१. अद्भुत अलौकिक जिनबिम्ब दर्शन एवं प्रवास।
२. रात्रि में प्रभु चरणों में ध्यान लगाया।
३. एक रात्रि में ध्यानकाल में जम्बूद्वीपादि रचनाओं के दर्शन हुए।
४. यहीं बाहुबली स्तोत्र एवं बाहुबली चरित्र की रचना की।
५. १५ दिन में कन्नड़ भाषा सीखी और कौशल प्राप्त किया।
६. जम्बूद्वीप एवं तेरहद्वीप रचना हस्तिनापुर में बनवाई।
७. अनेक स्तोत्रों-स्तुतियों की रचना।
८. कन्नड़ भाषा में भद्रबाहु स्तुति की रचना।
९. एक वर्ष और प्रवास।
१०. आस-पास के क्षेत्रों के दर्शन।
जैसे सूरज निज स्वभाव से, हरता है जग का अँधकार।
वैसे संत प्रकृतिवश अपनी, करते रहते हैं उपकार।।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती जी, ऐसी ही हैं साध्वी एक।
उनके पावन श्रीचरणों में, शत-शत वंदन माथा टेक।।४७७।।
कई वर्षों से गोम्मट स्वामी, दर्शन इच्छा रही प्रबल।
कर विहार माताजी पहुँचीं, बाहुबली के चरण कमल।।
श्री जिनेन्द्र की अनुपम-अद्भुत, मनहरमूरत तुंग विशाल।
नयनों के सम्मुख आते ही, माँ कर जोड़ नमाया भाल।।४७८।।
नयन खुले के खुले रह गये, तन रोमांचित, गद्गद स्वर।
गोम्मटेश श्री बाहुबली की, ध्यानलीन छवि को लखकर।।
लगा कि जैसे स्वप्न हो कोई, अति विस्मय, आश्चर्य महा।
हर्षातिरेक बहा नयनों से, शब्दों से नहिं जाय कहा।।४७९।।
पथ का श्रम काफूर हो गया, रोगादिक सब दूर हुए।
निर्धन को मिल गया खजाना, कर्म कुलाचल चूर हुए।।
चंद्र-विन्ध्यगिरि करी वंदना, किन्तु मिटी न मन की प्यास।
अत: दिवस पन्द्रह माताजी, रहीं बाहुबलि चरणों पास।।४८०।।
चरणों बैठ ध्यान थी करतीं, स्तुति पढ़तीं-चिंतन-मौन।
पूर्ण निराकुलता अपनाई, शिष्या-संघ हमारे कौन।।
रात्रिशयन कम करें, चाँदनी, बाहुबली छवि निरखें खूब।
मनोवेदिका उन्हें बिठाकर, नयनकपाट लगातीं डूब।।४८१।।
एक रात्रि के अंत प्रहर में, ध्यान मग्न थीं माताजी।
हुए अलौकिक क्षेत्र के दर्शन, गिरि-द्वीप-मंदिर आदी।।
जम्बूद्वीप – खंड धातकी – पुष्करवर – नंदीश्वर सब।
द्वीप-कुलाचल-मंदिर-मूरत, माताजी ने देखे तब।।४८२।।
घन्टों बैठीं रहीं ध्यान में, देखा दिव्य प्रकाश हिए।
लगा कि जैसे पूर्व जन्म में, इनके दर्शन खूब किए।।
चार शतक अष्टपंचाशत, जिनमंदिर के सुुंदर दृश्य।
स्मृति पटल से माताजी के, अद्यावधि नहिं होय अदृश्य।।४८३।।
यथादृष्ट जिनमंदिर संख्या, त्रिलोकसार में पाते हम।
इसमें है संदेह न कुछ भी, देखे मात ने पूर्व जनम।।
बाहुबली स्तोत्र की रचना, प्रभु चरणों गिरि ऊपर की।
एक पंचाशत श्लोकों में, सुंदर-सरस भक्ति रस की।।४८४।।
बाहुबली का चरित आपने, एक शतक एकादश पद्य।
रचा मनोहर अनुपम सुंदर, लगी देर ना अतिशय सद्य।।
एक शतक एकादश पद्यों, की मणिमाला स्वर्ण गुणी।
माताजी ने अर्पित की हैं, अद्वितीय गोम्मटेश मुनी।।४८५।।
माताजी की प्रतिभा अद्भुत, महाविलक्षण अकलंकी।
पंद्रह दिन में कन्नड़ भाषा, कौशल पाया माताजी।।
यही नहीं शिष्याओं को भी, सिखा दिया पढ़ना-लिखना।
अति आश्चर्यजनक घटना यह, महज्जनों का है कहना।।४८६।।
स्वप्न देखना चीज अलग है, किन्तु उसे करना साकार।
बहुत ही टेढ़ी खीर बंधु वह, रह जाते जन झक को मार।।
मध्यलोक-तेरहद्वीपों के, चार शतक पंचाशत आठ।
अकृत्रिम जिन चैत्यालय को, हस्तिनागपुर उतरा ठाठ।।४८७।।
यह किसका कमाल है बोलो, किसने सब साकार किया।
किसने जैनागम को भू-पर, याथातथ्य उतार दिया।।
जम्बू – द्वीप – समुद्र – सुमेरू, पर्वत – क्षेत्र – नदी – सरवर।
देव-तीर्थंकर-कर्मभोगभू, आर्य-म्लेच्छ नर किये अमर।।४८८।।
तेरहद्वीप याद रख पाना, उनकी सब रचना का ज्ञान।
कागज पर भी लिख ना पाते, काल पाँचवें के विद्वान्।।
अहो! धन्य माताजी तुम हो, सबको दिया अमर आकार।
एतदर्थ तव चरण कमल में, नमन हमारा बारम्बार।।४८९।।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती जी, रचे यहाँ स्तोत्र अनेक।
जम्बूस्वामी, गुरूवीर-शिव, स्तुतियाँ सुंदर प्रत्येक।।
सांगत्यराग में माताजी ने, महावीर स्तुति रची।
भद्र-बाहु स्तुति, अनुप्रेक्षा, कन्नड़ भाषा में विरची।।४९०।।
जम्बूद्वीप रचना का मन में, आया यहीं दिव्य आभास।
अनुपम साहित्यिक कृतियों से, पूर्ण रहा यह चातुर्मास।।
याद रहेगी सदाकाल यह, जीवन की उपलब्धि महान्।
बाहुबलि के चरणकमल का, रहा श्रेष्ठ उत्तम वरदान।।४९१।।
पादमूल में बाहुबली के, जब-जब माता करें प्रवास।
आगन्तुक जिज्ञासुजनों को, तब-तब दें सम्बोधन खास।।
दिगम्बरत्व का क्या महत्त्व है, बाहुबली का चरित महान।
समझा देतीं अंग्रेजों को, माताजी देकर व्याख्यान।।४९२।।
गोम्मटेश-श्रीबाहुबली की, अनुपम छवि मन को भायी।
पर्वतमाला पर हरीतिमा, ने ली चहुँदिशि अँगड़ाई।।
ज्ञानावरणी कर्म क्षयोपशम, तेरहद्वीप दिव्य आभास।
सब विचार कर माताजी ने, किया यहीं पर चातुर्मास।।४९३।।
यही नहीं श्रीमाताजी ने, एक वर्ष यहाँ किया प्रवास।
कार्य असंभव संभव होते, यदि हो मन में सच्ची प्यास।।
दृढ़ संकल्पी पा जाते हैं, जो लेते हैं मन में ठान।
माताजी अभिषेक को पाया, असमय श्री गोम्मट भगवान।।४९४।।
एक वर्ष तक बाहुबली जी, निश्चल रहकर धारा योग।
माताजी भी एक वर्ष तक, यहाँ रहीं अद्भुत संयोग।।
फाल्गुन कृष्णा अंक चतुर्थी, आना-जाना एक तिथि।
बाहुबली छवि को निहारते, चला संघ मूडविद्री।।४९५।।
मूड़विद्री में संघ ने किये, दर्शन प्रतिमा फटिक मणी।
रत्नमयी जिन प्रतिमाओं के, कई अवगाहना, वर्ण कई।।
कारकल-हुम्मच-धर्मस्थ्ाल से, पहुँच गया संघ बीजापुर।
धर्म प्रभावना करते-करते, संघ आ गया सोलापुर।।४९६।।