिंदुरूप:, पातालमंबरमिला सुरलोक एव।
किं जल्पितेन बहुना भुवनत्रयेपि, यन्नाम तन्न विषमं च समं च तस्मात्।।७।।
णमोकार के मंत्र नाम से, चन्द्र सूर्य सम बन सकता।
शशि सम सूरज बने तथा, पाताल भी नभ सम बन सकता।।
धरती स्वर्ग समान सुखद बन, इच्छित फल दे सकती है।
और कहें क्या ? तीन लोक की, हर वस्तू मिल सकती है।।७।।
दोहा- सुखदायक इस मंत्र से, मिलते सभी पदार्थ।
दुख भी सुख में बदलते, प्राणी होंय कृतार्थ।।
जग्मुर्जिनास्तदपवर्गपदं तदैव, विश्वं वराकमिदमत्र कथं विनास्मान्।
तत्सर्वलोकभुवनोद्धरणाय धीरै-र्मंत्रात्मकं निजवपुर्निहितं तदत्र।।८।।
धीर वीर जिनवर ने तब ही, शीघ्र मुक्ति पद प्राप्त किया।
जब निज तन को मंत्ररूप कर, आत्म तत्त्व में रमा लिया।।
त्रिभुवन के उद्धार हेतु जो, परमेष्ठी का ध्यान करें।
वे ही जग में क्रम-क्रम से, परमेष्ठी बन विश्राम करें।।८।।
दोहा- परमेष्ठी पद प्राप्ति का, यही मूल आधार।
णमोकार का ध्यान ही, करता भव से पार।।
हिंसावाननृतप्रिय: परधनं हर्त्ता परस्त्रीरत:।
किंचान्येष्वपि लोकगर्हितमति: पापेषु गाढोद्यत:।।
मन्त्रेशं सपदि स्मरेच्च सततं, प्राणात्यये सर्वदा।
दु:कर्माहितदुर्गतिक्षतचय: स्वर्गी भवेन्मानव:।।९।।
जो नर िंहसा झूठ व चोरी, तथा परस्त्री में रत है।
लोक निंद्य होकर महान, पापों में रहता तत्पर है।।
वह भी उन्हें तज यदी कदाचित्, मंत्रराज सुमिरन कर ले।
तो कुकर्म से अर्जित दुर्गति, बंध बदल दिवगति वर ले।।९।।
दोहा– णमोकार मंत्रेश यह, कुगति निवारक जान।
सुगति प्रदाता है इसे, शत शत करो प्रणाम।।
अयं धर्म: श्रेयान्नयमपि च देवो जिनपति-
र्व्रतं चैष श्रीमान्नयमपि तप: सर्वफलदं।
किमन्यैर्वाग्जालैर्बहुभिरपि संसारजलधौ,
नमस्कारात्तिंत्क यदिह शुभरूपो न भवति।।१०।।
नमस्कार यह मंत्र जगत में, सर्व हितैषी धर्म कहा।
यही मंत्र जिनरूप व व्रतमय फलदायक शिवशर्म कहा।।
अधिक कथन से क्या मतलब है, केवल सार समझ लीजे।
इसी मंत्र की महिमा से हर अशुभ कार्य भी शुभ कीजे।।१०।।
दोहा– है अचिन्त्य महिमामयी, णमोकार यह मंत्र।
इसको जपते ही मिलें, भौतिक सौख्य्ा असंख्य।।
स्वपन् जाग्रत्तिष्ठन्नथ पथि चलन् वेश्मनि स्खलन्।
भ्रमन् क्लिश्यन् माद्यन् वनगिरि-समुद्रेष्ववतरन्।।
नमस्कारान् पंच स्मृतिखनिनिखातानिव सदा।
प्रशस्तौ विन्यस्तान्निव वहति य: सोत्र सुकृति:।।११।।
जो मनुष्य सोते जगते, पथ में चलते यह मंत्र पढ़ें।
घर में भी स्खलन समय, इस मंत्रराज को सदा पढ़ें।।
भ्रमण-खिन्न-उन्मत्त अवस्था, वन पर्वत या सागर हो।
हृदय पटल में णमोकार यह, मंत्र ही सदा उजागर हो।।११।।
दोहा– पत्थर पर उत्कीर्ण सम, धरो हृदय में मंत्र।
पुण्यवान मानव जनम, पाकर बनो स्वतंत्र।।
दु:खे सुखे भयस्थाने, पथि दुर्गे रणेपि वा।
श्रीपंचगुरुमन्त्रस्य, पाठ: कार्य: पदे पदे।।१२।।
दोहा– दुख-सुख भयप्रद मार्ग या, वन हो युद्धस्थान।
पंचनमस्कृति मंत्र को, पढ़ो लहो सुखखान।।१२।।
णमोकार माहात्म्य यह, उमास्वामिकृत स्तोत्र।
उसका ही अनुवाद यह, पढ़ो लहो सुखस्रोत।।१।।
ज्ञानमती गणिनीप्रमुख, मात जगतविख्यात।
उनकी शिष्या चन्दना-मती आर्यिका मात।।२।।
किया पद्य अनुवाद यह, गुरु आज्ञा सिर धार।
भौतिक आत्मिक सुख मिले, पढ़ो मंत्र हितकार।।३।।