आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज ने सन् १९५२ का चातुर्मास बाराबंकी शहर में किया था, वहाँ से मात्र ६० कि.मी. दूर टिवैâतनगर है। कु. मैना को आचार्यश्री के प्रथम दर्शन का सौभाग्य इससे पूर्व टिवैâतनगर में ही हुआ था, किन्तु आजीवन ब्रह्मचर्य तथा सप्तम प्रतिमा के व्रत आचार्यश्री से बाराबंकी में अंगीकार किये। छोटी उम्र थी-बाराबंकी नगर के अनेक लोगों ने तथा पारिवारिक माता-पिता, भाई-बहनों ने बड़ा व्यवधान उपस्थित किया। आचार्यश्री भी उस व्यवधान के समक्ष ढीले पढ़ गये थे। लेकिन कु. मैना का संकल्प दृढ़ ही रहा। बाराबंकी चातुर्मास के बाद आचार्यश्री का विहार लखनऊ हुआ। लखनऊ में परम गुरुभक्त सेठ सीमंधर दास जी एवं जुग्गामल जी ने आचार्यसंघ को श्री महावीर जी की यात्रा कराने का इरादा किया। आचार्यश्री की स्वीकृति मिलते ही आपने संघ सहित पूरे ठाठ-बाट से श्री महावीर जी के लिए प्रस्थान कर दिया। मार्ग में लश्कर, ग्वालियर, सोनागिरि आदि क्षेत्रों की यात्राएं भी सम्पन्न कीं।
श्री महावीर जी में ही कु. मैना ने आचार्यश्री से पुन: कर्मबंधन से छूटने रूप ऐसी दीक्षा प्रदान करने की याचना की। परिणाम स्वरूप वहीं श्री महावीर जी में चैत्र कृष्णा १, सन् १९५३ में आचार्यश्री ने आपको क्षुल्लिका दीक्षा देकर वीरमती नाम प्रदान किया।महावीर जी से संघ का पदार्पण आगरा, फिरोजाबाद, मैनपुरी, कानपुर आदि होते हुए पुन: लखनऊ होता है और दैवयोग से आपका प्रथम चातुर्मास आचार्यश्री देशभूषण जी के साथ ही टिवैâतनगर (अपनी जन्मभूमि) में हो गया।टिवैâतनगर में सर्वप्रथम आपने जीवकाण्ड आदि ग्रंथों का अध्ययन-स्वाध्याय किया।टिवैâतनगर चातुर्मास के पश्चात् आचार्यसंघ का विहार होता है और ६ कि.मी. दूर ही दरियाबाद में संघ पहुँचता है। संघ में एक क्षुल्लिका श्री विशालमती माताजी और थीं। यहाँ से आचार्य महाराज की आज्ञा पाकर आपने क्षुल्लिका वीरमती जी, क्षुल्लिका विशालमती जी के साथ सम्मेदशिखर जी, पावापुरी आदि तीर्थों की यात्रा के लिए प्रस्थान किया और कुछ ही दिनों में यात्रा करके पुन: दरियाबाद आचार्यश्री के संघ में वापस आ गईं।
आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज वहाँ से विहार करते-करते एक बार पुन: श्री महावीर जी क्षेत्र पर पधारे और चांदनपुर के भगवान महावीर की तीर्थ वंदना के पश्चात् जयपुर, टोंक, निवाई आदि राजस्थान के ग्रामों में संघ का विहार होता हुआ अगला चातुर्मास जयपुर होता है।
आचार्यश्री देशभूषण जी महाराज के संघ में अत्यन्त अल्पवय वाली इस क्षुल्लिका वीरमती को देखकर अनेक श्रावकगण आचार्य महाराज से यही प्रश्न करते कि आपने इतनी छोटी वय में इन्हें दीक्षा वैâसे प्रदान कर दी? लेकिन क्षुल्लिका ‘वीरमती’ के ज्ञान के क्षयोपशम को देखकर साधारणजन ही नहींr बल्कि पं. श्री भंवरलाल जी न्यायतीर्थ आदि विशिष्टजन भी पूज्य माताजी के सन्निकट में आये। उस समय पूज्य माताजी ने संस्कृत का विशेष अभ्यास करने हेतु व्याकरण पढ़ने का निश्चय किया। कुछ विद्वान व्याकरण पढ़ाने के लिए पधारे भी, लेकिन माताजी १ दिन में जितने व्याकरण सूत्र पढ़ना चाहती थीं, वे उतने सूत्र १ माह में पढ़ाना चाहते थे अत: कई विद्वान वापस चले गये। पुन: एक ब्राह्मण विद्वान पं. दामोदराचार्य को पं. भंवरलाल जी ने बुलाकर पूज्य माताजी को व्याकरण पढ़ाने हेतु नियत किया। उन्होंने माताजी की जिज्ञासा अनुसार ही २५-५० सूत्र प्रतिदिन माताजी को पढ़ाये, जिन्हें तुरंत माताजी सुना दिया करती थीं। पं. दामोदराचार्य जी ने स्वयं कहा कि आज तक व्याकरण को इस प्रकार इतना अधिक हृदयंगम करने वाला कोई दूसरा विद्यार्थी हमारी नजर में नहीं आया। यह तो पूर्व प्रदत्त विशेष क्षयोपशम की बात है कि पूज्य माताजी ने पूरी ‘कातंत्र व्याकरण’ का २ माह में अध्ययन समाप्त कर लिया और वहीं से जैन ग्रंथों का मूल संस्कृत से अभ्यास प्रारंभ कर दिया।
कातंत्र व्याकरण का २ माह में अध्ययन ही जयपुर चातुर्मास की विशिष्ट उपलब्धि माताजी के प्रारंभिक जीवन की थी।जयपुर चातुर्मास समापन के बाद-जयपुर चातुर्मास के मध्य ही आपको ज्ञात हुआ कि परमपूज्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज दक्षिण में हैं और उन्होंने सल्लेखना ले रखी है। अत: शीघ्र ही उन महातपस्वी के दर्शन कर लेना चाहिए, ऐसी एक भावना मन में उत्पन्न हुई। प्रथम दीक्षा एवं शिक्षा गुरु आचार्य श्री देशभूषण जी के समक्ष आपने निवेदन किया। आचार्यश्री ने इस शुभ कार्य हेतु तुरंत आज्ञा प्रदान कर दी।आचार्यश्री की आज्ञा प्राप्त होते ही आपने क्षुल्लिका विशालमती जी को साथ लेकर आचार्यप्रवर शांतिसागर जी महाराज के दर्शनार्थ प्रस्थान कर दिया और दक्षिण के ‘नीरा’ नामक गांव में आचार्यश्री के प्रथम दर्शन कर अपने जीवन को धन्य माना और उनसे आज्ञा लेकर आप और क्षुल्लिका विशालमती जी ने आस-पास फलटण, दहीगांव, सोलापुर, कोल्हापुर आदि नगरों का भ्रमण करके तीर्थ यात्राएँ भी कीं और समाज को भी ज्ञान से लाभान्वित किया।
चातुर्मास का समय निकट आने पर म्हसवड़ (सातारा) महाराष्ट्र समाज की प्रार्थना को स्वीकार करके आपने म्हसवड़ के चातुर्मास की स्वीकृति प्रदान कर दी।
इस चातुर्मास में वहाँ की कुमारी बालिकाओं को आपने द्रव्यसंग्रह, तत्त्वार्थसूत्र आदि विषयों का अध्ययन कराना प्रारंभ कर दिया और उस अध्यापन के निमित्त से स्वयं में क्षयोपशम की वृद्धि होती गई। माताजी के ज्ञान का क्षयोपशम देखकर वहाँ कुमारी प्रभावती (स्व. आर्यिका जिनमती जी) और सौभाग्यवती सोनूबाई (स्व. आर्यिका पद्मावती जी) ने पूज्य माताजी के चरण सानिध्य में रहकर ज्ञानार्जन का निर्णय किया।इसी चातुर्मास के समय आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज ने कुंथलगिरि में समाधि ग्रहण कर ली और अन्त में सब कुछ त्याग करके मात्र जल व जल का भी त्याग करके लाखों की समाज को बिलखता छोड़कर अपने इस नश्वर शरीर का त्याग कर दिया। आचार्यश्री की समाधि दर्शन हेतु पूज्य माताजी ने समाधि से १ माह पूर्व म्हसवड़ चातुर्मास के मध्य ही कुंथलगिरि जाकर आचार्यश्री का आशीर्वाद एवं उनके त्याग वैराग्य को देखने का अवसर प्राप्त किया। यहीं पर पूज्य माताजी ने आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज से आर्यिका दीक्षा प्रदान करने की याचना की लेकिन आचार्यप्रवर ने कहा कि मैंने तो समाधि ले ली है और दीक्षा देने का त्याग कर दिया है अत: तुम अब मेरे शिष्य आचार्य वीरसागर जी से जाकर दीक्षा ग्रहण कर लेना। मैंने अपना आचार्यपट्ट उन्हें प्रदान कर दिया है, ऐसा शुभ आशीर्वाद प्रदान कर दिया। आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज की भादों सुदी २ को समाधि सम्पन्न हो जाती है। उसके बाद पूज्य माताजी पुन: म्हसवड़ आकर चातुर्मास पूर्ण करती हैं।
म्हसवड़ चातुर्मास के बाद-कु. प्रभावती एवं श्रीमती सोनूबाई की विशेष जिज्ञासा देखकर आपने क्रमश: १०वीं तथा सप्तम प्रतिमा के व्रत देकर अपने संघ में रख लिया। इसके बाद आपने अपनी शिष्याओं सहित आचार्यश्री वीरसागर जी के साथ ही रहने का निर्णय किया। आचार्य संघ का विहार होता हुआ संघ माधोराजपुरा पहुँचता है। पुन:-पुन: याचना करने पर क्षुल्लिका वीरमती जी को वि.सं. २०१३, सन् १९५६, वैशाख कृष्णा २ को वीरसागर जी ने माधोराजपुरा (राज.) में आर्यिका दीक्षा प्रदान करके ज्ञान के क्षयोपशम को देखकर गुणानुरूप ही ‘ज्ञानमती’ यह नामकरण कर दिया। वहीं पर कु. प्रभावती को भी क्षुल्लिका दीक्षा दिलाकर उनका नाम श्री जिनमती जी रखा गया। माधोराजपुरा एवं आसपास की हजारों की जनता ने पूज्य माताजी के वैराग्यपरक दृश्य को देखकर अपने को धन्य माना। संघ का आसपास विहार होता हुआ चातुर्मास खानिया (जयपुर) होने का निर्णय हो जाता है। पश्चात् ब्र. सोनू बाई को दीक्षा देकर क्षुल्लिका पद्मावती नाम रखा गया।