५६. षट्खण्डागम (सिद्धान्तचिंतामणि टीका समन्वित) खण्ड १, पुस्तक १-हस्तिनापुर जम्बूद्वीप स्थल पर पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने पूज्य आर्यिका श्री चंदनामती माताजी की प्रार्थना से आश्विन शुक्ला पूर्णिमा वीर सं. २५२१, ८ अक्टूबर १९९५ को प्रात: ११ बजकर २५ मिनट पर मंगलाचरण लिखकर संस्कृत टीका लेखन का सूत्रपात किया।
आचार्य पुष्पदन्त भूतबलि द्वारा रचित इन षट्खण्डागम सूत्रों पर श्री वीरसेनाचार्य के पश्चात् किसी भी आरातीय आचार्य अथवा विद्वान ने लेखनी चलाने का उपक्रम नहीं किया था। वह उद्यम इस सदी की ऐतिहासिक नारी पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने किया है। श्री पुष्पदंत भूतबलि आचार्य ने जिनागम को छह खण्डों में विभाजित करके ‘षट्खण्डागम’ यह सार्थक नाम देकर सिद्धान्त सूत्रों को लिपिबद्ध किया है।
छह खण्ड के नाम-१. जीवस्थान २. क्षुद्रक बंध ३. बंधस्वामित्व विचय ४. वेदनाखण्ड ५. वर्गणाखण्ड ६. महाबंध।
वर्तमान में सोलह पुस्तकों में पाँच खण्ड माने गए हैं। उनके सूत्रों की गणना छह हजार आठ सौ इकतालीस है। (६८४१) छ: पुस्तकों तक प्रथम खण्ड, सातवीं पुस्तक में द्वितीय खण्ड, आठवीं पुस्तक में तृतीय खण्ड, नवमी से बारहवीं पुस्तक तक चतुर्थ खण्ड, तेरहवीं पुस्तक से सोलहवीं तक पाँचवां खण्ड है।
प्रथम खण्ड में आठ अनुयोगद्वार एवं अंत में एक चूलिका अधिकार है, जिसके नव भेद हैं। आठ अनुयोग द्वार के नाम-१. सत्प्ररूपणा २. द्रव्य प्रमाणानुगम ३. क्षेत्रानुगम ४. स्पर्शानुगम ५. कालानुगम ६. अन्तरानुगम ७. भावानुगम ८. अल्पबहुत्वानुगम है।
षट्खण्डागम की इस प्रथम खण्ड की प्रथम पुस्तक में सत्प्ररूपणा के एक सौ सतहत्तर (१७७) सूत्र छपे हैं, वे श्री पुष्पदन्ताचार्य द्वारा विरचित हैं। इन १७७ सूत्र पर संस्कृत टीका पूज्य माताजी ने सरल भाषा मेंं की है और इसका हिन्दी अनुवाद पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी ने किया है। इस प्रथम पुस्तक की टीका को पूज्य माताजी ने पिड़ावा (राज.) में फाल्गुन शुक्ला सप्तमी वीर सं. २५२२, २५ फरवरी १९९६ को लिखकर पूर्ण किया। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५२४, आश्विन शुक्ला १५, शरदपूर्णिमा ५ अक्टूबर १९९८, पृष्ठ संख्या ५१२ है।
५७. षट्खण्डागम: (सिद्धान्तचिंतामणि टीका समन्वित:) प्रथम खण्ड-पुस्तक २-पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने षट्खण्डागम की द्वितीय पुस्तक का लेखन कार्य मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र की यात्रा के मध्य मध्यप्रदेश के उज्जैन शहर में वीर सं. २५२२, चैत्र कृष्णा एकम्, ६ मार्च १९९६ को मंगलाचरण लिखकर उसकी टीका लिखना प्रारंभ किया। इसमें सत्प्ररूपणा के अन्तर्गत गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति और चौदह मार्गणाओं का विस्तार से वर्णन किया है। यह सत्प्ररुपणा का ही आलाप अधिकार है, इस पूरे ग्रंथ में एक भी सूत्र नहीं हैं। इसकी हिन्दी टीका प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी द्वारा की गई है।
इस पुस्तक में गुणस्थान और मार्गणा इन दोनों महाधिकारों में मिलकर उसकी बीस प्ररूपणाओं के द्वारा ग्रंथ में पाँच सौ पैंतालिस (५४५) संदृष्टियाँ हैं।
हस्तिनापुर तीर्थ पर वीर निर्वाण संवत् २५२५ की माघ शुक्ला पंचमी (बसंत पंचमी) सन् १९९९ के दिन यह टीका पूर्ण हुई है। प्रकाशन-वीर सं. २५३१, आश्विन शु. पूर्णिमा (शरदपूर्णिमा) १७ अक्टूबर २००५, पृष्ठ संख्या ३८२ है।
५८. षट्खण्डागम: (सिद्धान्तचिंतामणि टीका समन्वित:) प्रथम खण्ड-पुस्तक ३-द्रव्यप्रमाणानुगम नामक प्रथम खण्ड की इस तृतीय पृस्तक में चौदह मार्गणाओं के अन्तर्गत जीवों की संख्या का विस्तृत वर्णन है।
मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र में वीर नि.सं. २५२२, वैशाख शु. १२, ३० अप्रैल १९९६ को पूज्य माताजी ने इसकी संस्कृत टीका लिखना प्रारंभ किया तथा अपने हस्तलिखित ८३ पृष्ठ में चौदह अधिकार एवं दो महाधिकारों के द्वारा चांदव (महा.) में द्वितीय आषाढ़ शुक्ला ३, १८ जुलाई १९९६ को टीका पूर्ण किया।
पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी द्वारा इसका हिन्दी अनुवाद पूर्ण हो चुका है।
५९. त्रिलोक भास्कर-दिल्ली पहाड़ी धीरज पर वीर सं. २४९८ (सन् १९७२) के चातुर्मास में करणानुयोग से संंबंधित ग्रंथ ‘त्रिलोक भास्कर’ लिखा। वैसे तो तीनलोक का विस्तृत वर्णन तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार, लोक विभाग आदि अनेक ग्रंथों में पूर्वाचार्यों ने किया है, किन्तु सुगमता की दृष्टि से पूज्य माताजी ने सरल हिन्दी में उन्हीं ग्रंथों का सार इसमें लिया है। यथास्थान चार्ट एवं चित्रों को देकर इसे विशेष रूप से पठनीय बना दिया है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०० सन् १९७४ में, पृष्ठ संख्या २८० है।
६०. गोम्मटसार जीवकांडसार-आचार्य नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार जीवकांड ग्रंथ ७३४ प्राकृत गाथाओं में रचित है। अधिक दुरूह होने से इसे हृदयंगम करना जनसाधारण के बस की बात नहीं है। इस दृष्टि से माताजी ने ७३४ गाथाओं में से १४९ गाथाएँ चयनकर इस साररूप पुस्तक का सृजन किया है। यह भी विद्यार्थियों के लिए एवं संक्षेप रुचि वालों के लिए अति उपयोगी है। प्रथम संस्करण वीर सं.२५१४, अक्टूबर १९८८ में, पृष्ठ संख्या १५८ है।
६१. गोम्मटसार कर्मकाण्डसार-आचार्य नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार कर्मकांड नामक ग्रंथ में नौ अध्यायों में ९७२ गाथाएँ प्राकृत में हैं। यह ग्रंथ भी उपर्युक्त की तरह सरलता से समझ में आ जावे, इसे दृष्टि में रखकर पूज्य माताजी ने पूरे ग्रंथ से १३३ गाथाओं को साररूप छांटकर लघुकाय बना दिया है। परीक्षार्थियों के लिए विशेष उपयोगी है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१५, अक्टूबर १९८९ में, पृष्ठ संख्या ११२ है।
६२. भावत्रिभंगी-दिल्ली-नजफगढ़ वीर. सं. २५९९, सन् १९७३ के चातुर्मास में भावत्रिभंगी ग्रंथ का अनुवाद किया। आचार्य श्रुतमुनि विरचित इस कृति में क्षायिक आदि ५ भावों में मार्गणाओं व गुणस्थानों को घटित किया है। इसमें ११६ गाथाएँ हैं। पूज्य माताजी ने इसका अनुवाद करके सैद्धान्तिक चर्चाप्रेमियों के लिए इसे सुगम बना दिया है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१४, नवम्बर १९८८ में, पृष्ठ संख्या ८० है।
६३. जैन भूगोल-इस छोटी सी पुस्तक में अनेकों ग्रंथों के साररूप में सरल भाषा में जम्बूद्वीप, नंदीश्वर द्वीप व तीनलोक का अति संक्षिप्त वर्णन किया है। इस पुस्तक को पढ़कर पृथ्वीमण्डल का सहज ज्ञान प्राप्त हो सकता है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१०, मार्च १९८४ में, पृष्ठ संख्या ६० है। इस पुस्तक का डॉ. एस.एस. लिश्क-पटियाला (पंजाब) ने अंग्रेजी में अनुवाद किया है। जिसका प्रथम संस्करण वीर सं. २५११, सन् १९८५ में छप चुका है।
६४. चर्चा शतक-कविवर द्यानतरायजी ने इस कृति में तीनलोक, गुणस्थान, मार्गणा, जीवसमास, चार गति आदि विभिन्न विषयों पर १०० श्लोकों की रचना ढुंढारी भाषा में की है, जिनसे अनेक प्रकार की जानकारी प्राप्त होती है। श्लोकों का हिन्दी अर्थ भी दिया गया है। वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला से इसका प्रथम बार प्रकाशन हुआ है। चर्चाप्रेमियों के लिए यह अच्छा ग्रंथ है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१५, फरवरी १९८९ में, पृष्ठ संख्या १४६ है।
६५. ज्ञानज्योति गाइड-४ जून १९८२ को दिल्ली के लाल किला मैदान से तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के करकमलों से एवं पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के आशीर्वाद से जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन का शुभारंभ हुआ था। संपूर्ण भारतवर्ष में १०४५ दिनों तक भ्रमण हुआ। आवश्यकता को देखते हुए १९८४ में इस ज्ञानज्योति गाइड पुस्तक का सृजन माताजी ने किया। इसको पढ़ने से हस्तिनापुर का इतिहास, जम्बूद्वीप रचना का परिचय तथा ज्योति रथ पर दिये गये चित्रों का परिचय प्राप्त होता है। हिन्दी के अतिरिक्त मराठी व असमिया भाषा में भी इसका प्रकाशन किया गया। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१०, सन् १९८४ में, पृष्ठ संख्या ४४ है।
६६. हस्तिनापुर-वीर सं. २५०९, सन् १९८३ में यह पुस्तक लिखी। इसमें पूज्य माताजी ने हस्तिनापुर का प्राचीन इतिहास, भगवान ऋषभदेव का इक्षुरस आहार, रक्षाबंधन पर्व, महाभारत युद्ध आदि बहुत से विषयों का वर्णन किया है। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५१०, ज्येष्ठ शुक्ला ९, सन् १९८४, पृष्ठ संख्या ३६ है।
६७. जम्बूद्वीप-तीन लोक विषयक अनेक ग्रंथों में जम्बूद्वीप का विस्तृत विवेचन पढ़ने को मिलता है, उन ग्रंथों को पढ़कर, अच्छी तरह से मनन चिंतन, अध्ययन करके माताजी ने यह जम्बूद्वीप नाम की छोटी सी पुस्तक तैयार की है। ‘‘गागर में सागर’’ के समान जम्बूद्वीप विषयक पर्याप्त जानकारी इस पुस्तक से प्राप्त हो जावेगी। यथास्थान तत् संबंधि कुछ चित्र भी दिये गये हैं। प्रथम संस्करण वीर संवत् २५००, सन् १९७४ में, पृष्ठ संख्या ८० है।
६८. आस्रवत्रिभंगी-पाँच मिथ्यात्व आदि से आस्रव के ५७ भेद हैं। इन्हें चौदह गुणस्थान और मार्गणाओं में घटाया है और चार्ट भी दिये गये हैं। यह श्री श्रुतमुुनि की रचना है। माताजी ने सन् १९७३ में इसका अनुवाद किया है।
६९. जैन गणित-इसमें तिलोयपण्णत्ति आदि के आधार से जैनगणित का सुंदर विवेचन है।
७०. त्रिलोक विज्ञान
७१. आर्यखंड व्यवस्था एवं अलौकिक गणित
७२. मानवलोक
७३. गत्यागति एवं जीव के स्वतत्त्व
७४. जैनदर्शन में निमित्त-उपादान
७५. सम्यग्दर्शन
७६. षट्खण्डागम सार