-लावनी छंद-
श्री योगी विष्णकुमार बाल वैरागी।
पाई वह पावन ऋद्धि विक्रिया जागी।।
सुन मुनियों पर उपसर्ग स्वयं अकुलाये।
हस्तिनापुर वे वात्सल्य-भरे हिय आये।।
कर दिया दूर सब कष्ट साधना-बल से।
पा गये शान्ति सब साधु अग्नि के झुलसे।।
जन जन ने जय-जयकार किया मन भाया।
मुनियों को दे आहार स्वयं भी पाया।।
हैं वे मेरे आदर्श सर्वदा स्वामी।
मैं उनकी पूजा करूँ बनूँ अनुगामी।।
वे दें मुझमें यह शक्ति भक्ति प्रभु पाऊँ।
मैं कर आतम कल्याण मुक्त हो जाऊँ।।
ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमारमुने! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमारमुने! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमारमुने! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
श्रद्धा की वापी से निर्मल, भाव भक्ति जल लाऊँ।
जनम मरण मिट जायें मेरे, इससे विनत चढ़ाऊँ।।
विष्णुकुमार मुनीश्वर वन्दूँ, यति-रक्षा हित आये।
यह वात्सल्य हृदय में मेरे, अभिनव ज्योति जगाये।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमारमुनये जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि धीरज से सुरभित, समता चन्दन लाऊँ।
भव-भव की आताप न हो, यह इससे विनत चढ़ाऊँ।।
विष्णुकुमार मुनीश्वर वन्दूूँ, यति-रक्षा हित आये।
यह वात्सल्य हृदय में मेरे, अभिनव ज्योति जगाये।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमारमुनये संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्द्रकिरण सम आशाओं के, अक्षत सरस नवीने।
अक्षय पद मिल जाये मुझको, गुरु सन्मुख धर दीने।।
विष्णुकुमार मुनीश्वर वन्दूँ, यति-रक्षा हित आये।
यह वात्सल्य हृदय में मेरे, अभिनव ज्योति जगाये।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमारमुनये अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
उर उपवन से चाह सुमन चुन, विविध मनोहर लाऊँ।
व्यथित करे नहिं काम वासना, इससे विनत चढ़ाऊँ।।
विष्णुकुमार मुनीश्वर वन्दूँ, यति-रक्षा हित आये।
यह वात्सल्य हृदय में मेरे, अभिनव ज्योति जगाये।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमारमुनये कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नव नव व्रत के मधुर रसीले, मैं पकवान बनाऊँ।
क्षुधा न बाधा यह दे पाये, इससे विनत चढ़ाऊँ।।
विष्णुकुमार मुनीश्वर वन्दूँ, यति-रक्षा हित आये।
यह वात्सल्य हृदय में मेरे, अभिनव ज्योति जगाये।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमारमुनये क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मैं मन का मणिमय दीपक ले, ज्ञान-वातिका जारूँ।
मोह-तिमिर मिट जाये मेरा, गुरु सन्मुख उजियारूँ।।
विष्णुकुमार मुनीश्वर वन्दूँ, यति-रक्षा हित आये।
यह वात्सल्य हृदय में मेरे, अभिनव ज्योति जगाये।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमारमुनये मोहतिमिरविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
ले विराग की धूप सुगंधित, त्याग धुपायन खेऊँ।
कर्म आठ का ठाठ जलाऊँ, गुरु के पद नित सेऊँ।।
विष्णुकुमार मुनीश्वर वन्दूँ, यति-रक्षा हित आये।
यह वात्सल्य हृदय में मेरे, अभिनव ज्योति जगाये।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमारमुनये अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजा सेवा दान और, स्वाध्याय विमल फल लाऊँ।
मोक्ष विमल फल मिले इसी से, विनत गुरू पद ध्याऊँ।।
विष्णुकुमार मुनीश्वर वन्दूँ, यति-रक्षा हित आये।
यह वात्सल्य हृदय में मेरे, अभिनव ज्योति जगाये।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमारमुनये मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
यह उत्तम वसु द्रव्य संजोये, हर्षित भक्ति बढ़ाऊँ।
मैं अनर्घपद को पाऊँ, गुरुपद पर बलि बलि जाऊँ।।
विष्णुकुमार मुनीश्वर वन्दूँ, यति-रक्षा हित आये।
यह वात्सल्य हृदय में मेरे, अभिनव ज्योति जगाये।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमारमुनये अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा- श्रावण-शुक्ला पूर्णिमा, यति रक्षा दिन जान।
रक्षक विष्णु मुनीश की, यह गुणमाल महान।।
-पद्धड़ी छंद-
जय योगिराज श्रीविष्णु धीर, आकर तुम हर दी साधु-पीर।
हस्तिनापुर में आये तुरंत, कर दिया विपत का शीघ्र अन्त।।
वे ऋद्धि सिद्धि-साधक महान्, वे दयावान वे ज्ञानवान।
धर लिया स्वयं वामन सरूप, चल दिये विप्र बनकर अनूप।।
पहुँचे बलि नृप के राजद्वार, वे तेज-पुंज धर्मावतार।
आशीष दिया आनन्दरूप, हो गया मुदित सुन शब्द भूप।।
बोला वर मांगो विप्रराज, दूँगा मनवांछित द्रव्य आज।
पग तीन भूमि याची दयाल, बस इतना ही तुम दो नृपाल।।
नृप हँसा समझ उनको अजान, बोला यह क्या, लो और दान।
इससे कुछ इच्छा नहीं शेष, बोले वे ये ही दो नरेश।।
संकल्प किया दे भूमिदान, ली वह मन में अति मोद मान।
प्रगटाई अपनी ऋद्धि सिद्धि, हो गई देह की विपुल वृद्धि।।
दो पग में नापा जग समस्त, हो गया भूप बलि अस्त-व्यस्त।
इक पग को दो अब भूमिदान, बोले बलि से करुणा-निधान।।
नत मस्तक बलि ने कहा अन्य, है भूमि न मुझ पर हे अनन्य।
रख लें पग मुझ पर एक नाथ, मेरी हो जाये पूर्ण बात।।
कहकर तथास्तु पग दिया आप, सह सका न बलि वह भार-ताप।
बोला तुरंत ही कर विलाप, कर दें अब मुझको क्षमा आप।।
मैं हूँ दोषी मैं हूँ अजान, मैंने अपराध किया महान्।
ये दुखित किये सब साधु-संत, अब करो क्षमा हे दयावन्त।।
तब की मुनिवर ने दया-दृष्टि, हो उठी गगन से महावृष्टि।
पा गये दग्ध वे साधु-त्राण, जन-जन के पुलकित हुए प्राण।।
घर-घर में छाया मोद-हास, उत्सव ने पाया नव प्रकाश।
पीड़ित मुनियों का पूर्णमान, रख मधुर दिया आहार दान।।
युग-युग तक इसको रहे याद, कर सूत्र बंधाया साह्लाद।
बन गया पर्व पावन महान, रक्षाबंधन सुन्दर निधान।।
वे विष्णु मुनीश्वर परम सन्त, उनकी गुण-गरिमा का न अन्त।
वे करें शक्ति मुझको प्रदान, ‘कुमरेश’ प्राप्त हो आत्मज्ञान।।
घत्ता- श्री मुनि विज्ञानी, आतम-यानी, मुक्ति-निशानी सुख-दानी।
भव-ताप विनाशे, सुगुण प्रकाशे, उनकी करुणा कल्यानी।।
ॐ ह्रीं श्री विष्णुकुमारमुनये महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा– विष्णुकुमार मुनीश को, जो पूजे धर प्रीत।
वह पावे ‘कुमरेश’ शिव, और जगत में जीत।।
।।इत्याशीर्वाद:।।