-भरतकुमार काला, मुम्बई (सह-सम्पादक)
दिगम्बर जैन समाज का १०४ वर्ष पुराना ‘जैन मित्र’ सूरत के २६वें वर्ष का गुरुवार, आषाढ़ सुदी ११, वीर नि. २४५१ ता. २ जुलाई १९२५, अंक ३३ के प्रथम पृष्ठ पर प्रथम कॉलम से दूसरे कॉलम तक ‘जैन समाचारावलि’ स्तंभ से नीचे मुख्य समाचार छपा हुआ है-
मुनि व त्यागियों के समाचार
आचार्य श्री शांतिसागरजी तथा आपके संघ का चातुर्मास कुंभोज (कोल्हापुर) में हुआ है। यह स्थान हातकलंगड़ा स्टेशन से ६ मील है। मोटर-गाड़ी आदि सवारी मिलती है। यहाँ जैनियों के करीब २९०-३०० घर हैं। सब प्रकार की अच्छी व्यवस्था है। आचार्य श्री शांतिसागर जी के साथ आपका निम्न संघ भी है।
मुनि आदिसागर महाराज (अंकलीकर), मुनि नेमिसागर महाराज (कुडचीकर), मुनि वीरसागर महाराज (नांदगांव), मुनि नेमिसागर महाराज (पुनुर मद्रास) (यह नाम पढ़ने को नहीं आ रहा है-झिरॉक्स प्रतिलिपि होने से)
दूसरे कॉलम में
आर्यिका ताराबाई व रत्नाबाई (नांदणी), क्षुल्लक पायसागर महाराज (एनापुर)
इसके बाद और भी मुनि, त्यागियों के चातुर्मास के उल्लेख हैं। इनमें उल्लेखनीय मुनि श्री शांतिसागर जी (छाणी)-ललितपुर।
उपर्युक्त समाचार से यह बात आकाश की तरह स्पष्ट हो जाती है कि वर्तमान में जिन पूज्य मुनिराज श्री आदिसागर जी महाराज (अंकलीकर) को बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य के रूप में येन-केन प्रकारेण मंडित किया गया है, वे मुनिराज कम से कम १९२५ तक तो मात्र मुनिपद में थे और आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के संघ में कुंभोज में सन् १९२५ में मुनि पद में विराजमान थे, आचार्य नहीं थे, बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य तो दूर की बात है।
इस समाचार में आचार्य श्री शांतिसागर जी के साथ अन्य संघ के भी नाम निर्देशित किये गये हैं जो कि जैन गजट में दर्शित चित्र से देख सकते हैं। इसमें सर्वप्रथम जिन मुनि आदिसागर महाराज (अंकलीकर) का उल्लेख है, उनको ही बीसवीं सदी का प्रथमाचार्य बताया जा रहा है।इस समाचार से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के पूर्व और कोई भी मुनि आचार्य पद से न तो भूषित थे, न मंडित थे। समाचारों से यह बात भी मालूम हो जाती है कि मुनि श्री शांतिसागर जी छाणी वाले भी तब तक तो मुनिपद पर ही थे-आचार्य नहीं। जैन मित्र के सम्पादक के रूप में, उस समय जैन धर्मभूषण धर्म दिवाकर ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी एवं प्रकाशक मूलचंद किसनदास कापड़िया, छपा हुआ है।
मुझे उदगांव में पूज्य मुनिराज श्री आदिसागर जी महाराज अंकलीकर की समाधिस्थल के दर्शन करने का सौभाग्य मिला है। उस समय चरण पादुका के पत्थर पर बाजू में सामने श्री १०८ आदिसागर जी (अंकलीकर) ऐसा नाम अंकित मैंने देखा है। बाजू में और एक चरण है। कुछ समय बाद फिर से दर्शन का अवसर आया, तो उस पर श्री के आगे ‘आ.’ ऐसा अक्षर अंकन किया गया पाया था जो पहिले के अक्षरों से एकदम भिन्न एवं बड़ा था। इसके कुछ वर्ष बाद मैंने पाया कि वह ‘आ.’ अक्षर मिटा दिया गया है।जो भी हो, इस चरण पादुका के ऊपर उकेरित अक्षरों से भी यह बात स्पष्ट है कि वे समाधिमरण तक भी आचार्य पद से भूषित नहीं थे।
सन् १९८१ में परमपूज्य आचार्य श्री १०८ सन्मतिसागर जी महाराज का वर्षायोग से पूर्व नागपुर में दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उस समय श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन (धर्म संरक्षिणी) महासभा का भव्य अधिवेशन लाडपुरा में श्री दिगम्बर जैन मंदिर में आयोजित था। पूज्य आचार्य श्री संघ सहित विराजमान थे। उनकी उपवास की खड़तर तपस्या का अनन्य प्रभाव था। महासभा अध्यक्ष श्री निर्मल कुमार जी सेठी, तत्कालीन महामंत्री श्री त्रिलोकचंद जी कोठारी, कोटा भी पधारे हुए थे। प्रान्तीय स्तर पर महासभा के गठन के कार्यक्रम में महाराष्ट्र के गठन का शुभारंभ यहाँ से होने को था। अधिवेशन भव्यता के साथ सम्पन्न हुआ था। यहाँ अधिवेशन में सज्जातित्व को लेकर बड़ा ही ऊहापोह हुआ था। चूँकि आचार्यश्री द्वारा विजातीय एवं विधवा विवाह करने वाले या समर्थकों से आहार न लेने के कारण यहाँ उसकी चर्चा थी। श्री सेठी जी ने बड़े ही सूझबूझ के साथ सज्जातित्व का प्रबल प्रभावी समर्थन किया था एवं विधवा विवाह व्यवस्था का तर्कसंगत विरोध किया था तथा समाधान भी किया था। श्री सेठीजी के जीवन की दृढ़ता का सर्वप्रथम यहाँ दर्शन हो आया था।
इस स्थान पर मुझे पूरा स्मरण है कि पूज्य मुनिराज श्री आदिसागर जी महाराज का नाम तक नहीं सुना था एवं कोई जाहिर उच्चारण भी नहीं था। आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के नाम का उच्चारण तो बार-बार किया गया। पूज्य आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी महाराज का अवश्य स्मरण किया गया था। आचार्यश्री के आशीर्वाद से ही मुझे प्रथम बार पर्यूषण महापर्व में नागपुर में प्रवचन हेतु जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। यह मेरे लिए पहला अवसर था। इसी समय फिरोजाबाद से स्व. पं. श्री श्यामसुन्दरलाल जी भी यहाँ लाडपुरा में आमंत्रित थे, मैं परवारपुरा में आमंत्रित था। बचपन से स्व. आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी महाराज के चरणों में आने का सौभाग्य मिलने से इनके संघस्थ सभी साधु और आर्यिकाओं के प्रति मेरे मन में अगाढ़ श्रद्धा एवं आस्था रही है। पूज्य आचार्य श्री के सानिध्य में स्व. आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी के साथ हमारे नांदगांव में महीनों तक आने का सौभाग्य मिला है। दाहोद में भी इनके दर्शन का सौभाग्य मिला था, उस समय स्व. बाबाजी श्री सूरजमल जी भी साथ में थे। मैंने देखा है तब तक कभी भी कहीं भी पूज्य मुनिराज आदिसागर जी के संबंध में कोई आदान-प्रदान या चर्चा सुनने को नहीं मिली है। पूज्य मुनिराज आदिसागर जी की चर्चा का सूत्रपात १९८८/१९९० के आसपास और वह भी इन्हीं आचार्य श्री के द्वारा ही शुरू की गई है। वह क्यों और क्यूँ? यह वे ही जानें।
इसी के बाद पूज्य मुनिराज आदिसागर जी (अंकलीकर) आचार्य, प्रथमाचार्य और चारित्र चक्रवर्ती के रूप में मंडित होने लगे।वर्तमान में परमपूज्य आचार्य श्री विद्यानंद जी महाराज, परमपूज्य स्व. आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी महाराज के सर्वप्रथम क्षुल्लक दीक्षित साधु हैं। मुनि दीक्षा स्व. आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज से ली है। इनके चरणों में अनेकों बार मुझे समय-समय पर आने का सौभाग्य मिला है, मिलता है। पर आज तक भी मैंने कभी उनसे पूज्य मुनिराज आदिसागर जी के व्यक्तित्व के संबंध में कुछ भी कहते नहीं सुना है। हाँ, स्व. आचार्य श्री शांतिसागर जी का गुणगान करते हुए अवश्य देखा है। स्व. आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी महाराज के अनन्य शिष्य प्रभावी संत स्व. आचार्य विमलसागर जी महाराज के चरण सानिध्य का भी सुअवसर मिलता रहता है, पर कभी पूज्य मुनिराज श्री आदिसागर जी की चर्चा नहीं सुनी है।जब से, जहाँ से स्व. मुनिराज श्री आदिसागर जी की चर्चा चलाई गई है, तब से लेकर आज तक के किसी पूज्य मुनिराज या श्रावक या विद्वानों में से किसी ने स्व. पूज्य आदिसागर जी को देखा हो, या दर्शन किये हों, ऐसा नहीं लगता।
जो भी मुनिपद में हैं, थे, वे हमारे लिए परम वंदनीय हैं। श्रद्धा व भक्ति के आधार। जैन मित्र में छपे समाचार से यह बात सर्वसिद्ध है कि श्री आचार्य शांतिसागर जी महाराज ही सर्वप्रथम आचार्य के रूप में बीसवीं सदी में मंडित हुए हैं। दिगम्बरत्व का प्रचार और प्रसार तथा सुरक्षा एवं स्वतंत्र धर्म की मान्यता दिलाना यह उनका समाज पर महान उपकार है।हमारे पिता समाजभूषण विद्वान् पंडित स्व. तेजपाल जी काला पर तो आचार्य स्व. श्री महावीरकीर्ति जी महाराज की बड़ी अनुकम्पा थी। स्व. पिता श्री जब अत्यधिक अस्वस्थ थे, तब पूज्य आचार्य श्री ससंघ कुंथलगिरि से पद विहार द्वारा विशेष रूप से नांदगांव आये थे और स्व. पिताश्री के स्वास्थ्य को सुधारा था। ऐसे संत के साथ पदविहार में चलने का तथा उनके चरणों में रहने का सौभाग्य मुझे भी मिला है। ऐसे आचार्यश्री का आज भी स्मरण हो आता है, तो आँखें भर आती हैं, उनका भी समाज पर अनंत उपकार है।
(जैन गजट, १४ अगस्त २००३ से साभार)