(टीकाद्वय-संयुक्तम्)
इस स्तोत्र को जो लगातार एक माह तक प्रतिदिन दिन में तीन बार पढ़ेंगे, वे निश्चित ही आरोग्य लाभ प्राप्त करेंगे, श्वांस, कास, कुष्ठ आदि भयंकर से भयंकर रोग शांत होंगे।
इसकी विधि-जिस माह स्तोत्र पाठ करना है, रात्रि में चतुर्विध भोजन का त्याग करें। नित्य देवदर्शन व पूजा करें तथा शुद्ध वस्त्र पहनकर स्तोत्र पाठ करें-
एकीभावं गत इव मया य: स्वयं कर्म-बन्धो
घोरं दु:खं भव-भव-गतो दुर्निवार: करोति।
तस्याप्यस्य त्वयि जिन-रवे! भक्तिरुन्मुक्तये चेज्-
जेतुं शक्यो भवति न तया कोऽपरस्तापहेतु:।।१।।
वादिराज मुनिराज के, चरण कमल चित लाय।
भाषा एकीभाव की, करूँ स्वपर सुखदाय।।
जो अति एकीभाव भयो मानो अनिवारी।
सो मुझ कर्म प्रबंध करत भव भव दुख भारी।।
ताहि तिहारी भक्ति जगतरवि जो निरवारै।
जो अब और कलेश कौन सो नांहि विदारे।।१।।
ॐ ह्रीं एकीभावसदृशकर्मबंधनाशनसमर्थाय श्रीतीर्थंकर-परमदेवाय नम:।
ज्योतीरूपं दुरित-निवहध्वान्त-विध्वंस-हेतुं
त्वामेवाहुर्जिनवर! चिरं तत्त्व-विद्याभियुक्ता:।
चेतोवासे भवसि च मम स्फार-मुद्भासमान-
स्तस्मिन्नंह: कथमिव तमो वस्तुतो वस्तुमीष्टे।।२।।
तुम जिन ज्योतिस्वरूप, दुरित अंधियार निवारी।
सो गणेश गुरु कहै, तत्त्व विद्या-धन धारी।।
मेरे चित-घरमाँहि, बसौ तेजोमय यावत।
पापतिमिर अवकाश, तहाँ सो क्यों कर पावत।।२।।
ॐ ह्रीं हृदयस्थितपापान्धकारविनाशनसमर्थाय ज्योतीरूपाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
आनन्दाश्रु-स्नपित-वदनं गद्गदं चाभिजल्पन्
यश्चायेत त्वयि दृढ-मना: स्तोत्र-मन्त्रैर्भवन्तम्।
तस्याभ्यस्तादपि च सुचिरं देह-वल्मीक-मध्यान्-
निष्कास्यन्ते विविध-विषम-व्याधय: काद्रवेया:।।३।।
आनंद आँसु वदन धोय तुमसों चित सानै,
गद्गद सुरसो सुयशमंत्र पढ़ि पूजा ठानै।
ताके बहुविधि व्याधि व्याल चिरकालनिवासी,
भाजें थानक छोड़ देह-वाँबई के वासी।।३।।
ॐ ह्रीं स्तोत्रमंत्रप्रभावेनदेहस्थविषमव्याधिनिष्कासनसमर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
प्रागेवेह त्रिदिव-भवनादेष्यता भव्यपुण्यात्
पृथ्वी-चक्रं कनकमयतां देव! निन्ये त्वयेदम्।
ध्यान-द्वारं मम रुचिकरं स्वान्त-गेहं प्रविष्ट-
स्तत्किं चित्रं जिन! वपुरिदं यत्सुवर्णीकरोषि।।४।।
दिवितैं आवनहार भये भविभाग उदयबल,
पहले ही सुरआय कनकमय कीय महीतल।
मनगृहध्यानदुवार आय निवसो जगनामी,
जो सुवरन तन करो कौन यह अचरज स्वामी।।४।।
ॐ ह्रीं गर्भावतारप्राक्पृथ्वीकनकमयकरणसमानभाक्तिक-तनुसुवर्णी-करणसमर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
लोकस्यैकस्त्वमसि भगवन्निर्निमित्तेन बन्धु-
स्त्वय्येवासौ सकल-विषया शक्तिरप्रत्यनीका।
भक्ति-स्फीतां चिरमधिवसन्मामिकां चित्त-शय्यां
मय्युत्पन्नं कथमिव तत: क्लेश-यूथं सहेथा:।।५।।
प्रभु सब जग के बिना हेत, बाँधव उपकारी,
निरावरण सर्वज्ञ शक्ति जिनराज तिहारी।
भक्ति रचित ममचित्त सेज नितवास करोगे,
मेरे दुख-संताप देख किम धीर धरोगे।।५।।
ॐ ह्रीं भक्तजनहृदयस्थिततत्सर्वक्लेशविनाशनसमर्थाय श्रीतीर्थंकर-परमदेवाय नम:।
जन्माटव्यां कथमपि मया देव! दीर्घं भ्रमित्वा,
प्राप्तैवेयं तव नय-कथा स्फार-पीयूष-वापी।
तस्या मध्ये हिमकर-हिम-व्यूह-शीते नितान्तं,
निर्मग्नं मां न जहति कथं दु:ख-दावोपतापा:।।६।।
भव वन में चिरकाल भ्रम्यो कछु कहिय न जाई,
तुम थुति कथा पियूष वापिका भागन पाई।
शशितुषार धनसार हार शीतल कहिं जासम
करत न्हौन तामांहि क्यों न भवताप बुझै मम।।६।।
ॐ ह्रीं त्वन्नयकथापीयूषवापीमध्यनिर्मग्नभाक्तिक-दु:खदावोपतापशांत-करणसमर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
पाद-न्यासादपि च पुनतो यात्रया ते त्रिलोकीं
हेमाभासो भवति सुरभि: श्रीनिवासश्च पद्म:।
सर्वाङ्गेण स्पृशति भगवंस्त्वय्यशेषं मनो मे
श्रेय: किं तत्स्वयमहरहर्यन्न मामभ्युपैति।।७।।
श्री विहार परिवाह होत शुचिरूप सकल जग।
कमल कनक आभाव सुरभि श्रीवास धरत पग।।
मेरी मन सर्वंग परस प्रभु को सुख पावे।
अवसो कौन कल्यान जोन दिन दिन ढिग आवै।।७।।
ॐ ह्रीं पादन्यासस्थलस्वर्णकमलमिवत्वत्स्पृशन्ममभक्तस्य-सर्वश्रेय:-प्रदायकाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
पश्यन्तं त्वद्वचनममृतं भक्ति-पात्र्या पिबन्तं
कर्मारण्यात्पुरुषमसमानन्द-धाम-प्रविष्टम्।
त्वां दुर्वार-स्मर-मद-हरं त्वत्प्रसादैक-भूमिं
क्रूराकारा: कथमिव रुजा कण्टका निर्लुठन्ति।।८।।
भवतज सुखपद बसे काममद सुभट संहारे।
जो तुमको निरखंत सदा प्रियदास तिहारे।।
तुम वचनामृतपान भक्ति अंजुलिसों पीबै।
तिन्हें भयानक क्रूररोगरिपु वैâसे छीवै।।८।।
ॐ ह्रीं भक्तिपात्र्यात्वद्वचनामृतपिबन्भाक्तिक दुर्वाररोगनिवारण-समर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
पाषाणात्मा तदितरसम: केवलं रत्न-मूर्ति-
र्मानस्तम्भो भवति च परस्तादृशो रत्न-वर्ग:।
दृष्टिं प्राप्तो हरति स कथं मान-रोगं नराणां
प्रत्यासत्तिर्यदि न भवतस्तस्य तच्छक्ति-हेतु:।।९।।
मानथंभ पाषान आन पाषान पटंतर।
ऐसे और अनेक रतन दीखैं जग अंतर।।
देखत दृष्टि प्रमान मान मद तुरत मिटावै।
जो तुम निकट न होय शक्ति यह क्योंकर आवै।।९।।
ॐ ह्रीं मानस्तम्भसदृश-त्वत्समीपत्वप्राप्तभाक्तिकजनमानरोगहरण-समर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
हृद्य: प्राप्तो मरुदपि भवन्मूर्ति-शैलोपवाही
सद्य: पुंसां निरवधि-रुजा धूलिबन्धं धुनोति।
ध्यानाहूतो हृदय-कमलं यस्य तु त्वं प्रविष्ट-
स्तस्याशक्य: क इह भुवने देव! लोकोपकार:।।१०।।
प्रभुतन पर्वतपरस पवन उर में निवहै है।
तासों तताfछन सकल रोगरज बाहिर ह्वै है।।
जाके ध्यानाहूत बसो उर अंबुज माहीं।
कौन जगत उपकार करन समरथ सो नाहीं।।१०।।
ॐ ह्रीं त्वन्मूर्तिस्पर्शितवायुना निरवधिरोगधूलिधुन्वन्समर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
जानासि त्वं मम भवे-भवे यच्च यादृक्च दु:खं
जातं यस्य स्मरणमपि मे शस्त्रवन्निष्पिनष्टि।
त्वं सर्वेश: सकृप इति च त्वामुपेतोऽस्मि भक्त्या
यत्कर्तव्यं तदिह विषये देव! एव प्रमाणम्।।११।।
जनम जनम के दु:ख सहे सब ते तुम जानो।
याद किये मुझ हिये लगैं आयुध से मानों।।
तुम दयाल जग पाल स्वामि मैं शरण गही है।
जो कुछ करनी होय करो परमान वही है।।११।।
ॐ ह्रीं भाक्तिकजनभव-भवदु:खनिवारणसमर्थपरमदयालुसर्वेशाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
प्रापद्दैवं तव नुति-पदैर्जीवकेनोपदिष्टै:
पापाचारी मरण-समये सारमेयोऽपि सौख्यम्।
क: सन्देहो यदुपलभते वासव-श्री-प्रभुत्वं
जल्पञ्जाप्यैर्मणिभिरमलैस्त्वन्नमस्कार-चक्रम्।।१२।।
मरण समय तुम नाम मंत्र जीवकर्तै पायो।
पापाचारी श्वान प्रान तज अमर कहायो।।
जो मणिमाला लेय जपै तुम नाम निरंतर।
इन्द्र सम्पदा लहै कौन संशय इस अन्तर।।१२।।
ॐ ह्रीं मणिजयमालिकयात्वन्नमस्कारमंत्रजपद्भाक्तिकगणस्वर्ग-लक्ष्मीप्रभुत्वकरणसमर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
शुद्धे ज्ञाने शुचिनि चरिते सत्यपि त्वय्यनीचा
भक्तिर्नो चेदनवधि-सुखावञ्चिका कुञ्चिकेयम्।
शक्योद्धाटं भवति हि कथं मुक्ति-कामस्य पुंसो
मुक्ति-द्वारं परिदृढ-महामोह-मुद्रा-कवाटम्।।१३।।
जो नर निर्मल ज्ञान मान शुचि चारित साधै।
अनवधि सुख की सार भक्ति वूँâची नहिं लाघै।।
सो शिव वाँछक पुरुष मोक्षपट केम उघारै।
मोह मुहर दिढ़ करी मोक्ष मंदिर के द्वारै।।१३।।
ॐ ह्रीं अनवधिस्-त्वदुत्कृष्टभक्तिकुञ्चिकानिमित्तेनमुक्तिद्वारोद्घाटन-कारणसमर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
प्रच्छन्न: खल्वयमघमयैरन्धकारै: समन्तात्
पन्था मुक्ते: स्थपुटित-पद: क्लेश-गर्तैरगाधै:।
तस्कस्तेन व्रजति सुखतो देव! तत्त्वावभासी
यद्यग्रेऽग्रे न भवति भवद्भारती रत्न-दीप:।।१४।।
शिवपुर केरो पंथ पापतमसों अति छायो।
दुखसरूप बहू कूप खांडसों बिकट बतायो।।
स्वामी सुखसों तहाँ कौन जन मारक लागैं।
प्रभु-प्रवचन मणि दीप जोत के आगैं आगैं।।१४।।
ॐ ह्रीं भवद्भारतीरत्नदीपेन मुक्तिपथावलोकनसामर्थ्यप्रदायकाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
आत्म-ज्योतिर्निधि-रनवधि-र्द्रैष्टुरानन्द-हेतु:
कर्म-क्षोणी-पटल-पिहितो योऽनवाप्य: परेषाम्।
हस्ते कुर्वन्त्यनतिचिरतस्तं भवद्भक्तिभाज:
स्तोत्रैर्बंध-प्रकृति-परुषोद्दाम-धात्री-खनित्रै:।।१५।।
कर्म पटल भूमाँहि दबी आतमनिधि भारी।
देखत अति सुख होय विमुखजन नाँहि उघारी।।
तुम सेवक तत्काल ताहि निहचै कर धारै।
थुति कुदालसों खोद बंधभू कठिन विदारै।।१५।।
ॐ ह्रीं कर्मक्षोणीपिहितात्मज्योतीनिधिप्रदायकाय श्रीतीर्थंकर-परमदेवाय नम:।
प्रत्युत्पन्ना नय-हिमगिरे-रायता चामृताब्धे-
र्या देव! त्वत्पद-कमलयो: संगता भक्ति-गङ्गा
चेतस्तस्यां मम रुचि-वशादाप्लुतं क्षालितांह:
कल्माषं यद्भवति किमियं देव! सन्देह-भूमि:।।१६।।
स्याद्वाद गिरि उपज मोक्ष सागर लोें धाई।
तुम चरणाम्बुज परस भक्ति गंगा सुखदाई।।
मोचित निर्मल थयो न्होन रुचि पू ख तामैं।
सो वह हो न मलीन कौन जिन संशय यामैं।।१६।।
ॐ ह्रीं त्वद्भक्तिगंगामध्यावगाहकभक्तगणसर्वकल्मषक्षालनसमर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
प्रादुर्भूत-स्थिर-पद-सुखं त्वामनुध्यायतो मे
त्वय्येवाहं स इति मतिरुत्पद्यते निर्विकल्पा।
मिथ्यैवेयं तदपि तनुते तृप्ति-मभ्रेषरूपां
दोषात्मानोऽप्यभिमत-फलास्त्वत्प्रसादाद् भवन्ति।।१७।।
तुम शिवसुखमय प्रगट करत प्रभुचिंतन तेरो।
मैं भगवान समान भाव यों वरतै मेरो।।
यदपि झूठ है तदपि तृप्ति निश्चल उपजावै।
तुम प्रसाद सकलंक जीव वांछित फल पावै।।१७।।
ॐ ह्रीं त्वद्ध्यायन्भाक्तिकस्य सोऽहमितिमतिप्रदायकाय श्रीतीर्थंकर-परमदेवाय नम:।
मिथ्यावादं मल-मपनुदन्सप्तभङ्गी-तरङ्गै-
र्वागम्भोधि-र्भुवन-मखिलं देव! पर्येति यस्ते।
तस्यावृत्तिं सपदि विबुधाश्-चेतसैवाचलेन
व्यातन्वन्त: सुचिर-ममृतासेवया तृप्नुवन्ति।।१८।।
वचन जलधि तुम देव सकल त्रिभुवन में व्यापै।
भंग तरंगिनि विकथ वाद मल मलिन उथापै।।
मन सुमेरु सों मथे ताहि जे सम्यग्ज्ञानी।
परमामृत सों तृषित होंहि ते चिरलों प्रानी।।१८।।
ॐ ह्रीं सप्तभंगीतरंगयुत-त्वद्वाक्समुद्रमंथनोद्भवपरमामृतप्रापकाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
आहार्येभ्य: स्पृहयति परं य: स्वभावादहृद्य:,
शस्त्र-ग्राही भवति सततं वैरिणा यश्च शक्य:।
सर्वाङ्गेषु त्वमसि सुभगस्त्वं न शक्य: परेषां
तत्किं भूूषा-वसन-कुसुमै: किं च शस्त्रैरुदस्त्रै:।।१९।।
जो कुदेव छवि होन वसन भूषण अभिलाखैं।
बैरी सों भयभीत होय सो आयुध राखैं।।
तुम सुन्दर सर्वांग शत्रु समरथ नहिं कोई।
भूषण वसन गदादि ग्रहण काहे को होहि।।१९।।
ॐ ह्रीं शस्त्रवसनभूषाविरहितपरमसुंदरस्वरूपाय श्रीतीर्थंकर-परमदेवाय नम:।
इन्द्र: सेवां तव सुकुरुतां किं तया श्लाघनं ते
तस्यैवेयं भव-लय-करी श्लाघ्यता-मातनोति।
त्वं निस्तारी जनन-जलधे: सिद्धि-कान्ता-पतिस्त्वं
त्वं लोकानां प्रभुरिति तव श्लाघ्यते स्तोत्रमित्थम्।।२०।।
सुरपति सेवा करै कहा प्रभु प्रभुता तेरी।
सो सलाघनाल है मिटै जगसौं जग फेरी।।
तुम भवजलधि जिहाज तोहि शिवकंत उचरिए।
तुही जगत जन पाल नाथ थुति की थुति करिए।।२०।।
ॐ ह्रीं भवसमुद्रपारंगतसिद्धिकान्तापतित्रैलोक्यप्रभुस्तुतिश्लाघनाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
वृत्तिर्वाचामपर-सदृशी न त्वमन्येन तुल्य:
स्तुत्युद्गारा: कथमिव ततस्त्वय्यमी न: क्रमन्ते।
मैवं भूवंस्तदपि भगवन्! भक्ति-पीयूष-पुष्टा-
स्ते भव्यानामभिमत-फला: पारिजाता भवन्ति।।२१।।
वचन डाल जड़रूप आप चिन्मूरति झांई।
तातें थुति आलाप नाहि पहुँचे तुम तांई।।
तो भी निष्फल नाँहि भक्तिरस भीने वायक।
संतन को सुरतरु समान वांछित वर दायक।।२१।।
ॐ ह्रीं भक्तिपीयूषपुष्टभव्यगणाभिमतफलप्रदपारिजाताय श्रीतीर्थंकर-परमदेवाय नम:।
कोपावेशो न तव न तव क्वापि देव! प्रसादो
व्याप्तं चेतस्तव हि परमोपेक्षयै-वानपेक्षम्।
आज्ञावश्यं तदपि भुवनं सन्निधि-र्वैर-हारी,
क्वैवं भूतं भुवन-तिलकं प्राभवं त्वत्परेषु।।२२।।
कोम कभी नहीं करो प्रीति कबहूँ नहिं धारी।
अति उदास वेचाह चित्त जिनराज तिहारो।।
तदपि जान जग वहै वैर तुम निकट न लहिए।
यह प्रभुता जगतिलक कहाँ तुम बिन सरदहिये।।२२।।
ॐ ह्रीं कोपप्रसादविरहितपरमोपेक्षि-भुवनतिलकप्राभवसहिताय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
देव! स्तोतुं त्रिदिव-गणिका-मण्डली-गीत-कीर्ति
तोतूर्ति त्वां सकल-विषय-ज्ञान-मूर्तिर्जनो य:।
तस्य क्षेमं न पदमटतो जातु जोहूर्ति पन्था-
स्तत्त्वग्रन्थ-स्मरण-विषये नैष मोमूर्ति मर्त्य:।।२३।।
सुरतिय गावैं सुयश सर्वगति ज्ञानस्वरूपी।
जो तुमको थिर होंहि नमैं भवि आनन्द रूपी।।
ताहि क्षेमपुर चलन वाट बाकी नहिं हो है।
श्रुत के सुमरनमाँहि सो न कबहूँ नर मोहै।।२३।।
ॐ ह्रीं सकलतत्त्वग्रन्थस्मरणविषयिबुद्धिप्रदायकाय श्रीतीर्थंकर-परमदेवाय नम:।
चित्ते कुर्वन्निरवधि-सुख-ज्ञान-दृग्वीर्य-रूपं
देव! त्वां य: समय-नियमादाऽऽदरेण स्तवीति।
श्रेयोमार्गं स खलु सुकृतिस्तावता पूरयित्वा,
कल्याणानां भवति विषय: पञ्चधा पञ्चितानाम्।।२४।।
अतुलचतुष्ट्य रूप तुम्हें जो चितमें धारै।
आदरसों तिहुंकालमाँहि जग थुति विस्तारै।।
सो सुकृती शिव पंथ भक्ति रचना कर पूरै।
पंचकल्यानक ऋद्धि पाय निहचै दुख चूरै।।२४।।
ॐ ह्रीं अनंतसुखज्ञानदृग्वीर्यरूपाय भाक्तिकजनपञ्चकल्याण-प्रदायकाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
भक्ति-प्रह्व-महेन्द्र-पूजित-पद! त्वत्कीर्तने न क्षमा:
सूक्ष्म-ज्ञान-दृशोऽपि संयमभृत: के हन्त मन्दा वयम्।
अस्माभि: स्तवन-च्छलेन तु परस्त्वय्यादरस्तन्यते
स्वात्माधीन-सुखैषिणां स खलु न: कल्याण-कल्पद्रुम:।।२५।।
अहो जगत पति पूज्य अवधिज्ञानी मुनि हारे।
तुम गण कीर्तनमाँहि कौन हम मन्द विचारे।।
थुति छलसों तुम विषै देव आदर विस्तारे।
शिव सुख पूरनहार कल्पतरु यही हमारे।।२५।।
ॐ ह्रीं स्वात्माधीनसुखेच्छुकजनकल्याणकल्पद्रुमाय श्रीतीर्थंकर-परमदेवाय नम:।
-स्वागता छंद-
वादिराजमनु शाब्दिक-लोको, वादिराजमनु तार्किक-सिंह:।
वादिराजमनु काव्यकृतस्ते, वादिराजमनु भव्य-सहाय:।।२६।।
वादिराज मुनि तै अनु, वैयाकरणी सारे।
वादिराज मुनितै, अनु तार्किक विद्यावारे।।
वादिराज मुनि तै अनु है काव्यन के ज्ञाता।
वादिराज मुनि तै अनु हैं भविजन के त्राता।।२६।।
-दोहा-
मूल अर्थ बहुविध कुसुम, भाषा सूत्र मंझार।
भक्तिमाल भूधर करी, करो कंठ सुखकार।।
ॐ ह्रीं शाब्दिक-तार्किक-काव्यकृत-भव्यगणोत्कृष्टश्रीवादिराज-सूरिकृतएकीभावस्तोत्रस्वामिने श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।