१.अलोकाकाश और लोकाकाश।
२. लोक की स्थिति और भेद।
३. मध्यलोक में जम्बूद्वीप, जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र।
४. भरतक्षेत्र में अयोध्या, तीर्थंकरों की जन्म नगरी।
५. आज भरत का ‘भारत’
६. अयोध्या-लखनऊ-बाराबंकी-टिकेटनगर
७. टिकेटनगर-धार्मिक नगर।
८. टिकेटनगर में चरितनायिका के पूर्वज आदि।
९. चरितनायिका के माता-पिता।
१०. चारितनायिका का परिवार-एक विहंगमदृष्य।
११. श्री छोटेलाल-माँ मोहिनीदेवी-एक परिचय।
(ज्ञानमती छंद)
श्री जिनेन्द्र षड्द्रव्य बताये, उनमें एक द्रव्य आकाश।
उसके भेद कहे दो जिनवर, लोकाकाश-अलोकाकाश।।
सकल द्रव्य जहाँ देखे जाते, वह कहलाता लोकाकाश।
जहाँ मात्र आकाश द्रव्य है, कहते उसे अलोकाकाश।।१।।
द्रव्य अलोकाकाश असीमित, दशों दिशाओं आर-न-पार।
अनंतप्रदेशी, द्रव्यवृहत्तम, रखता है अनंत विस्तार।।
छोटा छींका लटका रहता, वृहत् कक्ष के बीचों खास।
बस, वैसे ही लोक हमारा, स्थित मध्य अलोकाकाश।।२।।
अध: मध्य अरु ऊर्ध्व भाग में, लोक हमारा बँटा हुआ।
हाथ कमर पर, पग पैâलाये, कोई पुरुष ज्यों खड़ा हुआ।।
अधोलोक में रहें नारकी, मध्य मनुष-तिर्यंच निवास।
ऊर्ध्वलोक में सुरगण रहते, लोक अंत सिद्धों का वास।।३।।
द्वीप-समुद्र असंख्ये शोभें, मध्यलोक में वलयाकार।
जम्बूद्वीप बीच में स्थित, एक लाख योजन विस्तार।।
गिरि सुमेरु नाभि है इसकी, रखता झालर का आकार।
लवण समुद्र करधनी पहने, षड्गिरि, सप्तक्षेत्र हृदिधार।।४।।
सप्तक्षेत्र में प्रथमक्षेत्र है, नाम ‘भरत’ अतिशय सुंदर।
जम्बूद्वीप की दक्षिण दिक् में, शोभित यथा धनुष मनहर।।
गंगा-सिंधु-विजयार्द्ध गिरि से, भरतक्षेत्र बँटता छह भाग।
पाँच खंड रहते म्लेच्छ हैं, एक खंड आर्य बड़भाग।।५।।
वृषभनाथ के पुत्र ‘‘भरत’ ने, चक्रवर्ति का पद पाया।
भरतक्षेत्र के षट्खण्डों पर, केतु विजय का लहराया।।
वृषभाचल पर नामांकित कर, शासक बने भरत महाराज।
नाम ‘भरत’ से देश हमारा, कहलाता ‘भारत’ है आज।।६।।
आर्यखण्ड बड़भाग इसलिये, इसमें होते तीर्थंकर।
पुरुष शलाका पैदा होते, होते हैं उत्तम ऋषिवर।।
अनंतानंत चौबीसी आयीं, हुआ समय पर मोक्ष गमन।
वर्तमान में प्रथम तीर्थंकर, ‘वृषभ’ अयोध्या लिया जनम।।७।।
भोगभूमि का अंत हुआ जब, कल्पवृक्ष सब लुप्त हुये।
वृषभनृपति ने प्रजाजनों को, कर्म भूमि नव सूत्र दिये।।
प्रभु आज्ञा से इंद्र ने रचे, नगर अयोध्या जिनमंदिर।
कौशल-मालव-पल्लव आदिक, देश बनाये अति सुंदर।।८।।
लघू-वृहत् बहु ग्राम बनाये, खेटक-खर्वट-मडंब-द्रोण।
उनमें प्रजा व्यवस्थित करके, इंद्र किया सुरपुर को गौन।।
‘असि-मसि-कृषि-विद्या आदिक से, जीवनवृत्ति चलायें जन।
वर्णत्रय की करी व्यवस्था, वृषभनाथ-नरपति-भगवन्।।९।।
वर्ष असंख्ये बीत गये फिर, ‘महावीर’ का हुआ जनम।
अनादि-अनिधन वस्तुतत्त्व का, पुन: किया प्रभु उद्घाटन।।
श्रावक-साधु द्विविध धर्म का, दे उपदेश गये निर्वाण।
उनके पावन श्री चरणों में, सविनय बारम्बार प्रणाम।।१०।।
चक्र काल का कभी न रुकता, वह बढ़ता ही जाता है।
जो भविष्य है, वर्तमान बन, फिर अतीत हो जाता है।।
शासन सत्ता रहे बदलती, होते हैं उत्थान-पतन।
सीमाएँ भी रहें बदलतीं, होता उनका पुनर्गठन।।११।।
जब क्रमश: अतीत से बढ़ हम, वर्तमान में आते हैं।
राज्यों-नगरों-सब ग्रामों का, मेल ही भारत पाते हैं।।
सकल राज्य तो अंग हैं इसके, मिलकर बनता भारत देश।
है अनेकता बीच एकता, नूतन भारत का संदेश।।१२।।
रखे कमर पर हाथ, खड़े हों, बनती ‘भारत’ की तस्वीर।
पैर हमारे तमिलनाडु हैं, माथा है जम्मू-कश्मीर।।
गल पंजाब, पेट एम. पी. दाँयी कुहनी राजस्थान।
बाँयी ओर बिहार-उड़ीसा, दिल्ली दिल, यू.पी. है जान।।१३।।
यू.पी. की लखनऊ रजधानी, ‘बाराबंकी’ एक जिला।
‘टिवैâतनगर’ है कस्बा उसमें, मानो सुंदर सुमन खिला।।
शाश्वत तीर्थ ‘अयोध्या’ अंचल, बसा अवध की कहते शान।
धर्म ध्वजा हर घर पर फहरे, ‘टिवैâतनगर’ कस्बे का नाम।।१४।।
लखनऊ नवाब ‘आसिफ उद्दौला’, उनके आला रहे बजीर।
राजा ‘श्री टिवैâतराय’ ने, बसा, लिखी इसकी तकदीर।।
रही शताब्दी अट्ठारहवीं, उत्तरार्द्ध में जन्म हुआ।
धीरे-धीरे धर्म नींव पर, इसका उचित विकास हुआ।।१५।।
जैनी जन के सौ घर इसमें, दो जिनमंदिर आलीशान।
पच्चीस सहस्र की आबादी है, ‘‘चारित्र चंद्रिका जी’’ पहचान।।
मंदिर-शिखर दूर से दिखते, केशरिया लहराते हैं।
हिला-हिला कर दर्शन करने, हमको निकट बुलाते हैं।।१६।।
अहो! जिनालय अति ही सुंदर, बनीं वेदिका महामनोज्ञ।
उन पर जिनवर प्रतिमा शोभें, जुड़ते मन-वच-काय-त्रियोग।।
बीचों-बीच वेदिका ऊपर, पारसनाथ विराजे हैं।
डम-डम मुक्ति नगाड़े बजते, नित जिनके दरवाजे हैं।।१७।।
जैन समाज यहाँ की धार्मिक, प्रतिदिन जिनवर का अभिषेक।
तन्मय हो प्रभु पूजन करती, निज में जिन प्रतिमा को देख।।
जैन समाज उदार यहाँ की, साधुभक्त अतिशय गुणवान।
सदा-सदा आयोजित करती, पूजन-मंडल-महाविधान।।१८।।
गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती का, मंगलमय सानिध्य मिला।।
‘‘श्री महावीर जिनालय नूतन’’, अतिशयकारी कमल खिला।।
मंदिर-मूरत अति ही सुंदर, शिखर कलात्मक मनहारी।
श्रीमाताजी ज्ञानमती के, शुभाशीष की बलिहारी।।१९।।
इसी नगर रहते इक दम्पति, धन्य कुमार जी-फूलमती।
छोटेलाल सुपुत्र आपके, अद्वितीय, व्युत्पन्नमती।।
नाम था ‘छोटे’ किन्तु बड़े थे, उन था गुणसमूह का वास।
जिनवर दर्शन, पूजन करना, स्वाध्याय रुचि स्वर्ण सुवास।।२०।।
शांत-सरल-संतोषी प्राणी, दान-धर्म अतिशय उत्साह।
सन् उन्निस बत्तीस ईसवी, ‘छोटेजी’ का हुआ विवाह।।
अवधप्रांत में जिला सीतापुर, है महमूदाबाद मुकाम।
श्रावक थे ‘सुखपालदास’ जी, मत्तोदेवी’ पत्नी नाम।।२१।।
धर्मपरायण इस दम्पति का, धर्मयुक्त ही था हर काम।
समय प्राप्त जन्मी इक कन्या, रखा ‘‘मोहिनी देवी’’ नाम।।
धीरे-धीरे बड़ी हो गईं, पढ़ा-लिखा, स्वाध्याय किया।
‘पद्मनंदिपंचविंशतिका’ को पढ़, जीवन उद्धार किया।।२२।।
धार्मिक कन्या मोहिनी देवी, जिनप्रतिमा को साक्षी कर।
ब्रह्मचर्यव्रत आठें-चउदश, लिया शीलव्रत जीवन भर।।
सन् उन्नीस सौ बत्तीस ईसवी, ‘छोटेलाल’ संग हुआ विवाह।
पिता-पति कुल किया सुपावन, धर्म-कर्म, मन भर उत्साह।।२३।।
सुंदर जोड़ी मन को भाती, था प्रसन्न परिवार सभी।
क्या उपमा दें, समझ न आये, घर में दीपावली सजी।।
‘पद्मनंदिपंचविंशतिका’, मात-पिता ने दिया दहेज।
छोटेलाल-मोहिनीदेवी, सादर-सविनय रखा सहेज।।२४।।
प्राय: जन देते दहेज में, रुपया-पैसा-खेत-मकान।
किन्तु महज्जन संस्कार दे, संतति को करते गुणवान।।
लाला श्री सुखपालदास ने, बेटी को संस्कार दिये।
‘पद्मनंदिपंचविंशतिका’, ग्रंथ सदृश उपहार दिये।।२५।।
‘मोहिनीदेवी’ धर्म परायण, संस्कृति-शिष्ट-सुमहिला रत्न।
पद्मनंदिपंचविंशतिका, ज्ञान-चरित-हित किया प्रयत्न।।
जीवन एक महायात्रा है, पति-पत्नी हैं चक्र समान।
रखें समन्वय, तो फिर जीवन, बन जाता है सुख की खान।।२६।।
छोटेलाल-मोहिनीदेवी, का जीवन था ऐसा ही।
मिलकर रहे दूध-पानी ज्यों, रहा समय हो वैâसा ही।।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष ये, जिन पुरुषार्थ बताये चार।
अर्थ-काम पुरुषार्थ का पालन, श्लाघनीय धर्म अनुसार।।२७।।
अर्थ-काम में लिप्त हुए ना, रखकर धर्म-मोक्ष का ध्यान।
पहली पुत्री ‘मैना’ पायी, क्रमश: कुल तेरह सन्तान।।
चार पुत्र हैं, नौ हैं पुत्री, बेटा-बेटी एक समान।
नहीं पुत्रियाँ भारस्वरूपा, था उनका आदर्श महान।।२८।।
मैना-शांति-वैâलाश-श्रीमती, मनोवती व प्रकाश-सुभाष।
श्रीकुमुदनी-रवीन्द्र-मालती, कामिनी-माधुरी-त्रिशला खास।।
सब सन्तानें रत्न अमोलक, धार्मिकता से ओतप्रोत।
बनी हुई हैं जगज्जनों को, धर्म प्रेरणा-ऊर्जा स्रोत।।२९।।
उनमें पहली पुत्री अद्भुत, ‘मैना’ माता ‘ज्ञानमती’।
बालयोगिनी, चारित्रचंद्रिका, वरिष्ठ आर्यिका बीसशती।।
एक कुमारी ‘मनोवती’ हैं, आज आर्यिका ‘अभयमती’।
ज्ञान-ध्यान-तप में संलग्ना, संघ आर्यिका ज्ञानमती।।३०।।
जैसे कमल पंक से उठकर, ऊपर खिलता सरवर में।
तथा कुमारी श्री माधुरी, रमीं नहीं िंकचित् घर में।।
लघुवय वर्ष त्रयोदश में ही, आजन्म ब्रह्मचर्य धारा।
क्रमश: भाव विशुद्धि बढ़ाकर, पाने चलीं मोक्षद्वार।।३१।।
सन् उन्नीस सौ नवासी आया, आप आर्यिका दीक्षा ली।
हस्तिनागपुर तीर्थ माधुरी, हुईं ‘चंदना’ माताजी।।
गणिनी ज्ञानमती माता ने, दीक्षा दे उद्धार किया।
भववन भटके विपुल जनों का, माता ने उपकार किया।ा।३२।।
रवीन्द्रकुमार जी पुत्र श्री इक, ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर।
जैनधर्म-समाज सेवा में, रात्रि-दिवस रहते तत्पर।।
कर्म है पूजा, कभी न रुकते, सूझबूझ से लेते काम।
चलते रहते एक अकेले, ‘कर्मयोगी’ है सार्थक नाम।।३३।।
जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में, बना अनूठा धर्म स्थान।
निरतिचार व्रत पालन करते, रहते निरत स्व-पर कल्याण।।
स्वर्ग धरा पर, उपमा झूठी, होते साध्वी-संत नहीं।
धर्म साधना, साधन-सुविधा, है ऐसी अन्यत्र नहीं।।३४।।
तीन पुत्रियों, एक पुत्र ने, मोक्षसाधना स्वीकारी।
उत्तम गेही शेष बने हैं, सब हैं अणुव्रत के धारी।।
छोटेलाल-मोहिनीदेवी, ने अति धार्मिक कार्य किये।
करी अनेक तीर्थ यात्रा हैं, बढ़-चढ़ चउ विधि दान दिये।।३५।।
छोटेलाल-मोहिनीदेवी, द्वितिय रहा दोनों का क्रम।
पर उनकी जीवन-शैली को, अद्वितीय कह सकते हम।।
छोटे लाल का सन् उनहत्तर, हुआ शांतिमय समाधिमरण।
पंचनमस्कृति सुनते-सुनते, किया आपने स्वर्ग गमन।।३६।।
विदुषी महिला मोहिनीदेवी, किया पति को सम्बोधन।
अंतसमय तक रखा विरागी, सावधान जागृत-चेतन।।
जीव अकेला ही आता है, जाता आप अकेला है।
जीवन तो है आँख मिचौनी, चार दिनों का मेला है।।३७।।
माता – पिता, पुत्र – पुत्रियाँ, पत्नी – भगिनी – रिश्तेदार।
कोई साथ नहीं जा सकते, है सब स्वारथ का संसार।।
अत: उचित है मोह छोड़कर, पंचनमस्कृति जाप करें।
‘‘ज्ञानमती जी’ आशीष भेजा, कोई विकल्प न आप करें।।’’३८।।
जब हम जाते ग्राम निकट के, शकुन मनाते सभी प्रकार।
अत: जनक परलोक गमन में, करें न अशकुन किसी प्रकार।।
माताजी के वचन यादकर, सब समता से काम लिया।
जनक सामने रुदन न करके, समाधिमरण सहयोग किया।।३९।।
पति के जीवनकाल ‘मोहिनी’, पंचमप्रतिमा पालन की।
हुए दिवंगत यदा पतिश्री, सप्तम प्रतिमा धारण की।।
सन् उन्नीस इकहत्तर आया, सप्तपंचाशत आयु हती।
आचार्य श्री धर्मसागर से, हुईं आर्यिका ‘रत्नमती’।।४०।।
तेरह सन्तानों की माता, रहीं आर्यिका तेरह वर्ष।
मोह शृंखला तोड़ आपने, धर्मक्षेत्र पाया उत्कर्ष।।
धन्य श्राविका ‘मोहिनीदेवी’, धन्य आर्यिका ‘रत्नमती’।
रही श्रेष्ठता उभय पक्ष में, जग में एक मिसाल रची।।४१।।
तेरह वर्ष रही दीक्षा फिर, ‘‘पंद्रह-एक-पचासी सन्।
ज्ञानमती माताजी सन्निधि, हुआ समाधि युक्त मरण।।
गृहजीवन में रहीं जो बेटी, ध्ार्म क्षेत्र में बनीं गुरू।
पूजनीय संयम वरिष्ठता, दीक्षा जीवन नया शुरू।।४२।।
जीवन है उनका ही सार्थक, जिसका होता अंत भला।
खाक जिया वह, मरा न उत्तम, मरना भी है एक कला।।
छोटेलाल-मोहिनीदेवी, का जीवन आदर्श ललाम।
उनको श्रद्धाञ्जलि अर्पण कर, अब हम लेते अल्प विराम।।४३।।