पच्चीस साल का अहवाल (विवरण)
(शांतिसागर स्मृति ग्रंथ से साभार)
परमपूज्य चारित्रचक्रवर्ती श्री १०८ आचार्यवर्य शांतिसागर दिगम्बर जैन जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था का पच्चीस साल का यह अहवाल समाज को प्रस्तुत करते हुए प्रसन्नता होती है। संस्था की मूल प्रेरक शक्ति परम पूज्य प्रात:स्मरणीय श्री १०८ आचार्य शांतिसागर महाराज ही थे। भारतीय जैन-अजैन जनता परमपूज्य महाराजश्री के जीवन से भलीभांति परिचित है। भाद्रपद सुदी २ को उनके स्वर्गारोहण के पश्चात् समाज को जो क्षति पहुँची, उसकी पूर्ति असंभव है।
वि. संवत् २०००-२००१ वीर निर्वाण संवत् २४७०-७१ में संस्था की स्थापना हुई। यह पच्चीस बरस का काल दिगम्बर जैन समाज के इतिहास में महत्त्वपूर्ण तथा संस्मरणीय रहा। वर्तमान पंचम काल के चालू तीन-चार शतकों में दिगम्बर जैन साधु की परंपरा खंडितप्राय थी। उसको आगमानुकूल पुनरुज्जीवित करने का श्रेय आचार्यश्री को है। साधु का जीवन यथार्थ में अंतर्मुख दृष्टिसंपन्न होता है। बाहर के कार्यों में उनका कुछ लगाव या आसक्ति नहीं होती। अप्राकरणिक रूप में जो शुभभावरूप क्रिया बन जाती है, उससे ही समाज की सांस्कृतिक धारणा बनती है। समीचीन दिगम्बरत्व का पुनरुज्जीवन, निर्ग्रंथ दिगम्बर मुनिविहार, भारतीय जैन समाज के अपने स्वतंत्र अस्तित्व तथा धार्मिक अधिकारों की रक्षा, श्रुतप्रकाशन, सनातन दिगम्बरत्व के ऊपर होने वाले आक्रमण का प्रतिकार, कुप्रथाओं का निर्दलन आदि जो चिरस्थायी तथा ऐतिहासिक कार्य इस समय में हुए, उसमें उनकी सहज प्रेरणा थी। ऐसे महात्मा के आशीर्वाद से जो सांस्कृतिक तथा धार्मिक कार्य उनके जीवन में हुआ तथा उनके पश्चात् उनकी पुण्यस्मृति में अभी भी बोरिवली आदि स्थानों पर जो धर्मकार्य हुए, उनको समाज कभी भी भूल नहीं सकेगी। परम पावन सर्वतोभद्र जिनागम के रक्षणार्थ श्री १०८ आचार्य शांतिसागर दिगम्बर जैन जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था उनकी ही प्रेरणा और आशीर्वाद से वि. सं. २००१ में स्थापित हुई। महाराज श्री के जीवनकाल में उनके आशीर्वाद से जो संस्थाएँ स्थापित हुईं, उनमें इस संस्था का अपना एक विशिष्ट स्थान है। अपने उद्देश्य की पूर्ति में संस्था ने काफी मात्रा में सफलता प्राप्त की है।
वीरवाणी से साक्षात् संबंधित धवला, जयधवला, महाधवला सिद्धान्तग्रंथ ताडपत्रों में लिखितरूप में मूडबिद्री में विराजमान हैं, यह सबको विदित है। वहाँ श्री धवला की ताडपत्र की दो पूर्ण और एक अपूर्ण तथा श्रीजयधवला की एक तथा महाधवला की (महाबंध) ताडपत्र की एक प्रति थी। उपरोक्त तीनों ग्रंथ ताडपत्रों पर लिखित हैं। श्री आचार्य पुष्पदंत-भूतबलि, गणधर यतिवृषभ आदि आचार्यों के मूलसूत्र तथा चूर्णिसूत्र तथा उनके ऊपर आचार्य वीरसेन तथा जिनसेन स्वामी की धवलादि टीका पुरानी कन्नड़ लिपि में लिखी हुई है। भाषा प्राकृत तथा संस्कृत है। वे जीर्ण-शीर्ण होती जा रही हैं। उनमें से महाबंध का करीब चार-पाँच हजार श्लोकप्रमाण हिस्सा कीटकों द्वारा नष्ट हुआ है। अवशिष्ट भाग भी कृमिकीटकों का भक्ष्य बनेगा, तो सिद्धान्तग्रंथ नष्टप्राय हो जावेंगे।परम पूज्य १०८ आचार्यश्री वि.सं. २००० के चौमासे में कुंथलगिरी क्षेत्र पर विराजमान थे। वहाँ पर उन्हें मूडबिद्री में विराजमान धवलादि सिद्धान्तग्रंथों की जराजीर्ण स्थिति की जो जानकारी मिली, उससे वे अत्यन्त चिंतित हुए। उस क्षेत्र (१) पूज्य १०५ भट्टारक जिनसेन-कोल्हापुर के मठाधीश, (२) श्री दानवीर संघपति सेठ गेंदनमलजी, मुंबई (४) श्री गुरुभक्त सेठ चंदूलाल ज्योतिचंद सर्राफ, बारामती और (४) श्री दानवीर रामचंद्र धनजी दावडा, नातेपुते तथा वहाँ उपस्थित धर्मानुरागी श्रावकों के सन्मुख पूज्यवर आचार्य महाराज ने आगमरक्षा की अपनी अंतरंग व्यथा सुनाई। महाराजश्री के उपदेश तथा आदेश से प्रेरित होकर उस कार्य की पूर्ति करने का संकल्प किया तथापि ऐसे महान पुण्यकार्य में सब दिगंबर जैन समाज सहभागी हो, इस मंगल भावना से महाराजश्री के उपदेश और आदेश से उसी समय लगभग एक लाख रुपये के दान की स्वीकृति प्राप्त हुई तथा कार्य की रूपरेखा निश्चित करने के हेतु एक अस्थायी कमेटी नियुक्त की गई।
उपरोक्त सिद्धांत ग्रंथ ताम्रपत्रों पर खुदवाकर उनकी सुरक्षा का स्थायी प्रबंध हो, ऐसी आचार्य महाराज की आंतरिक इच्छा थी। प्रथम हस्तकारीगरों से ताम्रपत्रों पर अक्षर खुदवाने का प्रयास किया गया परन्तु इसमें (१) अशुद्धता का अधिकतर संभव होना (२) अति कष्ट (३) खर्च की बहुलता तथा (४) कार्यपूर्ति में अतिविलंब आदि त्रुटियाँ अनुभव में आईं। श्री बालचंद देवचंद शहा मुंंबई वालों ने इस कार्य की पूर्ति रासायनिक प्रक्रिया से होनी चाहिए, इससे यह कार्य अच्छी तरह से और शीघ्रता से पूरा हो सकेगा, ऐसा सुझाव सामने रखा जो कि तत्काल सर्वसम्मत हुआ तथा श्री पूज्य समंतभद्र महाराज के सूचनानुसार सेठ बालचंद जी को मंत्रीपद देने का आदेश महाराजश्री ने देकर यह ताम्रपट्ट बनाने का कार्यभार उन्हीं को सौंपा।
वि.सं. २००१ फाल्गुन वदी २ के दिन जब पूज्य आचार्य महाराज बारामती के गुरुभक्त सेठ चंदूलाल जी सर्राफ के बगीचे में विराजमान थे, उसी समय समाज के अन्य श्रीमान मान्यवर श्रावक तथा पं. खूबचंदजी, पं. मक्खनलाल जी आदि विद्वज्जनों की सभा में १. श्रीधवला, श्रीजयधवला, श्रीमहाधवला आदि सिद्धान्त ग्रंथ संशोधनपूर्वक देवनागरी लिपि में ताम्रपत्र पर अंकित करके उनकी स्थायी रक्षा का प्रबंध करना तथा २. अन्य आचार्यों के गं्रथों का जीर्णोद्धार के साथ उनका स्वाध्याय के लिए नि:शुल्क वितरण करना, इन दो प्रधान उद्देश्यों से ‘‘श्री १०८ चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर दिगम्बर जैन जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था’’ की स्थापना की गई। उपरिनिर्दिष्ट कार्य के लिए १००० रु. या अधिक दान देने वाले संस्था के सदस्य हों, ऐसी योजना बनाई गई। कार्यपद्धति भी निश्चित हुई। सर्वप्रथम बटरपेपर पर ग्रंथ छपवाकर रासायनिक प्रक्रिया से ताम्रपत्र पर अंकित करवाना तथा मूल ग्रंथ की पांच-पांच सौ प्रतियाँ छपवाना, एक मुद्रित प्रति १००० रु. या अधिक देने वाले दातारों को भेंटरूप में देना, तीर्थक्षेत्रों पर एक-एक प्रति रखना, ऐसा महाराज श्री के आदेशानुसार निर्णय हुआ।
कानून के अनुसार संस्था रजिस्टर्ड करने के लिए समिति का गठन हुआ। समिति में श्री बालचंद देवचंद, श्री बालचंद देवीदास चवरे, वकील-अकोला तथा श्री माधवराव लेले, वकील-सोलापुर सदस्य थे। एकमत से संस्था की नियमावली तैयार की गई तथा सोसायटीज रजिस्ट्रेशन अॅक्ट २१-१८६० के अनुसार संस्था का दिनाँक २५-५-१९४५ को अ.नं. १३७२ में रजिस्ट्रेशन सम्पन्न हुआ।
सिद्धान्त ग्रंथ प्राचीन तथा महत्वपूर्ण होने से उनके ताम्रपत्र भी शुद्ध और साफ होना जरूरी था। उपरोक्त सिद्धान्त ग्रंथों में श्रीधवला ७०००० श्लोक प्रमाण, जयधवला कषायपाहुड़ सहित ८०००० श्लोक प्रमाण तथा महाधवला ४०००० श्लोक प्रमाण है। उन्हीं ग्रंथों की एक हस्तलिखित प्रति पं. गजपती शास्त्रीजी ने बहुत दिन पहले मूडबिद्री से लाई थी और उसकी प्रतिलिपि सोलापुर में थी। ताम्रपट्ट का काम चालू करने के पूर्व सोलापुर के प्रतिलिपि का मूल ताडपत्र की प्राप्ति के साथ उक्त हस्तलिखित प्रति का मेल न बैठने के कारण ग्रंथ संशोधन में बहुत सी त्रुटियाँ रह गईं। दिन-प्रतिदिन मूल ताडपत्र जीर्ण होते जायेंगे तथा अगर वे ताडपत्र सुरक्षित रखने का समुचित प्रबंध न हो, तो उनका दर्शन भी दुर्लभ हो जावेगा, इस हेतु से मूल ताडपत्रों के फोटो लेकर रखने का निर्णय हुआ। पूज्य आचार्यश्री के आदेश से ब्र. बोधिचंद्रजी मूडबिद्री गये और वहाँ से श्री चारूकीर्ति भट्टारक महाराज तथा विश्वस्तों से सम्मति प्राप्त की। पश्चात् ताडपत्र के फोटो (र्ाुaूग्न) लिए गये। प्रथम बार ताडपत्र के फोटो ६’’²२’’ साइज में लाए गए। इस महत्वपूर्ण कार्य में ब्र. बोधिचंद्र जी, श्री भट्टारक चारुकीर्ति जी, वहाँ के ट्रस्टीगण, पं. लोकनाथ शास्त्री, पं. वर्धमान शास्त्री, सोलापुर, बंबई के झारापकर स्टूडियो के संचालक झारापकर बंधु आदि महाजनों का अच्छा सहयोग प्राप्त हुआ, यह धन्यवादपूर्वक साभार नमुद करना जरूरी है।
तदनंतर मूल कन्नड ताडपत्र ग्रंथराज की स्थायी सुरक्षा हो, इसलिए आचार्य महाराज ने मूल ताडपत्र का भी ताम्रपट्ट करने का आदेश दिया। इस कार्यपूर्ति के लिए फिर से मंत्री बालचंद देवचंद्र, पं. वर्धमान शास्त्री सोलापुर, झारापकर बंधु तथा उनके कर्मचारी स्टाफ मूडबिद्री गये। वहाँ पन्द्रह दिन ठहरकर धवला के तीन प्रति श्रीजयधवला तथा उसके बिना नंबर फटे हुए पन्नों के भी १५’’² १२’’ साइज में फोटो लिए गए। उनमें से श्री धवला के प्रति का झ्देग्ूग्न करके २३’’ Eहत्arुा किया। उसका ताम्रपत्र करने का कार्य शुरू हुआ किन्तु ताम्रपत्र पर ताडपत्र के अक्षर कोई स्पष्ट, कोई अस्पष्ट निकलने लगे। आधे-आधे भाग का भी ताम्रपट्ट करने का प्रयास किया किन्तु फोटो Eहत्arुा करने पर भी अपेक्षित सफलता नहीं मिली। तब यह महान् कार्य स्थगित हुआ। तथापि फोटो के रूप में इसका अलभ्य संग्रह संस्था के पास है। वे ग्रंथ के पुनर्मुद्रण के समय उपयुक्त होते हैं। ११०० फोटो लिए गये और संस्था को उसका खर्च ११००० रु. आया। फोटो का कार्य समाप्त होते समय आचार्यश्री की मंत्री जी के नाम तार और पत्र से आज्ञा आई कि वहाँ से मैसूर जावे तथा कड़ी धूप, वर्षा, ठंडी, तूफान आदि के कारण श्रवणबेलगोला स्थित महामूर्ति पर छेद दिख रहे हैं, वैसा आगे न हो, इस कारण महामूर्ति पर छत्र करने की सरकार से अनुज्ञा प्राप्त करना तथा ख्यातनाम इंजीनियर से खर्चे का अंदाजा भी लाना। आदेशानुसार मंगलोर जाकर श्री नेमीसागर जी भट्टारक, वकील श्री जिनराजय्या के सलाह से, बेंगलोर के संस्कृत महाविद्यालय के प्रिसिंपल श्री धरणेन्द्रय्या के साथ रिटायर्ड रेव्हेन्यु कमिश्नर एम.सी. लक्ष्मीपती से चर्चा की। उन्होंने वर्तमान रेव्हेन्यू कमिश्नर मि. शेषाद्री, मैसूर सरकार के आर्किटेक्ट इंजीनियर एस. एस. लक्ष्मीनरसिय्या आदि सरकारी अफसरों से मिलने का सुझाव दिया, उनके साथ विचार-विमर्श हुआ। इसमें पं. शांतिराज शास्त्री, श्री शांतिराजय्या, श्री चंद्रय्या, हेगडे बंधु इनका सहयोग मिला। ‘मध्यवर्ती सरकार इसका इलाज करने वाली है, मूर्ति के ऊपर छत्र बनाने से मूर्ति के सब शरीर पर हवादिक की विषमता के कारण उसकी आयु घट जावेगी। यह कार्य महामूर्ति बनाने वालों की इच्छा के विरुद्ध होगा, मूर्ति चारों तरफ से खुली रहने से ही दीर्घकाल तक टिकेगी तथा सरकार आपको अनुमति नहीं देगी’ ऐसा विचार-विमर्श होने से उसका समाचार महाराजश्री को भेजा गया। बाद में आच्छादन छत्र बनाने का विचार स्थगित हुआ।
वि.सं. २००१ में विद्यावाचस्पति पं. खूबचंद्र जी शास्त्री की जिम्मेदारी पर उनकी निगरानी में मुंबई के निर्णय्ासागर प्रेस में श्रीधवला ग्रंथ की छपाई का कार्य प्रारंभ हुआ। माननीय पंडितजी की सेवा बिना वेतन प्राप्त हुई। आधे से अधिक छपाई होने के उपरान्त छपाई तुरंत पूरी हो, इस दृष्टि से वि.सं. २००२ में सिद्धान्तशास्त्री पं. पन्नालालजी सोनी की देखभाल में सोलापुर के कल्याण प्रेस में उक्त कार्य साढ़े तीन वर्ष में पूरा हुआ। २६०० पन्नों के धवल ग्रंथ का संपादन, संशोधन, छपाई आदि के लिए ३०००० रु. धनराशि खर्च हुई। श्रीधवला ग्रंथ की छपाई के साथ छपे हुए पृष्ठों के ताम्रपट्ट का कार्य उसी समय मुंंबई के श्रीपाद प्रोसेस वर्क्स में चलता रहा। श्रीधवला के पत्रों के आकार के ताम्रपत्र बनाने में २१००० रुपये खर्च हुआ।
इस तरह सिद्धान्त ग्रन्थों के जीर्णोद्धार की कल्पना आचार्य श्री के मन में स्फुरित होने के चार वर्ष बाद श्रीधवला का मुद्रण तथा ताम्रपट्ट का कार्य पूरा हुआ। संशोधित-मुद्रित प्रति व ताम्रपट्ट पूज्य आचार्य श्री को बड़े समारोह के साथ अर्पण करने का निश्चय हुआ किन्तु उस समय पूज्य आचार्य महाराज मुंंबई सरकार को हरिजन मंदिर प्रवेश कानून में जैनधर्म और संस्कृति में विरोधी होने से, जैनधर्म की स्वतंत्रता के ऊपर आघात करने वाला होने से वह जैन समाज को लागू न हो, इस दृष्टि से आहारत्याग, जपजाप्यादि तपानुष्ठान में लगे हुए थे। इसलिए समारोह की कल्पना स्थगित करके वि.सं. २००६ में गजपंथाजी क्षेत्र के वार्षिक सभा के अवसर पर श्री सेठ संघपति गेंदनमलजी के करकमलों से भक्तिभाव से समर्पित किया गया।
सोलापुर की आबोहवा श्री पं. पन्नालाल जी सोनी के स्वास्थ्य के अनुकूल न होने से वे ब्यावर गये। वहाँ उनकी जिम्मेदारी पर जयधवला की छपाई का कार्य शुरू हुआ। वहाँ १९६४ पृष्ठ छपने के बाद शेष ३३६ पृष्ठों का संशोधन पं. हीरालाल जी शास्त्री द्वारा कराके उसका मुद्रण बाहुबली में (कोल्हापुर) सन्मति मुद्रणालय में पं. माणकचंद्र जी न्यायतीर्थ की देखभाल में हुआ। यह कार्य २०१० में पूरा हुआ।
श्रीमहाधवला की छपाई का कार्य पं. सुमेरचंद्र जी दिवाकर न्यायतीर्थ बी.ए., एल एल. बी. की जिम्मेदारी में सिवनी में प्रारंभ होकर संवत् २०२० में पूरा हुआ। माननीय पंडित महाशय ने धर्मबुद्धि से बिना पारिश्रमिक खूब कष्ट उठाकर कार्य संपन्न किया, इसलिए फलटण में आचार्य शांतिसागरजी की उपस्थिति में समाज ने ‘धर्मदिवाकर’ पदवी प्रदान कर उनको सम्मानित किया।
इस तरह इन धवलादि तीन सिद्धान्तग्रंथ की छपाई तथा ताम्रपट्ट बनवाने में करीब दस साल लगे। महाराजश्री की सल्लेखना के पूर्व ही इन ग्रंथों का ताम्रपट्ट रूप से जीर्णोद्धार का कार्य पूर्ण हुआ। इसमें पूज्यश्री को जैसा समाधान हुआ, वैसा संस्था को भी कर्तव्यपूर्ति का आनंद हुआ।श्रीधवला के ताम्रपत्र तथा तीनों मुद्रित सिद्धान्त ग्रंथों की प्रतियाँ फलटण में श्री चंद्रप्रभु मंदिर के ऊपर ‘‘आचार्य शांतिसागर श्रुतभंडार भवन’’ के बड़े हॉल में रखे गये हैं। संस्था की तरफ से प्रकाशित अन्य जैन साहित्य भी वहाँ पर रखा है तथा श्रीजयधवला और श्रीमहाधवला के ताम्रपत्र मात्र संघपति सेठ गेंदनमलजी मुंबई के कालबादेवी दिगम्बर जैन मंदिर में विराजमान हैं। इसमें भी आचार्यश्री की आज्ञा प्रमाण है।उसी समय ग्रंथ के सत्प्ररूपणा में सूत्र नं. ९३ में ‘‘संजदासंजछद’’ की जगह द्रव्यस्त्रीवाचक ‘संजद’ शब्द मूडबिद्री के ताडपत्र प्रति में प्रतिलिपि करने वाले की भूल से लिखा है अत: वह नये ताम्रपट्ट में से तथा मुद्रित प्रति में से निकालने का आदेश दिया और वह शिरोधार्य किया गया। इस ‘संजद’ शब्द के कारण समाज में वाद तथा आंदोलन भी हुआ। फलस्वरूप मतभेद के कारण पं. खूबचंद्रजी ने कार्यभार का इस्तीफा दे दिया तथा पं. पन्नालालजी सोनी को भी मतभेद के कारण संस्था से अलग होना पड़ा। इन दोनों महानुभावों ने सिद्धांत ग्रंथों के संशोधन तथा मुद्रण शोधन की जिम्मेदारी उठाई थी। श्रीधवला का आधा काम पं. खूबचंद जी ने तथा धवला का शेष भाग और जयधवला पृष्ठ तक का कार्यभार पं. पन्नालालजी ने अच्छी तरह संभाला। संस्था उनके इस सेवा के लिए साभार कृतज्ञता प्रदर्शित करना अपना कर्तव्य मानती है।
आचार्य महाराज गृहस्थ के कल्याण के लिए जिनबिंब प्रतिष्ठा, चैत्यालय निर्माण, पूजादि पुण्यकार्य का अधिकतर उपदेश देते थे। जैनसमाज में धर्मश्रद्धा तो है किन्तु वह दृढ़मूल बनने में, स्थितिकरण में मुख्यसाधन जिनागम का स्वाध्याय मननादिक ही है। बिना स्वाध्याय धर्मश्रद्धान दृढ़ नहीं होगा और स्वाध्याय के लिए आगमग्रंथों की सुलभता होनी चाहिए। इस अभिप्राय से ज्ञानदान के हेतु स्वाध्याय प्रसार के लिए एक अभिनव योजना वि.सं. २०१० में फलटण नगरी में प्रस्तुत की। भाद्रपद वदी ५ के दिन फलटण में श्री १०८ चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर दिगम्बर जैन जीर्णोद्धारक संस्था प्रमाणित ‘‘श्री श्रुतभंडार तथा ग्रंथप्रकाशन समिति’’ नाम की संस्था आचार्यश्री के उपदेश और आदेश से स्थापित हुई। इसका प्रधान उद्देश्य यह था कि दिगम्बर जैन आर्षग्रंथों का प्रमाणित मुद्रण तथा प्रकाशन और उनका समाज के मंदिर आदि सार्वजनिक संस्था में नि:शुल्क वितरण करना।श्री दिगम्बर जैन महासभा की ओर से पूज्य महाराजजी का हीरकजयंती महोत्सव बड़े धूमधाम से मनाया गया। उसके लिए समाज में काफी चंदा हुआ। खर्चा जाने के बाद बचत में से तथा संस्था द्वारा दी हुई ढाई हजार की मदद से श्रीचंद्रप्रभु मंदिर के सभामंडप के ऊपर एक ‘‘श्रुतभंडार हॉल’’ फलटण की दिगम्बर जैन समाज ने बनवाया। वहीं पर धवला का ताम्रपट्ट तथा धवलादि मुद्रित ग्रंथ रखे हैं। उसी समय प्राचीन आर्षग्रंथ का प्रचलित हिन्दी भाषा में सानुवाद प्रकाशन करके प्रत्येक गाँव के मंदिर में समस्त श्रावकों के स्वाध्यायप्रीत्यर्थ बिना मूल्य भेजने का कार्य ‘ग्रंथ प्रकाशन समिति’ को सौंपा गया। तब से समिति ग्रंथ प्रकाशन तथा ग्रंथ वितरण का कार्य अव्याहत रूप से करती आ रही है।पूज्य आचार्यश्री के उपदेश से निम्नलिखित दातारों ने कागज के व्यतिरिक्त विशिष्ट ग्रंथ के प्रकाशन में जो खर्च आया, वह सब दानरूप से दिया है। दातारों ने ज्ञानावरण कर्म के क्षय का निमित्त तो प्राप्त किया ही, वे सब उक्त महान दान के लिए धन्यवाद के पात्र हैं। जिसका विवरण-
दातारों के नाम, ग्रंथ नाम
१. श्री गंगाराम कामचंद दोशी, फलटण श्रीरत्नकरण्ड श्रावकाचार
२. श्री हीराचंद केवलचंद दोशी, फलटण श्रीसमयसार आत्मख्याति
३. श्री शिवलाल माणिकचंद कोठारी, बुध श्री सर्वार्थसिद्धि वचनिका
४. श्री गुलाबचंद जीवन गांधी, दहिवडी श्री मूलाचार
५. श्री जीवराज खुशालचंद गांधी, मुंबई श्री उत्तरपुराण
६. श्री चंदूलाल कस्तूरचंद शहा, मुंबई श्री अनगारधर्मामृत
७. श्री पद्मण्णा धरणप्पा वैद्य, निमगांव श्रीसागारधर्मामृत
८. श्री हीराचंद तिलकचंद, बारामती श्री धवला
९. श्री बाबूराव भरमाप्पा ऐनापुरे, कुडची श्रीजयधवला
उपरोक्त दातारों के उदारतापूर्ण दान के लिए संस्था आभारी है।
इनके अलावा संस्था ने पूर्ण खर्च से निम्न ग्रंथ प्रकाशित किए हैं।
१०. श्री कुन्दकुन्दभारती प्रकाशनाधीन
११. श्री अष्टपाहुड़ प्रकाशनाधीन
१२. श्री श्रावकाचार संग्रह प्रकाशनाधीन
१३. श्रीआदिपुराण (जिनसेनाचार्य प्रणीत) प्रकाशनाधीन
अन्य प्रकाशन का कार्य संस्था के धु्रवनिधी का जो ब्याज मिलता है, उससे चलता है। ब्याज का उत्पन्न सालाना नौ या दस हजार का है। ध्रुवनिधि सरकारी बैंकों में इगर््ेा् अज्देग्ू के रूप में रखा है।
आचार्य महाराज ने परम पावन भगवती जिनदीक्षा ग्रहण करके आत्मोद्धार के साथ समीचीन दिगम्बर साधु परंपरा का पुनरुज्जीवन किया। उनके पवित्र और असाधारण व्यक्तित्व के कारण उनके उपदेश और आदेश से श्रीधवला, श्रीजयधवला तथा श्रीमहाधवला सिद्धान्त ग्रंथों के ताम्रपट्ट बनाकर उनकी स्थाई सुरक्षा की योजना कार्यान्वित हुई। प्राचीन आचार्यों के महान् ग्रंथों का प्रचलित हिंदी भाषा में अनुवाद होकर श्रावकों के स्वाध्याय के लिए जिनमंदिरों में उनका नि:शुल्क वितरण हुआ। बृहन्मूर्ति की स्थापना से समस्त विश्व के सामने जैन संस्कृति का, वीतरागता का आदर्श उपस्थित हुआ। इस प्रकार यह समाज परम पूज्य आचार्यश्री का हमेशा कृतज्ञ रहेगा, जिसको प्रगट करने के लिए शब्द भी असमर्थ हैं।
संस्था का कार्य परम पूज्य आचार्यश्री के आशीर्वाद से तथा समाज के सहयोग से, विद्वानों की सहायता से अविच्छिन्न-निराबाध चालू है। उन सब भाइयों और विद्वानों के लिए हृदय से आभार प्रदर्शित करके यह अहवाल समाप्त करता हूँ।
स्वस्ति श्री जिनसेन भट्टारक, चंदूलाल तलकचंद शहा, वकील
(अध्यक्ष) (अध्यक्ष)
श्री १०८ आचार्य शांतिसागर श्रुतभंंडार तथा ग्रंथ प्रकाशन समिति
दिगम्बर जैन जीर्णोद्धारक संस्था
बालचंद देवचंद शहा मोतीलाल मलुकचंद दोशी
(मंत्री) (मंत्री)