१. जैन पाठशाला का वार्षिकोत्सव।
२. पंद्रह वर्षीय मैना का उत्सव में माँ के साथ जाना।
३. अकलंक और निकलंक नाटक का मंचन।
४. मैना पर ‘‘नाटक का प्रभाव’’-गृह बंधन में नहीं बँधने का निर्णय’’
५. अपना निर्णय माँ को सुनाया।
पाठकवृन्द! चलें हम मिलकर, जैन पाठशाला प्रांगण।
जहाँ हो रहा संस्था के, ‘‘वार्षिक’ उत्सव का आयोजन।।
साधारणजन को ये उत्सव, करते मात्र मनोरंजन।
किन्तु विशिष्ट, विवेकीजन का, उठ जाता इनसे जीवन।।९८।।
धीरे-धीरे ‘मैना देवी’, आगे कदम बढ़ाती हैं।
समय बीतता जाता ‘मैना’, वर्ष पंचदश पाती हैं।।
दर्शकगण के मध्य मातृ संग, हम ‘मैना’ को पाते हैं।
‘मैना’ के जीवन में इससे, चार चाँद लग जाते हैं।।९९।।
उपादान जब जाग्रत होता, लघुनिमित्त कर जाता काम।
वरना जीव भटकता रहता, पा नहिं पाता लक्ष्य मुकाम।।
संस्कारित ‘मैना’ का मन था, धर्म बीज को उत्तम क्षेत्र।
अप्रमत्त रहती जब चर्या, खुल जाते विवेक के नेत्र।।१००।।
‘‘अकलंक और निकलंक’’ का मंचन, तदा हुआ उत्सव के बीच।
यह निमित्त पाकर ‘मैना’ ने, त्यागा जगत् मोह का कीच।।
पाठकवृंद! शुरू होता है, देखो नाटक का मंचन।
तीर्थंकर श्री महावीर को, करते सब सादर वंदन।।१०१।।
श्री दिगम्बर जैन जिनालय, राजित थे मुनिराज श्री।
किसी भव्य दम्पति ने आकर, उनकी चरण वंदना की।।
शुभ विचार आया दम्पति मन, बोले मुनिवर कृपा करें।
हमें अठाई पर्व काल तक, व्रत ब्रह्मचर्य प्रदान करें।।१०२।।
करुणावंत श्री मुनिवर ने, व्रत आशीष प्रदान किया।
‘‘ओम्’’ शब्द कहकर दम्पति ने, मुनिपद विनत प्रणाम किया।।
साथ में आये पुत्र युगल के, मन में जागे भाव महान।
श्री गुरुवर! हम दोनों को भी, यह पावन व्रत करें प्रदान।।१०३।।
दक्षिण कर आशीष दिया गुरु, बच्चों! करना धर्मप्रचार।
निर्भर है तुम जैसों पर ही, जैनधर्म-रक्षा का भार।।
पंख लगा कर समय उड़ गया, बालक दोनों हुए जवान।
इनका परिणय सुकरणीय है, मात-पिता जागे अरमान।।१०४।।
पुत्रों शिक्षा-पूर्ण हो चुकी, अब दोनों का करें विवाह।
नहीं पिताजी! हम न करेंगे, अपना जीवनवृक्ष तबाह।।
ब्रह्मचर्य व्रत करी प्रतिज्ञा, साक्षी श्री मुनिराज चरण।
केवल पर्व अठाई तक ही, किया तदा ब्रह्मचर्य वरण’’।।१०५।।
नहीं पिताजी! नहीं था उसमें, सीमा का उल्लेख कहीं।
जीवनभर पालेंगे उसको, हम तो करें विवाह नहीं।।
यह क्या मात-पिता के उर पर, तुमने किया कुठाराघात।
अहो! हमारे अरमानों पर, मानोें हुआ है उल्कापात।।१०६।।
‘‘वंशवेलि अब बढ़ेगी वैâसे, वैâसे रहेगा जग में नाम।’’
‘‘नाम आपका करेंगे रोशन, करेंगे जग में सुंदर काम।।’’
नयन अश्रु भर कर माता ने, ममता का जादू डाला।
तथा पिताजी लगे पिलाने, हृदय प्यार भर-भर प्याला।।१०७।।
लेकिन दृढ़व्रती पुत्रों पर, हुआ न इसका कोई असर।
बोले ‘‘निज कल्याण करेंगे, पंच महाव्रत धारण कर।।’’
‘‘पहले बेटों शादी कर लो, परम्परा निर्वाह करो।
तदनंतर दीक्षा लेकर के, आतम का कल्याण करो’’।।१०८।।
विनय सहित अकलंक ने कहा-‘‘नहीं, पिताजी ठीक नहीं।
पहले कीचड़ में पग करना, फिर धोना यह नीति नहीं।।
इससे तो उत्तम यह होगा, हम कीचड़ में करें न पग।
दीक्षा लेकर मुनिव्रत पालें, अपना लें शिवपुर का मग’’।।१०९।।
श्री अकलंक के एक वाक्य ने, ‘मैना’ जीवन बदल दिया।
‘‘मैं गृह बंधन नहीं बँधूंगी, तत्क्षण दृढ़ संकल्प किया।।’’
उचित समय, उत्तम निर्णय की, जिसमें क्षमता होती है।
वही आत्मा जीवनपथ में, बीज सफलता बोती है।।११०।।
‘मैना’ माँ से कहा कान में, ‘‘यह संसार कठिन कारा।
नहीं फंसूँगी गृह बंधन में, चाहूँ भव से छुटकारा।।
करना है कल्याण स्वयं का, व्यर्थ न खोना मानव भव।’’
माँ मोहिनीदेवी ने सुन, किया तत्त्व हृदयंगम सब।।१११।।
माँ ने सोचा ‘‘यह बच्ची है, भोली है, नादान अभी।
जब उत्तम अवसर आयेगा, समझा दूँगी, बात सभी।।
अथवा जब यौवन आयेगा, समझ स्वयं आ जायेगी।
बहुत कठिन स्नेह का बंधन, तोड़ नहीं यह पायेगी।।११२।।
‘पद्मनंदिपंचविंशतिका’, का ‘मैना’ स्वाध्याय किया।
पढ़ ‘देहाष्टक’ अशुचि देह का, सच्चा परिचय प्राप्त किया।।
स्वाध्याय वह ही कहलाता, जिसका आतमहित उपयोग।
नाटक-ग्रंथ देख-पढ़ ‘मैना’, किया आत्महित सत् उद्योग।।११३।।
ज्ञान नहीं रक्षित ग्रंथों में, किन्तु आत्मा का है धन।
अत: जरूरी ज्ञान प्रकट हो, बसे आचरण के आँगन।।
पढ़ते-पढ़ते ‘शास्त्र-व्यक्ति’ की, देह जीर्ण हो जाती है।
किन्तु, हन्त! मन बसी आत्मा, जीर्ण नहीं हो पाती है।।११४।।
‘मैना’ पढ़ती नहीं थी केवल, किन्तु मनन भी करती थी।
जो अन्तस् को अच्छा लगता, उसको वह आचरती भी।।
माता-पिता, सकल परिजन ने, जब विवाह पर डाला जोर।
लेकिन ‘मैना’ एक न सुनी, देखा नहीं उधर मुख मोड़।।११५।।
औरों के रोके से सूरज, कभी न पथ से रुकता है।
वैâसे भी तूफाँ आये पर, गिरि सुमेरु न डिगता है।।
झरने की बहती धारा को, कोई रोक न पाता है।
जिसमें होती ऐसी दृढ़ता, वही प्रगति कर पाता है।।११६।।
यह प्रणम्य निर्णय ‘मैना’ का, बना जगत् को महदादर्श।
ब्रह्मचर्य-संयम द्वारा ही, आत्मा पाती है उत्कर्ष।।
जगत् वंद्य पावन निर्णय की, भूरि प्रशंसा करते हम।
चलते हैं ‘मैना’ के घर पर, बढ़ रहे त्याग के जहाँ कदम।।११७।।