७७. मूलाचार पूर्वार्ध-लेखन प्रारंभ वीर सं. २५०३, सन् १९७७, हस्तिनापुर प्राचीन मंदिर। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५१०, सन् १९८४, पृष्ठ संख्या ५०४ है।
७८. मूलाचार उत्तरार्ध-लेखन समापन-वीर सं. २५०४, वैशाख वदी तीज (अक्षय तृतीया), बुधवार सन् १९७८, हस्तिनापुर। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५१२, सन् १९८६, पृष्ठ संख्या ४१० है। इन दोनों ग्रंथों का प्रकाशन ‘‘भारतीय ज्ञानपीठ’’ संस्था से हुआ है।
आचार्यश्री कुन्दकुन्द स्वामी के द्वारा रचित दिगम्बर जैन साधु-साध्वियों की आचार संहिता को दर्शाने वाला यह मूलाचार गं्रथ है। द्वादश अधिकारों में विभक्त प्राकृत भाषा की १२४३ गाथाओं में निबद्ध ‘मूलाचार’ नामक ग्रंथराज दिगंबर आम्नाय में मुनिधर्म के प्रतिपादक शास्त्रों में प्राय: सर्वाधिक प्राचीन माना जाता है। इन अधिकारों के प्रतिपाद्य विषय हैं क्रमश:-मूलगुण, वृहत्प्रत्याख्यान, संक्षेप प्रत्याख्यान, समयाचार, पंचाचार, पिण्डशुद्धि, षडावश्यक, द्वादशानुप्रेक्षा, अनगार भावना, समयसार, शीलगुण प्रस्तार और पर्याप्ति। वस्तुत: प्रथम अधिकार में निर्देशित मुनिपद के अट्ठाईस मूलगुणों का विस्तार ही शेष अधिकारों में किया गया है। मूलाचार पूर्वार्ध और उत्तरार्ध दोनों की टीका का हिन्दी अनुवाद पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी ने किया है। मूलाचार के दोनों भागों का प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ से हुआ है।
७९. मुनिचर्या-हस्तिनापुर तीर्थ पर वीर सं. २५१७, वैशाख कृष्णा द्वितीया सन् १९९१ में यह ग्रंथ पूर्ण किया। मुनि-आर्यिकाओं की नित्य-नैमित्तिक क्रियाओं संबंधी अनेक ग्रंथों का प्रकाशन विभिन्न स्थानों से समय-समय पर हुआ है किन्तु वे भक्तियाँ आदि संस्कृत-प्राकृत में हैं, जिनका अर्थ बहुत कम त्यागीवर्ग समझ पाते थे। इस कमी की पूर्ति माताजी ने की। सभी भक्तियों का दैनिकद्ध व पाक्षिक प्रतिक्रमण पाठों का हिन्दी में पद्यानुवाद कर दिया है, उसी का यह प्रकाशन है। अब इन पाठों को पढ़ने वाले प्रत्येक साधु को यह सहजरूप में समझ में आ जावेगा कि वे क्या पढ़ रहे हैं। दिगम्बर मुनि-आर्यिकाओं के लिए यह ग्रंथ विशेष रूप से उपयोगी है। प्रथम संस्करण का प्रकाशन वीर सं. २५१७, अगस्त १९९१ में, पृष्ठ संख्या ६२८ है।
८०. आराधना (अपरनाम-श्रमणचर्या)–हस्तिनापुर में वीर सं. २५०३, सन् १९७७ में यह पुस्तक लिखी। इसमें दिगम्बर मुनि-आर्यिकाओं की दीक्षा से समाधिपर्यंत प्रतिदिन प्रात: से सायंकाल तक की जाने वाली चर्या एवं क्रियाओं को दर्शाया गया है। गणिनी माताजी ने अपने संस्कृत-व्याकरण छंद का पूर्णरूप से इसमें सदुपयोग किया है। संपूर्ण ४५१ संस्कृत श्लोक स्वयं माताजी द्वारा रचित हैं। प्रत्येक श्लोक का हिन्दी में अर्थ तथा जगह-जगह भावार्थ भी उन्हीं का है। श्लोकों के शीर्षक भी दिये हैं। साधु-साध्वियों के लिए एवं उनकी चर्या को जानने वाले जिज्ञासु श्रावक-श्राविकाओं के लिए यह छोटा सा ग्रंथ अति उपयोगी है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०५, सन् १९७९ में, पृष्ठ संख्या १४४ है।
८१. जिनस्तोत्र संग्रह-पूज्य गणिनी आर्यिका श्री की संस्कृत काव्यप्रतिभा का परिचायक यह अभूतपूर्व ग्रंथ है। इसमें उनके द्वारा रचित समस्त संस्कृत एवं हिन्दी स्तुतियों का समावेश है। ग्रंथ के चतुर्थखण्ड में एक ‘‘कल्याणकल्पतरु’’ नामक संस्कृत स्तोत्र है। छंदशास्त्र की दृष्टि से इस स्तोत्र का विद्वज्जगत् विशेष मूल्यांकन करेगा क्योंकि इस पूरे स्तोत्र में १४४ छंदों का प्रयोग किया गया है। कुल छह खण्डों में निबद्ध यह ग्रंथ है, जिसमें द्वितीय खण्ड से चतुर्थखण्ड तक पूज्य माताजी द्वारा ही रचित स्तोत्र हैं तथा प्रथम, पंचम एवं छठे खण्डों में अन्य आचार्यों तथा विद्वानों द्वारा रचित संस्कृत-हिन्दी स्तोत्र हैं। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१८, जून १९९२, पृ. ५३२ हैं।
८२. कल्याणकल्पतरु स्तोत्र (छन्दोमंजरी)-हस्तिनापुर प्राचीन मंदिर, वीर सं. २५०१ (सन् १९७५) में पूज्य माताजी ने सभी छंदों का प्रयोग भगवान की स्तुति करने हेतु एक ‘कल्याण कल्पतरु स्तोत्र’ की मौलिक रचना की। इस स्तोत्र में भगवान ऋषभदेव से लेकर महावीर स्वामी तक चौबीसों तीर्थंकरों की पृथक्-पृथक् स्तुतियाँ हैं। इनमें क्रम से एकाक्षरी से लेकर तीस अक्षरी छंद तक कुल एक सौ चवालिस (१४४) छंदों का प्रयोग किया है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१८, १३ अगस्त १९९२, पृष्ठ संख्या १६२ है।
८३. सामायिक एवं श्रावक प्रतिक्रमण-सामायिक पाठ अनेक प्रकार के प्रचलित हैं। इस पुस्तक में प्राचीन क्रियाकलाप ग्रंथ से प्राप्त सामायिक पाठ व उसका माताजी द्वारा अनुवादित हिन्दी पद्यानुवाद दिया गया है। साथ ही श्रावक प्रतिक्रमण व उसका हिन्दी पद्यानुवाद भी दिया गया है। हिन्दी पद्यानुवाद हो जाने से साधुवर्ग एवं श्रावकों के लिए सामायिक पाठ सुरुचिकर हो गया है। इसी प्रकार से श्रावकों के लिए प्रतिक्रमण पाठ भी अच्छी तरह से समझ में आ जायेगा। इसका प्रकाशन सन् १९९१ में हुआ है।
८४. आर्यिका-खतौली (मुजफ्फरनगर) में वीर सं. २५०२, माघ शुक्ला तेरस, सन् १९७६ में यह पुस्तक लिखी। प्रस्तुत पुस्तक के सृजन की एक विशेष स्मरणीय घटना रही। एन. शान्ता नामक एक प्रâांसीसी महिला जैनसाध्वी एवं क्रिश्चियन साध्वी पर शोध प्रबंध लिख रही थी। बहुत प्रयास के बाद भी उन्हें दिगम्बर साध्वियों के बारे में प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं हो पा रही थी। दैवयोग से उनकी भेंट बनारस में डॉ. गोकुलचंद जैन से हुई। उन्होंने इसके लिए पूज्य ज्ञानमती माताजी का नाम सुझाया। वे ढूँढ़कर माताजी के पास आईं और आर्यिका चर्या की जानकारी के लिए अनेक प्रश्न किये। कुछ प्रश्नों के उत्तर माताजी ने तत्काल दिये एवं शेष प्रश्नों के समाधान रूप में ‘‘आर्यिका’’ नाम से यह पूरी पुस्तक ही तैयार कर दी। जब वे दूसरी बार आईं तो पुस्तक देखकर बहुत प्रसन्न हुईं। ‘‘एक पंथ दो काज’’ हो गये। एक बहुत बड़ी कमी की पूर्ति हुई। आर्यिकाओं की चर्या का ज्ञान कराने वाली एक प्रामाणिक पुस्तक तैयार हो गई। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०२, सन् १९७६ में, पृष्ठ संख्या ८० है।
८५. शिक्षण पद्धति-दिल्ली में वीर सं. २५०५, सन् १९७९ में यह पुस्तक लिखी। बालक-बालिकाओं तथा जैनधर्म का प्रारंभिक ज्ञान अर्जन करने वाले युवा एवं प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को किस प्रकार से शिक्षण देना चाहिए कि जिससे उनको समीचीन ज्ञान की प्राप्ति हो तथा वे जिनधर्म के दृढ़ श्रद्धानी बनें। इस पुस्तक में बालविकास चार भाग, छहढाला तथा द्रव्य संग्रह पुस्तकों को किस प्रकार से पढ़ना चाहिए, उसकी पद्धति शिक्षकों के लिए दी गई है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०५, सितम्बर १९७९ में, पृष्ठ संख्या ३२ है।
८६. रत्नकरण्ड श्रावकाचार-दिल्ली में वीर सं. २५०६, चैत्र कृष्णा नवमी, ऋषभजयंती, सन् १९८० में इसका पद्यानुवाद किया। तार्किक शिरोमणि आचार्य समंतभद्रकृत सर्व परिचित रत्नकरण्ड श्रावकाचार ग्रंथ के १५० श्लोकों का माताजी ने हिन्दी पद्यानुवाद किया है। इसमें हिन्दी पद्य तथा पद्यों के सामने संक्षेप में अर्थ दिया गया है। शिक्षण शिविरों तथा विद्यालयों के लिए विशेष उपयोगी है। रत्नकरण्ड पद्यावली के नाम से प्रथम संस्करण वीर सं. २५०६, मई १९८० में, पृष्ठ संख्या १०६ है।
८७. सोलह भावना-जिनकी भावना भाने से तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो जाता है, ऐसी सोलह भावनाओं का स्वरूप एवं एक-एक भावना संबंधी कथा इस पुस्तक में दी गई है। कथाएँ पुराणग्रंथों से माताजी ने स्वयं संकलित की हैं। स्वाध्याय के लिए तो उत्तम है ही, प्रवचनकार विद्वानों के लिए भी विशेषरूप से उपयोगी है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५११, फरवरी १९८५ में, पृष्ठ संख्या १०० है।
८८. जिनसहस्रनाम मंत्र-म्हसवड़ (जि. सोलापुर-महाराष्ट्र) के चातुर्मास में श्रावण शु. एकम् वीर सं. २५८१, सन् १९५५ के दिन जिनसहस्रनाम मंत्र लिखना प्रारंभ कर श्रावण शु. ३, वीर सं. २५८१, सन् १९५५ को ये १००८ मंत्र पूर्ण किए। पूज्य माताजी ने क्षुल्लिका दीक्षा लेने के दो वर्ष पश्चात् अपनी लेखनी से सर्वप्रथम भगवान् के १००८ नामों के मंत्र बनाये। जिसका प्रकाशन वीर सं. २५८१, सन् १९५५ में म्हसवड़ (सोलापुर) महा. से हुआ था। उसके बाद दूसरी बार मार्च सन् १९९२ में उसका प्रकाशन हुआ है। इस पुस्तक में माताजी द्वारा रचित जिनसहस्रनाम पूजा तथा सरस्वती पूजा भी दी गई है। सहस्रनाम मंत्र नित्य पठनीय हैं। भगवान के नाम मंत्रों से प्रारंभ हुई लेखनी से अब तक २५० ग्रंथ लिखे जा चुके हैं। पृष्ठ सं. ४८ है।
८९. सामायिक-इस पुस्तक में सुप्रभात स्तोत्र, मंगल स्तुति, देववंदना विधि, सामायिक विधि, पूजामुख विधि, पूजा अन्त्य विधि, चतुर्दशी क्रिया विधि, अष्टमी क्रिया विधि, अष्टान्हिका आदि पर्वों में करने योग्य विधि, शांति भक्ति, श्री बाहुबली स्तोत्र, उषावंदना, जंबूद्वीप स्तुति, त्रैलोक्य चैत्य वंदना, श्री सम्मेदशिखर वंदना, उपसर्ग विजयी श्री पार्श्वनाथ स्तुति, श्री पार्श्वजिन स्तुति, समाधि भक्ति, श्री वीराष्टक स्तोत्र है। प्रथम संस्करण-वीर सं. २४९८, आश्विन कृष्णा एकम् (क्षमावणी), सितम्बर १९७२, पृष्ठ संख्या ५८ है।
९०. सामायिक पाठ (देववंदना)-सामायिक का दूसरा नाम देववंदना भी शास्त्रों में आया है। इस पुस्तक में शास्त्रोक्त विधि से सामायिक करने की प्रक्रिया दी गई है। माताजी ने हिन्दी पद्यानुवाद कर दिया है। प्रथम संंस्करण वीर सं. २५१४, अक्षय तृतीया सन् १९८८ में, पृष्ठ संख्या १६ है।
९१. कुन्दकुन्द का भक्तिराग-भक्तिमार्ग का प्रचार-प्रसार आज से नहीं, आचार्य कुन्दकुन्द के समय से था। वीतराग मार्ग का अनुसरण करते हुए स्वयं आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने भक्ति पाठों की रचना की। ये भक्तियाँ प्राकृत भाषा में रचित हैं। आर्यिका रत्नमती जी के विशेष आग्रह से पूज्य माताजी ने इनका हिन्दी पद्यानुवाद सन् १९७२ में कर दिया था, किन्तु उनका प्रकाशन सन् १९८५ में हो पाया।
इस पुस्तक में आचार्य पूज्यपादकृत संस्कृत भक्तियों का तथा गौतम गणधर रचित दो भक्तियों का हिन्दी पद्यानुवाद भी दिया गया है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५११, वैशाख कृष्णा द्वितीया, अप्रैल १९८५ में, पृष्ठ संख्या १५२ है।
९२. दशधर्म-उत्तम क्षमा आदि दश धर्मों के विवेचनरूप में छोटी-बड़ी अनेक पुस्तकों का प्रकाशन विभिन्न स्थानों से विभिन्न लेखकों के द्वारा हुआ है, किन्तु यह अपने प्रकार की एक अलग ही पुस्तक है। इसमें प्राकृत वाली दशधर्म की पूजा के एक-एक धर्म के अर्घ्य के श्लोकों को प्रारंभ में देकर उसका अर्थ, उस धर्म से संबंधित कथाएँ एवं उस धर्म का विवेचन दिया है। पुस्तक के अंत में माताजी द्वारा रचित दशधर्म की एक-एक हिन्दी कविता भी दी गई है। प्रवचनकर्ताओं के लिए यह पुस्तक विशेष उपयोगी है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०९, २१ अप्रैल १९८३ में, पृष्ठ संख्या ११० है।
९३. दिगम्बर मुनि-वैसे तो दिगम्बर मुनि-आर्यिकाओं की चर्यासंबंधी अनेक ग्रंथ लिखे गये हैं, जैसे-मूलाचार, अनगार-धर्मामृत इत्यादि, किन्तु ये ग्रंथ बड़े-बड़े हैं। सामान्यजन इन ग्रंथों को पढ़कर संक्षेप में मुनिचर्या की जानकारी प्राप्त नहीं कर पावेंगे। इसे लक्ष्य्ा में रखकर माताजी ने उक्त ग्रंथों के सार से, न बहुत संक्षिप्त न अति विस्तृत अपितु मध्यम रूप में इस ‘‘दिगम्बर मुनि’’ नाम से ग्रंथ को लिखकर तैयार किया। जिन-जिन ग्रंथों से जिस विषय को इसमें लिया है, नीचे टिप्पणी में उन ग्रंथों का नाम दे दिया है। समस्त विश्व के लोगों के लिए दिगम्बर मुनि आर्यिकाओं की दीक्षा से समाधिपर्यंत प्रतिदिन प्रात: से रात्रि तक की जाने वाली क्रियाओं का सरलता से बोध कराया गया है। स्वयं मुनि-आर्यिकाओं के लिए भी यह ग्रंथ अत्यंत उपयोगी है। पृष्ठ संख्या ३३२ है।
९४. आत्मा की खोज-हस्तिनापुर तीर्थ पर वीर सं. २५०१, श्रावण शुक्ला पूर्णिमा, गुरुवार, सन् १९७५ को यह पुस्तक लिखी। चौबीस तीर्थंकरों की चौबीस स्तुतियों में तीर्थंकरों का पूरा परिचय आलंकारिक शैली में दिया गया है। पुस्तक के अंत में आत्म-पीयूष नाम से ४५ पद्यों की एक भावपूर्ण स्तुति है, जिसमें शुद्धात्मा की भावना भाई गई है। नित्य पाठ करने योग्य है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०१, सन् १९७५ में, पृष्ठ सं. ३६ है।
९५. धरती के देवता-देव स्वर्ग में भी रहते हैं व पृथ्वी पर भी, किन्तु यहाँ धरती के देवता का तात्पर्य है मानव शरीर को धारण करने वाले दिगम्बर मुनि। पूज्य माताजी ने अति संक्षेप में इस छोटी सी पुस्तक में यह बताया है कि दिगम्बर मुनि वैâसे बनते हैं? प्रात: से रात्रि तक क्या करते हैं? किन महान् गुणों का पालन करते हैं? इत्यादि। अन्य धर्मावलम्बियों ने दिगम्बर मुनि अवस्था को सर्वश्रेष्ठ माना है, यह बताया गया है। यह पुस्तक जैन व जैनेतर सभी के लिए पठनीय है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०८, जून १९८२ में, पृष्ठ संख्या ४० है।
९६. इन्द्रध्वज विधान-खतौली (उ.प्र.) के चातुर्मास में श्रावण कृष्णा १, वीर सं. २५०३ से प्रारंभ कर वीर सं. २५०२, कार्तिक कृ. अमावस्या, दीपावली पर्व सन् १९७६ में पहली बार स्वतंत्ररूप से इसे हिन्दी भाषा में पूज्य माताजी द्वारा लिखा गया। तब से सारे देश में इस विधान की धूम मची हुई है। इसमें मध्यलोक के ४५८ अकृत्रिम जिनचैत्यालयों की पूजा है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०४, अक्टूबर १९७८ में, पृष्ठ संख्या ४९६ है।
९७. कल्पद्रुम विधान-हस्तिनापुर में वीर सं. २५१२, आषाढ़ शु.२, ७ जुलाई १९८६ से प्रारंभ कर आश्विन शु. १५, वीर सं. २५१२, सन् १९८६ को पूर्ण किया। सन् १९८६ में यह विधान पहली बार पूज्य माताजी की कलम से लिखा गया। इससे पहले इस नाम से कोई भी रचना देखने में नहीं आई। इसमें समवसरण की पूजा है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१३, ८ मार्च १९८७ में, पृष्ठ संख्या ४६४ है।
९८. सर्वतोभद्र विधान-हस्तिनापुर में वीर सं. २५१२, आश्विन शु. १५, शरदपूर्णिमा १९८६ को प्रारंभ कर माघ शु. १०, वीर सं. २५१३, सन् १९८७ में पूर्ण किया। इस विधान की रचना सर्वप्रथम पूज्य माताजी ने की। इसमें तीन लोक के समस्त अकृत्रिम जिनचैत्यालयों की १०१ पूजाएँ हैं। अर्घ्य २००० हैं। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१४, सितम्बर १९८८ में, पृष्ठ संख्या ८७० है।
९९. तीन लोक विधान-(मध्यम तीनलोक विधान) हस्तिनापुर में आश्विन शु. १५ से प्रारंभ कर पौष शु. १३, वीर सं. २५१३, सन् १९८७ में पूर्ण किया। इसमें तीन लोक संबंधी ६४ पूजाएँ हैं। अर्घ्य ८८४ एवं पूर्णार्घ्य १४० हैं। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१४, सितम्बर १९८८ में, पृष्ठ ३०८ हैं।
१००. त्रैलोक्य विधान (लघु तीनलोक विधान)-हस्तिनापुर में आश्विन शु. १५, वीर सं. २५१२ से प्रारंभ कर पौष शु. १३, वीर सं. २५१३, सन् १९८७ को पूर्ण किया है। इस विधान में भी तीन लोक की समस्त अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं की पूजा है। इसमें ५६७ अर्घ्य व ७४ पूर्णार्घ्य हैं। यह लघु तीन लोक विधान है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१४, सन् १९८८ में, पृष्ठ ३०८ हैं।
१०१. श्री सिद्धचक्र विधान-हस्तिनापुर जम्बूद्वीप पर वीर सं. २५१८, आश्विन सुदी पूर्णिमा (शरदपूर्णिमा) ११ अक्टूबर सन् १९९२ को यह विधान पूर्ण किया। सिद्धचक्र मण्डल विधानों के आयोजन की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। आज से लगभग २०-२२ वर्ष पूर्व अष्टान्हिका पर्वों में यत्र-तत्र कविवर सन्तलाल जी द्वारा रचित सिद्धचक्र विधान होते रहते थे। जिनमें न तो किसी विद्वान विशेष की आवश्यकता होती थी और न ही संगीतकार बुलाए जाते थे। किन्तु जब से सन् १९७६ में पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने इन्द्रध्वज विधान की रचना कर दी, तब से समाज में मण्डल विधानों की नई लहर सी छा गई। काफी दिनों से अनेक श्रीमानों एवं धीमानों द्वारा पूज्य माताजी के पास एक विनय- विज्ञप्ति संदेश ला रही थी कि आप अपनी सरस, सरल एवं मधुर शैली में नवीन सिद्धचक्र विधान की रचना कर दीजिए। तब माताजी ने मात्र ३ माह १५ दिन की अल्पावधि में यह काव्यग्रंथ अपनी अलौकिक प्रतिभा से रच दिया। प्रथम संस्करण-सन् १९९३ में, पृष्ठ संख्या ३८४ है।
१०२. नंदीश्वर विधान-पूज्य माताजी ने वीर सं. २५००, माघ शुक्ला दशमी, सन् १९७४ में यह विधान रचकर पूर्ण किया। इस विधान में पाँच पूजाओं में संक्षेप में नंदीश्वर द्वीप के बावन जिनमंदिरों की पूजा की गई है। इस विधान को आष्टान्हिक पर्व के आठ दिनों तक प्रतिदिन करना चाहिए। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५२१, आश्विन सुदी पूर्णिमा, सन् १९९५, पृष्ठ संख्या ५६ है।
१०३. विश्वशांति महावीर विधान-भगवान ऋषभदेव के तपकल्याणक एवं ज्ञानकल्याणक से पवित्र तीर्थ प्रयाग (इलाहाबाद) में तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली तीर्थ पर वीर सं. २५२७, पौष सुदी षष्ठी, १ जनवरी ईसवी सन् २००१ को यह विधान पूर्ण किया।
इस महावीर विधान को २६००वीं जन्मजयंती से जोड़ते हुए पूज्य माताजी ने इसमें महावीर स्वामी के गुण, नाम, विशेषण एवं उनके पुण्य आदि गुणों का बखान करते हुए पूरे २६०० मंत्र लिखे हैं। भगवान महावीर के २५२६वें निर्वाण दिवस के समापन एवं २५२७वें वर्ष के प्रारंभ में कार्तिक कृष्णा अमावस दिनाँक २७-१०-२००० मंगलवार को मंगलाचरणपूर्वक प्रारंभ किया। इस अतिशयकारी महाविधान का लेखन १-१-२००१, सोमवार, वीर निर्वाण संवत् २५२७, पौष शुक्ला षष्ठी को पूर्ण हुआ। अर्थात् पूरे ६६ दिन तक लिखी गई १३५ पृष्ठों की यह कृति ६७वें दिन स्वयं अपने करकमलों द्वारा पूज्य माताजी ने प्रभुचरणों में समर्पित कर असीम आल्हाद का अनुभव किया। प्रथम संस्करण-अप्रैल सन् २००१ में, पृष्ठ संख्या ३०० है।
१०४. जम्बूद्वीप मण्डल विधान-हस्तिनापुर जम्बूद्वीप पर ज्येष्ठ सुदी पंचमी (श्रुत पंचमी) वीर सं. २५१२, सन् १९८६ में यह विधान पूर्ण किया। इस विधान में जम्बूद्वीप के अकृत्रिम व कृत्रिम चैत्यालयों की पूजाएँ हैं। इसका प्रथम संस्करण वीर सं. २५१३, मार्च १९८७ में प्रकाशित हुआ है। पृष्ठ संख्या २७० है।
१०५. श्री पंचकल्याणक विधान-सरधना (मेरठ) उ.प्र. के चातुर्मास में वीर सं. २५१७, भादों वदी एकम् सन् १९९१ को सोलहकारण पर्व में यह विधान लिखकर पूर्ण किया। इस पूजन विधान में कुल ६ पूजाएँ हैं और १२० अर्घ्य हैं, ५ पूर्णार्घ्य हैं एवं ६ जयमालाएँ हैं। इस विधान में पंचकल्याणक की तिथियाँ, नक्षत्र, योग, दीक्षा वन, दीक्षा वृक्ष, सह दीक्षित मुनि, दीक्षा के समय के उपवास, दीक्षा के समय की पालकी, वैराग्य के कारण आदि विषय उत्तरपुराण ग्रंथ के आधार से लिए गए हैं। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५१९, माघ कृ. १४, सन् १९९३, पृष्ठ ५६ हैं।
१०६. चौंसठ ऋद्धि विधान-हस्तिनापुर तीर्थ पर वीर सं. २५१९, पौष कृष्णा द्वितीया, सन् १९९३ में यह विधान लिखकर पूर्ण किया। इस विधान में सर्वप्रथम गणधर और मुनिगण सहित चौबीस तीर्थंकरों की पूजा है। पुन: चौसठ ऋद्धि की समुच्चय पूजा है। अनंतर क्रम से आठों ऋद्धियों की आठ पूजाएँ हैं। इस प्रकार इस विधान में १० पूजाएँ हैं। २४±६४·८८ अर्घ्य हैं, ९ पूर्णार्घ्य हैं और १० जयमालाएँ हैं। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५२१, आश्विन शुक्ला १५, ८ अक्टूबर १९९५, पृष्ठ संख्या ६४ है।
१०७. श्रुतस्कंध विधान-हस्तिनापुर में वीर सं. २५१५, ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी ‘श्रुतपंचमी’ सन् १९८६ में इस विधान को लिखकर पूर्ण किया। इस विधान में द्वादशांग जिनवाणी की पूजा के बाद आठ दल में द्वादशांग के १२ अर्घ्य, दृष्टिवाद के परिकर्म के ५ अर्घ्य, दृष्टिवाद भेदसूत्र का १ अर्घ्य, पूर्वगत के १४ अर्घ्य, चूलिका के ५ अर्घ्य, अंगबाह्य के १४ भेद के १४ अर्घ्य, अनुयोग के ४ अर्घ्य एवं कतिपय गं्रथों के १० अर्घ्य हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर १२±५±१±१४±५±१४± ४±१०·६५ अर्घ्य हैं, २ पूर्णार्घ्य हैं और १ जयमाला है। यह विधान श्रुतज्ञान को वृद्धिंगत करने वाला है। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५२१, आश्विन शुक्ला १५, ८ अक्टूबर १९९५, पृष्ठ संख्या ४८ है।
१०८. पंचपरमेष्ठी विधान-हस्तिनापुर में वीर सं. २५०३, सन् १९७७ में आश्विन शुक्ला दशमी को यह विधान पूर्ण किया। पंचपरमेष्ठी जैनधर्म के मूल आधार हैं। प्रत्येक संज्ञी जीव (मनुष्य या तिर्यंच) इन्हीं का नाम जपकर, पूजा भक्ति करके अपने पापों का नाश करते हैं। इस विधान में भी पंचपरमेष्ठी के गुणों की आराधना की गई है। प्रथम संस्करण वीर संवत् २५०८ में, मार्च १९८२ में, पृष्ठ संख्या ६८ है।
१०९. सहस्रनाम विधान-टिवैâतनगर (बाराबंकी-उ.प्र.) में वीर सं. २५२०, सन् १९९४ के चातुर्मास में भाद्रपद कृ. २ को यह विधान प्रारंभ कर आश्विन शु. १५, शरदपूर्णिमा वीर सं. २५२०, सन् १९९४ में पूर्ण किया। इसमें भगवान के १००८ मंत्रों की पूजा है। इसमें ११ पूजाएँ हैं, १००८ अर्घ्य एवं १२ जयमालाएँ हैं। इन मंत्रों की आराधना, उपासना, पूजा से मन की शुद्धि एवं स्मरणशक्ति बढ़ती है। प्रथम संस्करण-वीर नि. सं. २५२१, वीर शासन जयंती, श्रावण कृ. एकम् १३ जुलाई १९९५, पृष्ठ संख्या १६० है।
११०. बीस तीर्थंकर विधान-हस्तिनापुर में कार्तिक कृष्णा एकम् से प्रारंभ कर कार्तिक कृष्णा सप्तमी वीर सं. २५०३ सन् १९७७ में यह विधान पूर्ण किया। तीस चौबीसी विधान के अंत में २४५ पृष्ठ पर विद्यमान बीस तीर्थंकर विधान (लघु) छपा हुआ है। यह विधान अभी अलग से छपने के लिए प्रकाशनाधीन है। पाँच महाविदेहों में ४-४ तीर्थंकर आज भी विहार कर रहे हैं। इस विधान में विद्यमान बीस तीर्थंकर पूजा एवं बीस तीर्थंकरों के अर्घ्य एवं १ पूर्णार्घ्य और जयमाला है।
१११. चौबीस तीर्थंकर विधान-वीर सं. २५१९, मगसिर वदी तेरस, सन् १९९३ में यह विधान पूर्ण किया। यह विधान अभी जम्बूद्वीप पूजांजलि में पृष्ठ ३३१ से पृष्ठ ४५२ तक छपा हुआ है। इसे पूज्य माताजी ने ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन के विशेष आग्रह से बनाया है। इसमें सर्वप्रथम मंगल स्तोत्र के बाद चौबीस तीर्थंकर समुच्चय पूजा, उसके बाद चौबीसों भगवान की पूजा, पंचकल्याणक के अर्घ्य एवं जयमालाएं हैं। अंत में बड़ी जयमाला एवं प्रशस्ति है।
११२. यागमण्डल विधान-राजधानी दिल्ली-कनॉट प्लेस के चातुर्मास में वीर सं. २५२५, फाल्गुन कृष्णा चौदस, सन् १९९९ में यह विधान लिखकर पूर्ण किया। प्रतिष्ठातिलक नामक प्राचीन प्रतिष्ठा ग्रंथ में यह यागमण्डल विधान संस्कृत भाषा में निबद्ध है। श्री नेमिचन्द्रदेव द्वारा रचित उसी यागमण्डल पूजा-विधान का पूर्ण आधार लेकर ही पूज्य माताजी ने अत्यल्प समय में उसकी हिन्दी पद्य रचना प्राञ्जल भाषा में करके इसे सर्वजन सुलभ बना दिया है। इस विधान में कुल ९ पूजाएँ हैं तथा २१० अर्घ्य और १२ पूर्णार्घ्य हैं। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५२५, श्रुतपंचमी १८ जून १९९९, पृष्ठ सं. १६८ है।
११३. पंचमेरु विधान-हस्तिनापुर में वीर सं. २५०३, माघ शु. सप्तमी, सन् १९७७ में व्रत उद्यापन के निमित्त यह विधान रचा। अढ़ाई द्वीप में सुदर्शन मेरु आदि पाँच मेरु अवस्थित हैं। प्रत्येक मेरु के चार-चार वन में १६-१६ अकृत्रिम चैत्यालय हैं। इस प्रकार ८० चैत्यालयों में विराजमान अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं की इसमें पूजा की गई है। आज इन पंचमेरुओं के साक्षात् दर्शन की शक्ति नहीं है अत: इनकी भक्तिभाव से पूजा करके साक्षात् दर्शनों का लाभ प्राप्त किया जा सकता है, इन्हीं भावों से माताजी ने इस विधान की रचना की है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१४, सन् १९८८ में, पृष्ठ संख्या ६४ है।
११४. जम्बूद्वीप पूजांजलि-दिगम्बर जैन पूजा एवं नित्यपाठ विषयक गुटके व जिनवाणी संग्रह प्राचीन समय से हस्तलिखित व छपे हुए प्रकाशित होते रहे हैं। फिर भी भक्तों का वर्षों से आग्रह था कि माताजी की लिखी हुई पूजाओं का संग्रह जम्बूद्वीप संस्थान से प्रकाशित किया जावे। तदनुसार जम्बूद्वीप पूजांजलि नाम से प्राचीन एवं नवीन पूजाओं, स्तुति एवं स्तोत्रों का मिला-जुला प्रकाशन प्रथम संस्करण वीर सं. २५१४, नवम्बर १९८८ में प्रकाशित हुआ। पृष्ठ संख्या ५४० है।
११५. शांति विधान-दिल्ली-कूचासेठ में वीर संवत् २५०६, वैशाख शुक्ला दशमी, सन् १९८० में यह विधान लिखा। सुख, शांति की प्राप्ति के लिए भगवान शांतिनाथ की पूजा है, इसमें १२० अर्घ्य हैं। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०६, सन् १९८० में, पृष्ठ संख्या ४८ है।
११६. ऋषिमंडल विधान-दिल्ली-कूचा सेठ में वीर सं. २५०६, चैत्र शुक्ला द्वितीया सन् १९८० में यह विधान लिखा। यह विधान दिगम्बर जैन समाज में चिरकाल से प्रसिद्ध है। सुख, शांति व समृद्धि के लिए इस विधान का पूजन व ऋषिमण्डल स्तोत्र का पाठ किया जाता है। माताजी ने विधान पूजन व स्तोत्र भी हिन्दी में बना दिया है, जिससे पढ़ने वालों को विशेष आनन्द प्राप्त होता है। प्रथम संस्करण का प्रकाशन वीर सं. २५०७, सन् १९८१ में, पृष्ठ संख्या ५२ है।
११७. जम्बूद्वीप पूजन विधान-अकृत्रिम जिन चैत्यालयों की भक्ति से सराबोर होकर जम्बूद्वीप रचना निर्माण कराने की अतिउत्कट भावना से पूज्य माताजी ने हस्तिनापुर के प्राचीन शांतिनाथ जिनालय में भगवान के समक्ष बैठकर जीवन में पहली बार पूजन की रचना की। वीर सं. २५००, सन् १९७४ में हस्तिनापुर में आषाढ़ शु. १ को रात्रि में विधान बनाया। प्रात: आषाढ़ शु. २ को जयमाला पूर्ण की। दो घंटे बाद ही जंबूद्वीप बनाने के लिए जगह (खेत) खरीदने हेतु बयाना दिया गया एवं आषाढ़ शु. ३ को सुमेरुपर्वत का शिलान्यास कराकर माताजी ने दिल्ली की ओर विहार कर दिया। इसके बाद तो माताजी ने अनेकों पूजाएँ व विधानों की रचना की। इस लघु विधान में जम्बूद्वीप के ७८ अकृत्रिम जिनचैत्यालयों के अतिरिक्त जम्बूद्वीप में स्थित समस्त देव भवनों में विराजमान अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं की भी पूजा दी गई है। प्रथम संस्कर वीर सं. २५००, सितम्बर १९७४ में, पृष्ठ संख्या ६४ है।
११८. सुदर्शन मेरु पूजा-पूज्य माताजी द्वारा लिखित सुदर्शन मेरु पूजा एवं सुमेरु वंदना के अतिरिक्त अन्य लेखकों की कविताएँ व भजन भी इसमें दिये गये हैं। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०६, सन् १९८० में, पृष्ठ संख्या ५४ है।
११९. श्री ऋषभदेव विधान-अयोध्या महातीर्थ में वीर सं. २५१९, शरदपूर्णिमा के दिन सन् १९९३ में यह ऋषभदेव विधान पूज्य माताजी ने लिखकर पूर्ण किया। इस विधान में पाँच वलय के माध्यम से अर्घ्यों का विभाजन किया है। प्रथम वलय में ४६ गुणों में ४६ अर्घ्य, द्वितीय में १८ दोषों से रहित अर्हन्त के १८ अर्घ्य, तृतीय में ४८ प्रकार के संकटों के निवारण हेतु ४८ अर्घ्य, चतुर्थ में भगवान के ८४ गणधरों के ८४ अर्घ्य तथा पंचम वलय में सिद्धपद के ८ गुणों के प्रतीक में ८ अर्घ्य हैं। इस प्रकार पूरे विधान में एक पूजा, २०४ अर्घ्य तथा ५ पूर्णार्घ्य हैं। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५२३, दशलक्षण पर्व सन् १९९७, पृष्ठ संख्या ५४ है।
१२०. श्री नेमिनाथ विधान-हस्तिनापुर में वीर सं. २५३१, श्रावण शुक्ला षष्ठी तिथि में सन् २००५ में श्री नेमिनाथ विधान की रचना की। इस पूजा विधान में भगवान नेमिनाथ की पूजा के साथ १०८ मंत्र के अर्घ्य हैं। भगवान नेमिनाथ निर्वाण भूमि गिरनार सुरक्षा दिवस के उपलक्ष्य में गिरनार पर्वत की रक्षा हेतु पूज्य माताजी ने यह विधान रचा है। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५३२, मगसिर कृष्णा दशमी-भगवान महावीर दीक्षा तिथि, २७ जनवरी २००५, पृष्ठ संख्या ६४ है।
१२१. मनोकामनासिद्धि भगवान महावीर व्रत एवं महावीर पूजा-वीर सं. २५२६, सन् २०००, भगवान महावीर स्वामी के २६००वें जन्मजयंती वर्ष में यह पुस्तक लिखी। इसमें भगवान महावीर स्वामी की पूजा एवं महावीर व्रत के १०८ मंत्र हैं और महावीर स्वामी का परिचय है। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५२७, आश्विन शु. ५, २१ अक्टूबर २००१, पृष्ठ संख्या २४ है।
१२२. श्री वीरगुणसंपद् विधान-प्रयाग तीर्थ पर वीर सं. २५२८, मगसिर शुक्ला पूर्णिमा, सन् २००२ भगवान महावीर स्वामी के २६००वें जन्मकल्याणक उत्सव पर इस विधान को लिखकर पूर्ण किया। यह विधान विश्वशांति महावीर विधान का लघुरूप है। इसमें महावीर स्वामी की पूजा एवं १००८ नाम मंत्र के अघ्य& हैं। इस मण्डल विधान में दस कोठों में प्रत्येक कोठे में सौ-सौ अघ्य& और अंतिम कोष्ठक में १०८ अघ्य& चढ़ाए जाते हैं। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५२८, माघ कृ. १४, श्री ऋषभदेव निवा&ण दिवस, १० फरवरी २००२, पृष्ठ संख्या ७२ है।
१२३. महावीर समवसरण विधान-भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर में वीर सं. २५२९, आषाढ़ सुदी छठ, सन् २००३ को ‘वीरशासन जयंती’ के निमित्त से पूज्य माताजी ने यह विधान लिखकर पूण& किया। २००३ में माताजी के सानिध्य में वीरशासन जयंती पव& समारोह राजगृही में विपुलाचल पव&त पर धूमधाम से मनाया गया था। इस विधान में भगवान महावीर के समवसरण की महिमा का सुन्दर वण&न किया है। इसमें एक पूजा एवं १२१ अघ्य& तथा १० पूणा&घ्य& हैं। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५२९, शरदपूणि&मा-१० अक्टूबर २००३, पृष्ठ संख्या ४८ है।
१२४. जिनगुणसंपत्ति विधान-हस्तिनापुर में वीर नि.सं. २५०३, वैशाख सुदी पूणि&मा, सन् १९७७ में यह जिनगुणसम्पत्ति विधान लिखकर पूण& किया। इस विधान में जिनगुणसंपद, सोलहकारण, पंचकल्याणक, अष्टमहाप्रातिहाय&, १० जन्मातिशय, १० केवलज्ञानातिशय, १४ सुदेवकृत अतिशय, इस प्रकार सात वलय में ६३ महावैभवशाली गुणों की अचा& आराधना है। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५११, पौष शुक्ला पूणि&मा, जनवरी १९८५, पृष्ठ संख्या ४८ है।
१२५. श्री पाश्व&नाथ विधान-भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर, नंद्यावत& महल में चातुमा&स के मध्य वीर सं. २५२९, श्रावण शुक्ला एकम्, सन् २००३ में श्री पाश्व&नाथ विधान पूण& हुआ। इसमें भगवान पाश्व&नाथ के १०८ मंत्र के अघ्य& हैं। भगवान पाश्व&नाथ का यह लघु विधान सभी के रोग-शोक, दुख, दारिद्र्य को हरने वाला है। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५२९, पौष कृष्णा एकादशी, १९ दिसम्बर २००३, पृष्ठ संख्या ४८ है।
१२६. तीस चौबीसी विधान-हस्तिनापुर में श्रावण शुक्ला १, वीर सं. २५०३, सन् १९७७ में प्रारंभ कर काति&क कृ. अमावस्या, वीर सं. २५०३, सन् १९७७ में पूण& किया। इस विधान में पंचमेरुसंबंधि वत&मान, भूत एवं भविष्यत्कालीन तीस चौबीसी के ७२० तीथं&करों की पूजाएँ हैं। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०७, जनवरी १९८१ में, पृष्ठ संख्या २४४ है।
१२७. आचाय& श्री शांतिसागर विधान-भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर में वीर सं. २५३०, आषाढ़ वदी छट्ठ, ८ जून २००४ में यह विधान लिखा। ‘गुरुणां गुरु’ चारित्रचक्रवती& आचाय&श्री शांतिसागर जी महाराज बीसवीं सदी के प्रथम आचाय& हुए हैं। पूज्य माताजी ने इनके दश&न किये। इनकसे अनुभव ज्ञान प्राप्त किया एवं कुुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र पर इनकी सल्लेखना देखी है। इस विधान में २१६ अघ्य&, १ पूणा&घ्य& और १ जयमाला है।
१२८. विषापहार विधान-जम्बूद्वीप, हस्तिनापुर में वीर सं. २५३२, माघ कृष्णा तृतीया, सन् २००६ को यह विधान लिखकर पूण& किया। श्री धनंजय कवि विरचित ‘विषापहार स्तोत्र’ पर यह विधान रचा है। इसमें विषापहार पूजा, ४८ अघ्य& १ पूणा&घ्य& और एक जयमाला है। जिस विषापहार स्तोत्र की रचना से धनंजय कवि के पुत्र पर चढ़ा सप& का विष उतर गया था, उस स्तोत्र पर रचित विधान को लगातार ४० दिन करने से रोग, शोक, दरिद्रता दूर होकर स्वस्थ शरीर की प्राप्ति होती है। प्रथम संस्करण वीर नि. सं. २५३२, आषाढ़ शु. १५, ११ जुलाई २००६, पृष्ठ संख्या ४८ है।
१२९. भगवान बाहुबली विधान-जम्बूद्वीप स्थल हस्तिनापुर पर वीर सं. २५३२, माघ शु. १३, सन् २००६ में यह विधान पूण& किया। वीर सं. २५३२, ८ फरवरी से १९ फरवरी २००६ तक श्रवणबेलगोल तीथ& पर होने वाले भगवान बाहुबली के महामस्तकाभिषेक के अवसर पर पूज्य माताजी ने यह विधान रचा। जिसे पूज्य माताजी के संघ की ब्रह्मचारिणी बहनों ने २१ फरवरी २००६ को श्रवणबेलगोला तीथ& पर जाकर भगवान बाहुबली के सामने किया। इसमें श्री बाहुबली वंदना, श्री बाहुबली पूजा, १५६ अघ्य&, ४ पूणा&घ्य& और १ जयमाला है।
१३०. श्री सरस्वती विधान-वीर नि. सं. २५३०, काति&क शुक्ला पूणि&मा को भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर में इस विधान को लिखकर पूण& किया। इसमें सरस्वती माता की पूजा, १०८ मंत्रों के १०८ अघ्य&, १ पूणा&घ्य& और जयमाला है। सरस्वती स्तोत्र संस्कृत एवं हिन्दी में है। सरस्वती माता की आरती के साथ ही पूज्य आयि&का श्री चंदनामती माताजी द्वारा रचित सरस्वती चालीसा भी है। इसका प्रथम संस्करण वीर नि. सं. २५३३, पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के क्षुल्लिका दीक्षा दिवस के अवसर पर प्रकाशित हुआ। इसमें कुल ४० पृष्ठ हैं।
१३१. श्री समवसरण विधान-जम्बूद्वीप स्थल हस्तिनापुर में वीर सं. २५३२, पौष शुक्ला चौदस, सन् २००६ को यह विधान लिखकर पूण& किया। इसमें २४ तीथं&करों के समवसरण की पूजा है। इसमें १४ पूजा, ७६० अघ्य&, १६ पूणा&घ्य&, १४ जयमाला और १ बड़ी जयमाला है। इसमें माताजी ने २३ प्रकार के छंदों का प्रयोग किया है। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५३२, चैत्र कृष्णा एकम्, १५ माच& २००६, पृष्ठ संख्या २१२ है।
१३२. गणधरवलय विधान-जम्बूद्वीप स्थल हस्तिनापुर में वीर संवत् २५१९, पौष शुक्ला पूणि&मा, सन् १९९३ को माताजी ने यह विधान लिखकर पूण& किया। इस विधान में गणधरवलय के ४८ मंत्रों के माध्यम से ४८ ऋद्धियों को नमन किया है। इसे करने से रोग, शोक, दरिद्रता, मानसिक पीड़ा आदि सभी संकट दूर हो जाते हैं तथा दीघा&यु, उत्तम स्वास्थ्य, सुकीति&, वैभव, संपत्ति आदि सभी मनोवाञ्छाएँ पूण& हो जाती हैं। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५२५, शरदपूर्णिमा-२४ अक्टूबर १९९९, पृष्ठ संख्या ५६ है।
१३३. आचार्य श्री वीरसागर विधान-हस्तिनापुर तीर्थ पर वीर सं. २५३२, चैत्र शुक्ला एकम्, सन् २००६ में पूज्य माताजी ने यह विधान पूर्ण किया। इसमें २१६ अर्घ्य, १ पूर्णार्घ्य और एक जयमाला है। चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के ये पट्टशिष्य आचार्य हुए हैं एवं पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के आर्यिका दीक्षागुरु थे। उनकी भक्ति से प्रेरित होकर पूज्य माताजी ने यह विधान बनाया है। प्रथम संस्करण वीर नि. सं. २५३२, १५ अप्रैल २००६, पृष्ठ संख्या ४८ है।
१३४. अयोध्या तीर्थक्षेत्र पूजा-वीर सं. २५१९, सन् १९९३ में अयोध्या तीर्थ पर पूज्य माताजी ने यह पुस्तक लिखी। इसमें अयोध्या तीर्थक्षेत्र पूजा के साथ अयोध्या में जन्में भगवान ऋषभदेव, अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ और अनन्तनाथ इन पाँच तीर्थंकरों की पूजा एवं उनकी स्तुति है। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५१९, शरद पूर्णिमा, ३० अक्टूबर १९९३, पृष्ठ संख्या ६२ है।
१३५. अहिच्छत्र पूजा संग्रह-भगवान महावीर के २६००वें जन्मजयंती महोत्सव वर्ष में इस पुस्तक का प्रकाशन हुआ। इस पुस्तक में मंगलाष्टक, पंचामृत अभिषेक पाठ, तीस चौबीसी पूजन, बीस तीर्थंकर पूजा, श्री अहिच्छत्र पार्श्वनाथ पूजा आदि अनेक विषय संग्रहीत हैं। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५२८, अप्रैल २००२, पृष्ठ संख्या १६८ है।
१३६. दशलक्षण धर्म पूजा-पूजा-विधान के क्षेत्र में माताजी ने अभूतपूर्व क्रांति उत्पन्न कर दी है। नित्य नियम पूजा में देव-शास्त्र-गुरु पूजा की जगह बहुतायत से अब माताजी द्वारा लिखी हुई नवदेवता पूजा नगर-नगर में होने लगी है। इसी शृँखला में पूज्य माताजी ने दशलक्षण धर्म की पूजा सरस छंदों में लिखी है। पुस्तक के अंत में आर्यिका श्री चंदनामती माताजी कृत चौबीस तीर्थंकर समन्वित ‘‘ह्री ँ’’ की पूजा दी गई है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१६, भादों सुदी पंचमी, २५ अगस्त १९९०, पृष्ठ संख्या २४ है।
१३७. दीपावली पूजन-कई वर्षों से जैन समाज में जैन पद्धति से दीपावली पूजन करने हेतु पुस्तक की आवश्यकता प्रतीत हो रही थी, जिसकी पूर्ति माताजी ने कर दी। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१७, नवम्बर १९९१, पृष्ठ संख्या ४० है। इसका कन्नड़ में अनुवाद भी हुआ है, जो कि छप चुका है।
१३८. सम्मेदशिखर टोंक पूजन-पूज्य माताजी ने महान सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखर की भक्ति से ओत-प्रोत होकर वहाँ की प्रत्येक टोंक के अर्घ्य चढ़ाने के लिए सुन्दर पद्य बनाए हैं। अर्घ्यों के पश्चात् बख्तावर कवि रचित प्रचलित पार्श्वनाथ पूजा एवं शांति विसर्जन पाठ दिया गया है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१४, १९८८ में, पृष्ठ संख्या ६८ है।
१३९. मण्डल विधान प्रारंभ एवं हवन विधि–मंडल विधानों के प्रारंभ में सकलीकरण, मंडपप्रतिष्ठा, इन्द्रप्रतिष्ठा आदि कराने की विधि वैसे तो विस्तारपूर्वक प्रतिष्ठाग्रंथों में दी गई है किन्तु उतनी बड़ी विधि छोटे विधानों में करा पाना कठिन है तथा आज विधि विधान कराने वाले विद्वानों का संस्कृत भाषा का ज्ञान भी अल्प है अत: माताजी ने अधिकांश का हिन्दी पद्यानुवाद कर दिया है तथा क्रियाओं के कराने का संकेत भी हिन्दी में दे दिया है। जिससे कि कराने वाले तथा करने वाले उन क्रियाओं को अच्छी तरह से समझ जाते हैं। पुस्तक के अंत में हवन कराने की विधि व हवन कुंंड बनाने के चित्र भी दिये हैं। इस प्रकार विधिविधान कराने की यह एक प्रामाणिक पुस्तक तैयार हो गई है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१४, जनवरी १९८८ में, पृष्ठ संख्या १२८ है।
१४०. हस्तिनापुर पूजा-हस्तिनापुर क्षेत्र की पूजन, आदिनाथ, भरत, बाहुबली पूजन तथा शांति, कुंथु, अरनाथ की पूजन दी गई हैं, ये सभी पूजाएँ माताजी द्वारा रचित हैं। पूजाओं को पढ़ने से तत् संबंधी पूर्ण परिचय प्राप्त हो जाता है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५११, २८ अप्रैल १९८५ में, पृष्ठ संख्या २४ है।
१४१. जम्बूद्वीप पूजा एवं भक्ति-जम्बूद्वीप के कृत्रिम-अकृत्रिम जिनालयों की एक पूजा तथा जिनालयों की एवं सुमेरु की भक्ति पूज्य माताजी द्वारा रचित है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५११, अप्रैल १९८५ में, पृष्ठ संख्या ३२ है।
१४२. श्री ऋषभदेव पूजा-वीर सं. २५२६, सन् २०००, भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महोत्सव वर्ष के अन्तर्गत यह पुस्तक लिखी। इसमें नवदेवता पूजा, ऋषभदेव पूजा, वैâलाशपर्वत की पूजा एवं निर्वाणकाण्ड है। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५२६, माघ कृ. १४, ४ फरवरी २०००, पृष्ठ संख्या २४ है।
१४३. बाहुबली स्तोत्र एवं पूजा-इसमें दिया गया ४४ पद्यों में संस्कृत में रचित बाहुबली स्तोत्र माताजी ने वीर सं. २४९१, सन् १९६५ में श्रवणबेलगोला में लिखा था, तभी छप भी गया था। यह पुनर्मुद्रण है। अंत में बाहुबली की पूजा है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०७, सन् १९८१ में, पृष्ठ संख्या ६८ है।
१४४. बाहुबली पूजा-भगवान बाहुबली सहस्राब्दि महामस्तकाभिषेक के पावन प्रसंग पर इस छोटी सी पुस्तिका का प्रकाशन किया गया। इसमें भगवान बाहुबली की पूजन के अतिरिक्त बाहुबली अष्टक एवं कई आरतियाँ दी गई हैं। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०७, सन् १९८१ में, पृष्ठ संख्या ३२ है।
१४५. अभिषेक एवं पूजा-इस पुस्तक में पूजामुख विधि, पूजा अन्त्यविधि प्रतिष्ठातिलक से लेकर माताजी ने उसका हिन्दी पद्यानुवाद किया है, पंचामृत अभिषेक पाठ हिन्दी पद्यानुवाद तथा माताजी द्वारा ही रचित कुछ पूजाएँ हैं, जो कि अच्छी लय में बनाई गई हैं, भावपूर्ण भी हैं। पृष्ठ संख्या ९६ है।
१४६. तीर्थंकर त्रय पूजा-भगवान शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ की सामूहिक पूजा व अलग-अलग पूजा, भगवान बाहुबली की पूजा तथा हस्तिनापुर क्षेत्र का संक्षेप में प्राचीन-अर्वाचीन परिचय दिया है। सभी पूजाएँ माताजी द्वारा रचित हैं। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०७, सन् १९८१ में, पृष्ठ संख्या ४० है।
१४७. नित्य पूजा-इस पुस्तक में सर्वजनप्रिय नवदेवता पूजन, सिद्ध पूजा एवं बाहुबली पूजा तथा कुछ भजन व आरती हैं। तीनों पूजाएँ पूज्य माताजी द्वारा रचित हैं। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०६, सन् १९८० में, पृष्ठ संख्या २८ है।
१४८. श्री जिनसहस्रनाम व्रत विधि व पूजा-(सन् १९५५, म्हसवड़ चातुर्मास में रचित)-वीर सं. २४८१, सन् १९५५ में सर्वप्रथम म्हसवड़ चातुर्मास में भगवान के १००८ नाम मंत्रों को बनाकर माताजी ने लेखनी प्रारंभ की। म्हसवड़ चातुर्मास में छपी सबसे प्रथम पुस्तक है। इसमें जिनसहस्रनाम विधि, श्री जिनसहस्रनाम पूजा, संस्कृत में १००८ मंत्र एवं आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज की यमसल्लेखना पर पूज्य माताजी द्वारा क्षुल्लिका वीरमती की अवस्था में प्रस्तुत की गई श्रद्धांजलि है। पृष्ठ संख्या २० है।
१४९. व्रत विधि एवं पूजा-दिगम्बर जैन समाज में विधिपूर्वक व्रतों को करने की अतिप्राचीन परम्परा है। इस पुस्तक में णमोकार व्रत, जिनगुणसंपत्ति, रोहिणी, पंचपरमेष्ठी एवं सप्तपरमस्थान व्रतों में की जाने वाली पूजाएँ दी हैं, जो कि पूज्य माताजी द्वारा बनाई गई हैं। इन व्रतों की विधि, व्रतों से संबंधित जाप्य मंत्र तथा कुछ की संक्षिप्त कथा भी दी है। इनके अतिरिक्त वृहत्पल्य व्रत की विधि भी दी गई है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०३, सन् १९७७ में, पृष्ठ संख्या ५२ है।
१५०. व्रत विधि सुमनावलि:-(सन् १९६६, सोलापुर चातुर्मास में प्रकाशित)-इसमें चक्रवाल व्रतविधि, वृहत्पल्य व्रत-विधि, मुष्टितंदुल व्रतविधि, नंदीश्वर पंक्ति व्रतविधि, मेरुपंक्ति व्रतविधि, कर्मनिर्जरा व्रतविधि, मंगल त्रयोदशी व्रतविधि एवं सप्तपरमस्थान व्रतविधि है। प्रथम संस्करण-वीर सं. २४९३, सन् १९६६ में सोलापुर से प्रकाशित है। पृष्ठ संख्या ५० है।
१५१. जिनस्तवन माला-जयपुर (राज.) के चातुर्मास में वीर सं. २४९५ सन् १९६९ में यह पुस्तक रची। इसमें माताजी की रचित ९ स्तुतियों का संकलन है। पूज्य माताजी ने अपने जीवन में अनेक संस्कृत, हिन्दी स्तुतियों का सृजन किया है। माताजी ने प्रारंभ से ही भक्तिमार्ग को प्राथमिकता दी। भगवान जिनेन्द्र की भक्ति से बड़े से बड़े संकट दूर हो जाते हैं तथा सभी प्रकार से सुख, सम्पत्ति, संतति की प्राप्ति होती है। माताजी द्वारा रचित कुछ स्तुतियों को वीर सं. २४९५, सन् १९६९ में जयपुर चातुर्मास में इसके प्रथम संस्करण में प्रकाशित किया था। पृष्ठ संख्या ६० है।
१५२. श्री वीरजिन स्तुति-वीर सं. २४९३, सन् १९६७ में सोलापुर चातुर्मास के मध्य शरदपूर्णिमा के अवसर पर अपने जीवन के ३६ वर्ष की पूर्णता पर पूज्य माताजी द्वारा ३६ पद्यों में भगवान महावीर की गुणस्तुति रूप में लिखी गई भावांजलि, २८ पद्यों की जम्बूद्वीप स्तुति तथा ५ पद्यों की मंगल स्तुति इस लघुकाय पुस्तक में दी गई है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५००, विजयदशमी, अक्टूबर १९७४, पृष्ठ संख्या ३२ है। इस स्तुति के ऊपर आर्यिका श्री चंदनामती माताजी ने संस्कृत एवं हिन्दी टीका लिखी है, जो ‘महावीर स्तोत्र’ नाम से अक्टूबर २००३ में प्रकाशित हुई है।
१५३. बाहुबली स्तोत्र (कन्नड़ भाषा में)-(सोलापुर से प्रकाशित)-वीर सं. २४९१, सन् १९६५, श्रवणबेलगोला तीर्थ पर चातुर्मास के मध्य पूज्य माताजी ने कन्नड़ भाषा में बाहुबली स्तोत्र लिखा। इसमें बाहुबली स्तोत्र, चन्द्रप्रभ स्तुति, णमोकार मंत्र का माहात्म्य, बारह भावना सभी कन्नड़ में अनुवादित हैं। प्रकाशन-वीर सं. २४९१, सन् १९६७, पृष्ठ संख्या ५२ है।
१५४. बाहुबली स्तुति (कन्नड़ में)-(श्रवणबेलगोला से प्रकाशित)-वीर सं. २४९१, सन् १९६५, श्रवणबेलगोला तीर्थ पर पूज्य माताजी ने यह पुस्तक कन्नड़ में लिखी। इसमें बाहुबली स्तुति, भक्तामर स्तोत्र, जिनगुणसम्पत्ति व्रतकथा, बारहभावना, दशलक्षण, आकाशपंचमी, पुष्पांजलि, सुगंधदशमी, रत्नत्रय व्रत, णमोकार व्रत, लब्धि विधान व्रत आदि व्रतों की विधि और मंत्र, उद्यापन विधि है। प्रकाशन-वीर सं. २४९१, सन् १९६५, पृष्ठ संख्या ४० है।
१५५. प्रयाग तीर्थ वंदना-वीर सं. २५२६, सन् २००० में पूज्य माताजी ने यह पुस्तक लिखी। इसमें माताजी ने प्रयाग तीर्थ का परिचय, प्रयाग तीर्थ स्तुति एवं श्री ऋषभदेवजिन स्तोत्र दिया है। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५२७, माघ कृष्णा १४़, २३ जनवरी २००१, पृष्ठ संख्या २४ है।
१५६. भक्ति पल्लवी-(सन् १९६७, सनावद चातुर्मास के मध्य प्रकाशित) इस पुस्तक में पात्रकेसरी स्तोत्र, सिद्धक्षेत्र वंदना, त्रिलोक चैत्यवंदना, सम्मेदशिखर वंदना और शांतिजिनस्तवन है। यह पुस्तक इंदौर से प्रकाशित है। प्रथम संस्करण-वीर सं. २४९३, १ जुलाई १९६७, पृष्ठ संख्या ४० है।
१५७. वन्दना सुमनावलि:-(सन् १९६६ सोलापुर चातुर्मास में प्रकाशित)-इस पुस्तक में त्रैलोक्य चैत्यवंदना (संस्कृत) श्री सम्मेदशिखर वंदना (संस्कृत), सिद्धक्षेत्र वंदना, त्रैलोक्य चैत्यवंदना, श्री सम्मेदशिखर वंदना, कवलचांद्रायण व्रत-विधि, संस्कृत में चांद्रायण व्रतोद्यापन विधान है। प्रथम संस्करण-वीर सं. २४९२, अक्टूबर १९६६ में, पृष्ठ संख्या ३८ है।
१५८. भक्ति कुसुमावली-वीर सं. २४९१, सन् १९६५ से १९६७ के मध्य माताजी ने जो हिन्दी-संस्कृत की स्तुतियाँ बनाई थीं, उनमें से ६ स्तुतियाँ इसमें दी गई हैं, जो कि नित्य पाठ करने लायक हैं। प्रथम संस्करण ‘‘भक्ति सुमनावली’’ नाम की पुस्तक के रूप में सोलापुर (महा.) से वीर सं. २४९१, सन् १९६५ में प्रकाशित हुआ था। पृष्ठ संख्या ६२ है।
१५९. भक्तिसुधा-लगभग १२ संस्कृत-हिन्दी स्तुतियों को इसमें पूज्य माताजी ने संकलित किया है। इसका प्रथम संस्करण वीर सं. २४९७, सन् १९७१ में प्रकाशित किया गया था। पुन: कतिपय परिवर्तन-परिवर्द्धन के साथ इस पुस्तक का द्वितीय संस्करण मई १९९२ में प्रकाशित हुआ है। पृष्ठ संख्या ४० है।
१६०. चतुर्विंशति तीर्थंकर स्तुति-जम्बूद्वीप स्थल हस्तिनापुर में वीर संवत् २५०१, श्रावण शुक्ला पूर्णिमा, गुरुवार, सन् १९७५ में चतुर्विंशति तीर्थंकर स्तुति की रचना पूर्ण की। शंभु छंद में रचित इन स्तुतियों में प्रत्येक तीर्थंकर के नाम, उनके चिन्ह, माता-पिता के नाम, जन्मनगरी और निर्वाणभूमि के नाम, पाँचों कल्याणक की तिथियाँ, शरीर की ऊँचाई, शरीर का वर्ण, आयु, वंश इत्यादि समस्त इतिहास भरा हुआ है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५२५, श्रावण शुक्ला पूर्णिमा, २६ अगस्त, १९९९, पृष्ठ संख्या ५६ है।
१६१. प्रतिष्ठातिलक-श्री नेमिचन्द्र सैद्धान्तिकदेव द्वारा रचित (प्रतिष्ठा ग्रंथों में अति प्राचीन एवं आगम परम्परा द्वारा मान्यता प्राप्त) प्रतिष्ठातिलक नामक ग्रंथ का मराठी से हिन्दी में भावानुवाद पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने सन् १९९२-९३ में किया था किन्तु कारणवश उसका प्रकाशन ८ अक्टूबर २००६ में हुआ है। ४८० पृष्ठ के इस ग्रंथ में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा की समस्त अन्तरिम विधि के साथ-साथ बाह्य प्रदर्शन के नाटक आदि भी सम्मिलित हैं तथा प्रतिष्ठा में प्रयुक्त होने वाले अनेकानेक यंत्रों को भी इसमें सम्मिलित किया गया है। प्रथम संस्करण का प्रकाशन वीर नि. सं.२५३२, ७ अक्टूबर २००६, शरदपूर्णिमा को हुआ।
१६२. पात्रकेसरी स्तोत्र-श्री पात्रकेसरी आचार्य ने ५० श्लोकों में अर्हंतदेव की स्तुति करते हुए अन्य सम्प्रदायों का निराकरण करके जैन सम्प्रदाय को सार्वभौम धर्म सिद्ध किया है। इस स्तुति का माताजी द्वारा रचित पद्यानुवाद स्तुति के भाव को अच्छा प्रस्फुटित कर रहा है।
१६३. मूलाचार का सार-मुनियों के आचार ग्रंथों में सर्वोपरि गं्रथ मूलाचार का सार माताजी द्वारा लिखित है। इस पूरे ग्रंथ का सार लेकर नवनीतरूप में यह मूलाचार का सार बनाया है। इसको पढ़कर मूलाचार ग्रंथ का स्वाध्याय करने में बहुत ही सरलता रहेगी।
१६४. षट्आवश्यक क्रिया-इस पुस्तक में मूलाचार ग्रंथ के आधार से मुनि-आर्यिकाओं की छह आवश्यक क्रियाओं का बहुत ही सुन्दर विवेचन है।
१६५. नवदेवता विधान-ढाई द्वीप में एक सौ सत्तर कर्मभूमियाँ है, इनमें होने वाले अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य और चैत्यालय इन नवदेवताओं की इस विधान में छह पूजाएँ हैं।
१६६. आगम दर्पण-वर्तमान में दिगम्बर सम्प्रदाय में तेरहपंथ और बीसपंथ चल रहे हैं। इस छोटी सी पुस्तक में जैन शास्त्रों के आधार से पूजाविधि का वर्णन है, अत: इसका आगमदर्पण यह नाम सार्थक है।
१६७. गणधरवलय मंत्र (अर्थ सहित)-धवला पुस्तक नवमी के आधार से ‘णमो जिणाणं’ आदि गणधरवलय मंत्रों के अर्थ का सुंदर विवेचन है। कई एक प्रकरण बहुत महत्वपूर्ण हैं।
१६८. दिगम्बर जैनाचार्य-श्री गुणधर आचार्य, श्री धरसेनाचार्य आदि प्राचीन महान् ऐसे १४ आचार्यों का जीवनवृत्त वर्णित है।
१६९. सप्तपरमस्थान-महापुराण के आधार से सज्जाति, सद्गार्हस्थ आदि सात परमस्थानों का विवेचन है। एक-एक विषय को पुष्ट करने हेतु जयधवला आदि अन्य गं्रथों के उद्धरण भी दिये गये हैं।
१७०. व्रतविधि एवं पूजा (भाग-२)-इसमेंं मुक्तावली आदि व्रतों की विधि एवं उन व्रत संबंधी पूजाएँ भी दी गई हैं। इसमें रोहिणी व्रत की विधि भी दी गई है।
१७१. गृहस्थ धर्म-इसमें वसुनन्दि श्रावकाचार आदि के आधार से गृहस्थ के धर्म-कर्त्तव्य का संक्षिप्त व सरल विवेचन है।
१७२. जैनदर्शन-इसमें जैनदर्शन के मूल ऐसे कर्म सिद्धान्त का संक्षिप्त व सरल विवेचन है।
१७३. दिव्यध्वनि-अरिहंत देव की दिव्यध्वनि कब, वैâसे व कितनी भाषाओं में खिरती है? इसका सरल विवेचन है।
१७४. श्री मुनिसुव्रतनाथ विधान
१७५. मध्यलोक विधान
१७६. तीन चौबीसी विधान
१७७. ७२० तीर्थंकर विधान
१७८. कर्मदहन विधान
१७९. पुण्यास्रव विधान
१८०. भगवान बाहुबली विधान
१८१. णमोकार महामंत्र-एक अध्ययन
१८२. सम्यक्त्व-प्राभृतादिसार
१८३. सुदं मे आउस्संतो!
१८४. द्वादशांग श्रुतज्ञान का विषय
१८५. त्रैलोक्य जिनालय व्रत आदि संग्रह
१८६. पार्श्वनाथ व्रत
१८७. चारित्रलब्धि व्रत
१८८. तीस चौबीसी व्रत
१८९. पुण्यास्रव व्रत
१९०. चौंसठऋद्धि व्रत एवं गणधरवलय व्रत
१९१. तीन चौबीसी व्रत
१९२. पंचकल्याणक व्रत
१९३. पंचमकाल के अंत तक चतुर्विध संघ
१९४. जैन ग्रंथों के अध्ययन का क्रम
१९५. मुनि दीक्षा विधि
१९६. उपासक धर्म