१. महान आत्मा के आगमन पूर्व प्रकृति में हर्ष।
२. ‘शरद पूर्णिमा’ पर प्रकृति का विशेष रूप।
३. टिवैâतनगर की शोभा।
४. श्री छोटेलाल-मोहिनीदेवी के घर पुत्री-जन्म।
५. घर में खुशियों का वातावरण।
६. पुत्री का नाम ‘मैना’।
७. ‘मैना’ नाम की सार्थकता।
८. मैना का बाल्यकाल, क्रीड़ाएँ आदि।
९. मैना की प्रतिभा अत्यन्त विलक्षण।
१०. मैना में ‘उत्तम संस्कारों’ का बीजारोपण।
महान-भव्य-दिव्य आत्मा, आने वाली है भू-पर।
समझ प्रकृति सज्जित होती है, उसके स्वागतार्थ सत्त्वर।।
सर्वप्रथम वह निर्मल होने, करती है वर्षा-स्नान।
फलत: पृथ्वी-वृक्ष-लतायें, धुलकर हो जाते अमलान।।४४।।
नदी-सरोवर जल पूरित हो, जग की प्यास बुझाते हैं।
ग्रीष्मतपन से मुक्ति प्राप्त कर, सब प्राणी सुख पाते हैं।।
चौतरफा हरियाली दिखती, मखमल का होता आभास।
बादल जाते, वर्षा थमती, निर्मल हो जाता आकाश।।४५।।
धीरे-धीरे शरद ऋतू का, हो जाता है शुभागमन।
सरवर कमलों से भर जाते, निर्मल होता उनका मन।।
प्रकृतिसुंदरी सजधज के अब, नये रूप में आती है।
फूलों छिटकी हरी साटिका, सबका चित्त लुभाती है।।४६।।
बड़े-बड़े फूलों के गुच्छे, उसके केश सजाते हैं।
मधुलोभी समूह भौंरों के, गुन-गुन, गुन-गुन गाते हैं।।
शशि मुख यामा, स्वच्छ चाँदनी, हर्ष उमंगों वाली है।
मानों कहती भव्य आत्मा, कोई आने वाली है।।४७।।
उन्निस-सौ, चौंतीस ईसवी, अक्टूबर बाईस रहा।
शरद पूर्णिमा लेकर आयी, अति हितकर संदेश अहा।।
वृक्ष-लतायें-पक्षी कहते, मौसम अतिशय धुला-धुला।
नर-नारी सब कहें परस्पर, मन है मिश्री घुला-घुला।।४८।।
टिवैâतनगर शोभा अति मनहर, शरद चाँदनी, शुभ्र निशा।
था निरम्र आकाश पूर्णत:,सुप्रसन्न थी दिशा-दिशा।।
लगती प्रकृति दूध से न्हाई, मंद-मंद चल रहा पवन।
शशि किरणों से हर्षित होते, खिलते कुमुद-कुमुदनी वन।।४९।।
शारद शशि की सकल कलायें, पैâलाती हैं अमित प्रकाश।
चादर श्वेत ओढ़ लेते हैं, नगर-भवन, धरती-आकाश।।
कहते हैं इस रात सुधाकर, अमृतकण बरसाते हैं।
इसीलिये जन रखी चाँदनी, खीर प्रात उठ खाते हैं।।५०।।
कहीं-कहीं पर चंद्र चाँदनी, घी-बूरा रख खाते लोग।
कहते दीर्घकाल सेवन से, भग जाते आँखों के रोग।।
नेत्र ज्योति की करें परीक्षा, सुई छिद्र में धागा डाल।
अगर सफल हों, नेत्र ठीक हैं, वृद्ध-युवा अथवा हों बाल।।५१।।
पाठकवृन्द! चलें ऐसे में, कस्बा श्री टिवैâतनगर।
छोटेलाल-मोहिनी देवी, दम्पति रहते श्रेष्ठी वर।।
पुण्यवन्त हैं, भाग्यवंत हैं, धार्मिकता जिनकी पहचान।
उनके घर हो रही बधाई, कन्या जन्मी गुण की खान।।५२।।
कन्या अद्भुत, रत्न महत्तम, प्रसूतिगृह में हुआ प्रकाश।
मुख सुंदर, जैसे भू उतरा, शरद पूर्णिमा शशि आकाश।।
पैदा होते रोई न किंचित्, लक्षण महाविलक्षण हैं।
यह कन्या सामान्य नहीं है, ये ‘‘देवी’’ के लक्षण हैं।।५३।।
चाँद गगन का अति अचरज में, क्या मेरी परछाई है।
पता नहीं यह कौन चंद्रिका, आज धरा पर आई है।।
मेरे अंक कलंक समाया, यह तो है निकलंक छवी।
मैं डूबूँगा, लेकिन इसकी, कीर्ति कौमुदी नहीं कभी।।५४।।
बहुत समय तक गृह गवाक्ष से, कन्याश्री के दर्श किये।
फिर किरणों से शरच्चंद्र ने, पावन चरणस्पर्श किये।।
धन्य हुआ कहकर संकोचे, विनत भाव से गमन किया।
हर वर्ष आ नमन करूँगा, पूर्णचंद्र व्रत ग्रहण किया।।५५।।
जब घर में बेटा होता है, पर्व मनाये जाते हैं।
अंग्रेजी बाजे बजते हैं, खूब नाचते-गाते हैं।।
धन-दौलत भी खूब लुटाते, याचक जाय न खाली है।
लेकिन कन्या अगर जन्म ले, बजे न फूटी थाली है।।५६।।
किन्तु जीव जो पुण्य बाँध कर, पूर्व भवों से लाते हैं।
उनके जन्मकाल में हार्दिक, हर्ष मनाये जाते हैं।।
माता-पिता, कुटुम्बीजन सब, फूले नहीं समाये थे।
बहुत क्या कहें! टिवैâतनगर ने, गीत खुशी के गाये थे।।५७।।
यह खोटी परिपाटी कब से, और चली क्यों पता नहीं।
पर, जो हर्ष दिया यह बेटी, कवि तो सकता बता नहीं।।
लगे गूँजने घर औ आँगन, किलकारी सह-स्मित हास।
मुख छवि सुंदर, लख कर परिजन, हृदय समाया अति उल्लास।।५८।।
जिनका मन उदास हो जाता, लड़की जन्मी सुनकर नाम।
इस लड़की के शुभलक्षण लख, उनके होते शुभ परिणाम।।
कहते ऐसी बेटी घर में, ले लेती गर जन्म हमार।
हम तो धन्य भाग्य हो जाते, तर जाते घर-घर-परिवार।।५९।।
यथा चंद्रमा, सूरज, नदियाँ, वृक्ष-लताएँ किसी प्रकार।
भेद न करतीं, देतीं सबको, साम्यभाव से निज उपहार।।
तथा भेद न करें किसी विध, बेटा-बेटी मात-पिता।
मानों यह शिक्षा देने को, क्रमश: आते शशि-सविता।।६०।।
छोटेलाल-मोहिनीदेवी, की कन्या पहली सन्तान।
भाग्यवती है, अपर लक्ष्मी, पल-पल इसका रखते ध्यान।।
अतिशय रूपवती सन्तति को, अपलक देखा करते लोग।
कहते, जब से जन्मी घर में, मिटे हमारे चिन्ता शोक।।६१।।
गौरवर्ण, भालपट उन्नत, मुख जैसे शारद का चंद्र।
लोचन सुंदर, नीलकमल में, छिपकर बैठा कृष्ण मिलिन्द।।
नाक नुकीली, अधर लाल हैं, कर-पग छोटे मन मोहैं।
फूट रही शैशव की आभा , अंग-अंग अनुपम सोहैं।।६२।।
चरण समय के रुकें कभी ना, प्रतिक्षण बढ़ते जाते हैं।
तथा लाड़ली इस कन्या को, हम भी बढ़ती पाते हैं।।
शुभ मुहूर्त काल आने पर, रखा गया पुत्री का नाम।
नाम रहा पहचान बाह्य की, अन्त: चेतन रहा अनाम।।६३।।
‘‘मैना’’ नाम रखा पुत्री का, सदा बोलती मीठे बोल।
सबका मन करती थी माेहित, रखती आँगन अमृत घोल।।
रहीं बालक्रीड़ाएँ ऐसी, मात-पिता का शंकित मन।
रुचते नहीं कभी मैना को, स्वर्ण रचित गृह के बंधन।।६४।।
नाम न केवल सम्बोधन है, नियति बता देता है वह।।
‘मै’-‘ना’ घर में रह पाऊँगी, ‘मैना’ नाम बताता कह।।
अहंकार का है प्रतीक ‘मैं’, नहीं करेगी यह बाला।
भवकानन में रहे भटकता, अहंकार करने वाला।।६५।।
ग्रह-नक्षत्र-तिथि आदि का, जातक पड़ता अमित प्रभाव।
ज्योतिषशास्त्र बताता सब है, होंगे वैâसे जातक भाव।।
‘‘शरच्चंद्र यह बतलाता है, जातकधारी सम्यग्ज्ञान।
भूतल पर जातक पायेगा, यश: कीर्ति, निर्मल सम्मान।।६६।।
शुभ्र चाँदनी बतलाती है, ज्ञान क्षयोपशम दूध धुला।
खिले कुमुदवन भव्यमनों को, जातक देगा खिला-खिला।।
शारद शुभ्र चाँदनी जन्मा, वैâसा होगा जातक भ्रात?
मिथ्यातम को दूर हटाकर, कर देगा सम्यक्त्व प्रभात।।६७।।
स्वच्छ गगन में शांत चमकता, क्या कहता है हमसे चंद्र।
महाव्रती बन करके जातक, सब को देगा हर्ष अमंद।।
यथा चाँदनी शीतल होती, वैसे होंगे शांत विचार।
स्वच्छ और विस्तीर्ण गगन-सा, उसका होगा हृदय उदार।।६८।।
मुख से निकले शब्द-शब्द में, होगा अक्षय अमृत वास।
उसके मुख मंडल के ऊपर, करेगा झिलमिल दिव्य प्रकाश।।
वर्तमान में से होकर ही, होता है भविष्य निर्माण।
‘मैना’ नाम रखा पुत्री का, सबकी राजदुलारी है।
है सबकी आँखों का तारा, सबको प्राणों प्यारी है।।
नाम नहीं केवल संज्ञा है, इसमें रहता छिपा भविष्य।
आज न सही, कल तो निश्चित, प्रगटित होगा निहित रहस्य।।७०।।
कार्यव्यस्ततावश जब माता, बिटिया खिला न पाती थी।
तब पलने में लेटी ‘मैना’, जब-तब रुदन मचाती थी।।
माता आती, दूध पिलाती, चुम्बन लेकर गाती थी।
प्रत्युत्तर में जननी मन को, ‘मैना’ किलक रिझाती थी।।७१।।
धीरे-धीरे बढ़ती जाती, यथा दोज की चंद्रकली।
वैसे क्रमश: बड़ी हो गयी, ‘मैनादेवी’ नाम लली।।
‘‘होनहार बिरवान के होते, चिकने पत्ते’’ सत्य कथन।
उज्ज्वलतम भविष्य बतलाता, ‘मैना’ का सुंदर बचपन।।७२।।
‘ललना के लक्षण पलना में, दिख जाते’ सब कहते हैं।
पग से चलती कहती ‘मैना’, पदविहार हम करते हैं।।
मैं महलों में नहीं रहूँगी, जाऊँगी संतों के संग।
क्रीड़ायें भी ऐसी करती, होता भरा विरागी रंग।।७३।।
‘मैना’ नाम सार्थक करती, वाणी सबको भाती थी।
जो भी सुनता, अमृत लगता, जब ‘मैना’ तुतलाती थी।।
माता यदा आरती पढ़ती, पूजा करती, गाती थी।
छोटी ‘मैना’ साथ बैठकर, ताली खूब बजाती थी।।७४।।
जा एकान्त बैठ पूजा का, खेल खेलती थी मैना।
साध्वी बनना, साधुजनों को, किस प्रकार भोजन देना।।
साधु-संत जब नगर पधारें, लाभ उठाना कर सत्संग।
स्वाध्याय नवनीत मिला जो, उसे बनाया जीवन अंग।।७५।।
काल का पंछी उड़ता जाता, पता नहीं कुछ चल पाता।
प्रात:-सायं-रजनी आती, फिर प्रभात है आ जाता।।
इस प्रकार क्रमश: ‘मैना’ ने, वर्ष सातवाँ प्राप्त किया।
वर्ष आठवाँ जाते-जाते, लौकिक शिक्षा प्राप्त किया।।७६।।
बुद्धि बड़ी विलक्षण इनकी, एक बार में सब कुछ याद।
ऐसी लगन कि क्षण भर ‘मैना’, करती नहीं व्यर्थ बर्बाद।।
हेडमास्टर बोला ‘‘छोटे! बेटी सरस्वती-अवतार।
इससे आगे बढ़ा न कोई, सब लड़के हारे झकम्सार।।७७।।
खतम हो गई लौकिकशिक्षा, आगे साधन कोई नहीं।
साध नहीं पूरी हो पायी, अत: साधिका रुकी नहीं।।
जैन पाठशाला में जाकर, धार्मिक शिक्षा लाभ लिया।
पाठ वहीं का वहीं याद कर, सबको विस्मय डाल दिया।।७८।।
समय पे आना, समय पे जाना, पढ़-लिख तत्क्षण पूरा काम।
एकचित्तता गुरुमुख सुनना, नहिं प्रमाद-आलस का नाम।।
बुद्धि तीव्रता, लगनशीलता, विनयशीलता, अनुशासन।
मिलते हैं विरले छात्रों में, हर लेते शिक्षक का मन।।७९।।
रहीं सदा दर्जे में अव्वल, सदा सहेली मात दिया।
सच पूछो तो इन्हीं गुणों ने, मैना जी का साथ दिया।।
पुस्तक पढ़ना, स्वाद न चखना, इसे नहीं कहते हैं ज्ञान।
किन्तु पढ़ा जो, उतरे जीवन, वस्तु तत्त्व होना पहचान।।८०।।
इस अनुपम संतान जन्म दे, माँ मोहिनी का मातृत्व।
धन्य हो गया सभी तरह से, छोटेलाल का पितृत्व।।
अंग-अंग थी प्रकृति विहर्षित, टिवैâतनगर की गली-गली।
पुत्र से बढ़कर हर्ष मनाया, जब यह चटकी प्रथम कली।।८१।।
जैसी घूटी पिलाई जाती, वैसे लक्षण आते हैं।।
धीरे-धीरे वृद्धिंगत हो, अपना असर दिखाते हैं।।
‘‘शुद्ध-बुद्ध हो, अलख-निरंजन, जग माया से रहितपना।’’
माता से लोरी-सुन बालक, कुंदकुंद आचार्य बना।।८२।।
माताश्री मोहिनीदेवी, विदुषी-धार्मिक-शिष्ट अती।
माँ गुण ‘‘मैना’’ रक्त समाये, वैसी हो गई बालमती।।
पद्मनंदिपंचविंशतिका, सुना-पढ़ा माँ गर्भदशा।
अत: धर्म अनुराग पूर्णत:, मैना देवी हृदय बसा।।८३।।
प्रात: उठते ईशस्मरण, करतल तीर्थंकर दर्शन।
महामंत्र श्री णमोकार का, करना नवधा उच्चारण।।
कर स्नान जिनालय जाना, हर्षित होना लख अभिषेक।
गन्धोदक को शिरोधार्य कर, पूजन करना भाव समेत।।८४।।
अनुशासन-आज्ञा का पालन, शिष्ट-सौम्य-सत्य व्यवहार।
मात-पिता से ‘मैना’ पाये, सहजरूप उत्तम उपहार।।
‘मैना’ बिटिया बड़ी चतुर थी, कार्य कठिन हों वैâसे ही।
झटपट सुंदर कर देती थीं, माता कहती जैसे ही।।८५।।
दादा-दादी, चाचा-चाची, ताऊ-ताई की संतान।
प्रेमभाव से रहते हिलमिल, कभी न होती खींचातान।।
सेवाभाव, समर्पण, आदर, सहनशीलता, अतिथि सत्कार।
सकल गुणान्वित इस कुटुम्ब में, मैना पाये शुचि संस्कार।।८६।।